सिर्फ़ वर्कलोड नहीं, कामकाज के बुनियादी मकसद पर भी बात होनी चाहिए

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Amaresh Saurabh

अर्न्स्ट एंड यंग इंडिया (EY India) की CA एना सेबेस्टियन की मौत के बाद अचानक वर्कलोड को लेकर लंबी-चौड़ी बहस छिड़ गई है. काम करने के अधिकतम घंटे और इसकी आदर्श स्थिति पर बातें हो रही हैं. लेकिन पूरी चर्चा में एक पक्ष लगभग अछूता रह जा रहा है. बात तो इस पर भी होनी चाहिए कि आखिर बढ़ते वर्कलोड की जड़ में कौन-कौन-सी चीजें होती हैं. चाहे-अनचाहे दिन-रात काम में खपते चले जाने का मकसद और हासिल क्या है?

वर्कलोड का अंकगणित

कॉरपोरेट की बात को फिलहाल साइड में रखते हैं. वर्कलोड कहते किसे हैं, यह ठीक से समझना हो, तो एक औसत शहरी स्कूली बच्चे से पूछ लीजिए. दो-तीन दशक पहले तक उसी क्लास में पढ़ने वाले किसी बच्चे से उसकी तुलना करके देखिए. सब्जेक्ट बढ़ गए. पेपर बढ़ गए. सिलेबस और फैल गया. रोज-रोज होमवर्क और असाइनमेंट की भरमार. परीक्षा में नए-नए घुमावदार सवाल पूछे जाने लगे. हालात ऐसे हैं कि अब 90-92 फीसदी मार्क्स वालों को भी कोई नोटिस नहीं करता. ऊपर से कम उम्र में ही कॉम्पिटीशन और करियर चुनने का दबाव.

अमूमन दबाव और तनाव से भरी यह दौड़ तब तक चलती रहती है, जब तक बच्चे का दाखिला किसी प्रतिष्ठित संस्थान में न हो जाए. अगर यहां तक सब ठीक-ठाक रहा, तब एक ऐसी ही दौड़ फिर शुरू हो जाती है, जो मनचाही नौकरी मिलने पर जाकर पूरी मान ली जाती है. लेकिन क्या यहां तक पहुंचने के बाद लाइफ में सब कुछ हरा-हरा हो जाता है? अगर ऐसा हो पाता, तो किसी को एना सेबेस्टियन की मौत पर चर्चा करने की जरूरत ही क्या थी?

दफ्तर और काम का बोझ

कॉरपोरेट सेक्टर में वर्कलोड ज्यादा होना एकदम सामान्य बात है, वर्कलोड कम होना या न होना असामान्य. यहां अपने पद और योग्यता के हिसाब से बिना रुके, बिना थके, लगातार काम करने के ही तो पैसे मिलते हैं. जो ज्यादा ऊंची कुर्सी पर बैठे होते हैं, उन पर भी ज्यादा से ज्यादा काम करने या काम लेने का दबाव है. कुल मिलाकर, इन सबके पीछे सैलरी-पैकेज का आकर्षण काम करता है, जिसके डिजिट देखकर लोग यहां खिंचे चले आते हैं. जरा सोचिए कि आज कॉरपोरेट कल्चर में 'संतोष में ही सुख' मानने वाले किस कैटेगरी में गिने जाएंगे?

जहां अधिकतर लोगों पर जैसे-तैसे, ज्यादा से ज्यादा पैसे और प्रमोशन पाने की धुन सवार हो, साथ-साथ कंपनी के मुनाफे का ग्राफ उठाने का दबाव हो, वहां कामकाज और जीवन के बीच संतुलन बनाकर चलने का सवाल पीछे छूटने लगता है. ऐसे में जब कोई एना सेबेस्टियन दम तोड़ती है, तो कॉरपोरेट सेक्टर की बड़ी बीमारी बेपर्दा हो जाती है.

ऐसा भी नहीं कि लोग अपनी मर्जी से तनाव और दबाव वाली जिंदगी चुनने को तैयार हो जाते हैं. लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि आज कामयाबी का जो पैमाना हमने बना रखा है, वहां किसी कंपनी में टॉक्सिक वर्क कल्‍चर का पनपना और फलना-फूलना कोई अचरज की बात नहीं.

क्या खोया, क्या पाया?

वर्कलोड को केवल कॉरपोरेट सेक्टर की सीमा में बांध देना हकीकत से मुंह मोड़ने जैसा होगा. एक समय 'सरकारी दामाद' वाला जुमला खूब चलता था. अब यह धीरे-धीरे अर्थहीन होता जा रहा है. हाल के दशक में 'सरकारी दामादों' को भी बड़े-बड़े टारगेट दिए जाने लगे हैं. वर्कलोड से उनकी भी नींद उड़ती जा रही है. अपने इर्द-गिर्द झांकने पर इसके उदाहरण आसानी से नजर आ जाते हैं.

मतलब, चाहे कोई स्कूली बच्चा हो या दफ्तर जाने वाला वयस्क, वर्कलोड से हर कोई 'पीड़ित' नजर आता है. और यह 'पीड़ा' शारीरिक कम, मानसिक कामों को लेकर ज्यादा है. मानसिक दबाव का शरीर के बाकी अंग-अवयवों पर कैसे और कितना बुरा असर पड़ता है, इस बारे में वैज्ञानिक तथ्य पहले से मौजूद हैं. इन्हें अलग से, बार-बार साबित किए जाने की जरूरत नहीं रह गई है. ऐसे में हर किसी को थोड़ी देर ठहरकर देखना होगा कि वर्कलोड और इससे हासिल 'कामयाबी' से उसे फायदा ज्यादा हो रहा है या नुकसान.

चूंकि हर इंसान की क्षमता अलग-अलग होती है, भौतिक जरूरतें भी अलग-अलग तरह की होती हैं, इसलिए मुमकिन है कि वर्कलोड के नफा-नुकसान के सवाल का जवाब भी अलग-अलग आए. इसके बावजूद, सच्चाई को किसी चमकदार मार्क्सशीट या मोटे सैलरी-पैकेज के रैपर में छुपाकर रखना क्या लॉन्ग टर्म में फायदे का सौदा होगा?

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उपाय क्या है?

अब तक जिन समस्याओं का जिक्र किया गया, उनसे पार पाने का उपाय यह कतई नहीं हो सकता कि कोई स्टूडेंट पढ़ना-लिखना ही कम कर दे या कोई वयस्क दफ्तर में काम करने से जी चुराने लगे. लेकिन इतना जरूर किया जा सकता है कि वर्क का लोड अपनी क्षमता देखकर ही उठाया जाए. या लोड के हिसाब से अपनी क्षमता में धीरे-धीरे इजाफा कर लिया जाए. दोनों में से एक भी शर्त पूरी न होना खतरे की घंटी की तरह है.

आज मेनस्ट्रीम मीडिया हो या सोशल मीडिया, हर जगह अध्यात्म को पहले से ज्यादा स्पेस मिलने लगा है. मोटिवेशनल स्पीकरों की भी बाढ़-सी आई हुई है. इनमें से हर कंटेंट अपने काम का हो, कोई जरूरी नहीं. पर सब कुछ बेकार ही हो, ऐसी भी बात नहीं. जहां कहीं से भी जीवन की राह थोड़ी आसान होती मालूम पड़े, वहां ध्यान देने, समझने-सीखने में हिचक नहीं होनी चाहिए. आखिर मानसिक दबावों को कुशलता के साथ झेलने के लिए सबसे पहले दिमागी और भावनात्मक मजबूती की ही दरकार होती है.

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नई पौध को कैसे सींचें?

हाल ही में दुनिया ने देखा कि भारत ने किस शानदार तरीके से चेस ओलम्पियाड में झंडे गाड़े. इसमें गोल्ड जीतने वाली भारतीय पुरुष टीम के सदस्य अर्जुन एरिगैसी ने बड़े मार्के की बात कही है. अर्जुन ने कहा कि पिछला साल उनके लिए अच्छा नहीं रहा. लेकिन बीते एक साल से वे अध्यात्म से जुड़ गए और उनके प्रदर्शन में सुधार हो गया. यहां अर्जुन इसी बात की पुष्टि करते दिख रहे हैं कि अक्सर अपने कामकाज को जीवन-मूल्यों से जोड़ देने पर बेहतर नतीजे हासिल होते हैं.

अगर अर्जुन की बातें मानने का मन न हो, तो कम से कम एना की मां अनीता ऑगस्टीन की बातों पर तो ध्यान दिया ही जाना चाहिए. एना के गुजर जाने के बाद अनीता ऑगस्टीन ने भारी दु:ख जताते हुए मेल में लिखा, "काश, मैं अपनी बच्ची को बचा सकती... काश, मैं उसकी मदद कर पाती... काश, मैं उसे बता पाती कि उसकी सेहत और उसकी खुशी दुनिया में बाकी सब चीजों से ज्यादा मायने रखती है... लेकिन ये सब कहने के लिए अब बहुत देर हो चुकी है..."

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कवि का आशय समझिए

अपने यहां एक आदर्श वाक्य खूब प्रचलित है, 'अहर्निशं सेवामहे'. मतलब, 'हम दिन-रात सेवा में जुटे हैं.' कई संस्थानों ने इसे अपना मोटो बनाया है. अच्छी बात है. कोई संस्थान अगर 24*7 काम करता है, तो यह कोई अचरज की बात नहीं है. शिफ्ट का सिस्टम इसीलिए तो बना है. लेकिन किसी इंसान से चौबीसों घंटे काम में पिले रहकर खुद की सेहत से खिलवाड़ करने की उम्मीद नहीं की जा सकती.

इसी तरह, दिनकर जी एक जगह लिखते हैं, 'स्वर्ग की सुख-शांति है आराम में / किन्तु, पृथ्वी की अहर्निश काम में.' यहां शब्दार्थ नहीं, भावार्थ देखने की जरूरत है. यह समझने की जरूरत है कि इन पंक्तियों में कविवर के कहने का आशय क्या है.

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अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.