नई दिल्ली: चिराग़ दिल्ली फ्लाईओवर के नीचे जाम में न फंसे होते तो हम इस अनाम कहानी तक नहीं पहुंच पाते। मेरी कार के बगल में रुकी इस कार ने ख़ासी उत्सुकता पैदा कर दी। शीशा नीचे कर ज़ोर आवाज़ में बात होने लगी। ये क्या गाड़ी है। आप लोग क्या करते हैं इससे। गाड़ी के भीतर सफेद रंग की एक साफ सुथरी टंकी रखी हुई थी। टंकी के पानी को दूर तक पहुंचाने के लिए होंडा का बड़ा सा जेनरेटर और लंबी पाइप लपेट कर रखी हुई थी। किसी ने बड़े करीने से मारुति इको में इसका इंतज़ाम किया था। कार के ऊपर लाल रंग की पट्टी पर ना कोई नाम न नंबर। चारों तरफ़ एक ही संदेश लिखा था। कृपया अपने घर के बाहर पानी पीने का मटका रखें। शुक्रिया।
ड्राइवर साहब से पूछने लगा कि ये संदेश लेकर क्यों घूम रहे हैं। उन्होंने बताया कि हमारे साहब उन मटकों में पानी भरवाते हैं। दिल्ली के कई फ्लाईओवर या व्यस्त बस स्टैंड के पास उन्होंने मटके रखवायें हैं। हम लोग दिन में दो बार उन मटकों में पीने का पानी भर आते हैं। पानी एकदम साफ है। जनरेटर और पाइप इसलिए है कि एक बूंद पानी बर्बाद न हो। हर बूंद मटके में डाला जाता है। इतना सुनते ही एक पूरी कहानी रग़ों में दौड़ गई। जल्दी नंबर दीजिए तो। क्या नाम है आपके साहब का। ड्राइवर साहब संकोच करने लगे लेकिन नंबर दे दिया।
सर, मैं रवीश बोल रहा हूं, एनडीटीवी इंडिया से। जी, माफ़ कीजियेगा मैं हिन्दी नहीं बोल पाता, अगर आप अंग्रेज़ी बोल सकें तो। फोन उठाने वाले शख्स की उम्र आवाज़ से लरज़ रही थी। अलघ साहब से मैंने कहा कि सर मुझे अंग्रेजी नहीं आती पर मैं अंग्रेज़ी समझ सकता हूं। बस दोनों में बात होने लगी। 67 साल के अलघ साहब अपना पूरा नाम भी नहीं बता रहे थे। अपने काम के बारे में बताने को लेकर संकोच से भर गए। मुझे अच्छा लगता है इसलिए करता हूं लेकिन पब्लिसिटी के लिए नहीं करता। बहुत ज़िद की तब भी पूरा नाम नहीं बताया लेकिन उनसे वादा ले लिया कि आपकी कहानी न जाने कितनों की सोच बदल देगी, तो बस वे मान गए।
अलघ साहब पेशे से इंजीनियर मालूम पड़े। अमरीका से आकर दिल्ली के पंचशील पार्क में अपना बसेरा बनाया और दूसरों के बसेरे के आगे ग़रीबों को पानी पीलाने का रास्ता खोजने लगे। दिल्ली शहर में ऐसी जगह और इमारतों की तलाश करने लगे जहां मटके रखे जा सकते हैं। अलघ साहब ने इसके लिए पानी की भी खोज की। स्टेप बाई स्टेप स्कूल और एक पड़ोसी ने पानी देने का वादा कर दिया। वहां से साफ पानी को मटका स्थल तक पहुंचाने के लिए दो मारुति इको ख़रीदी और उसे स्टील की चादरों से बनाया ताकि जंग न लगे। उनका कहना है कि पानी तो साफ और सुरक्षित ही होना चाहिए।
अलघ साहब की गाड़ी से हमारी मुलाकात जहां हुई थी उसी चिराग़ दिल्ली फ्लाईओवर के नीचे आठ मटके रखे हैं। एशियाड रोड के बस स्टैंड के पास भी मटके रखे हैं। इस तरह से उन्होंने 8-10 जगहों पर मटके रख दिये। बस इनकी एक कोशिश होती है कि कोई इन मटकों की ज़िम्मेदारी ले ले ताकि कोई तोड़फोड़ न करे। बाकी का काम अलघ साहब का। आप पानी पीते जाइये और इनकी गाड़ी भरती जाएगी।
मटके साथ अलघ साहब को वाटर कूलर का भी ख़्याल आया। लगा कि ये सुरक्षित और स्थायी तरीका हो सकता है। उन्होंने चालीस अस्सी और डेढ़ सौ लीटर के वाटर कूलर लगाने शुरू कर दिये। इन पर लागत 30 से 45 हज़ार तक आती है। ये सारा ख़र्चा अलघ साहब ख़ुद उठाते हैं। इस काम में दिक्कत ये आई कि सब कूलर को अहाते के भीतर लगाना चाहते थे। जैसे महरौली रोड के जैन मंदिर के भीतर लगाना पड़ा क्योंकि बाहर कूलर की सुरक्षा को लेकर सवाल पैदा होने लगा। कोई नल काट ले जाए तो कोई चादर। मगर अलघ साहब की चिन्ता ये थी कि ग़रीब तो पानी से दूर हो गया। एक समस्या और थी कि लोग बड़े बड़े बर्तनों में पानी भर कर ले जाने लगे इससे पानी जल्दी ख़त्म होने लगा।
फिर क्या था, अपनी इंजीनियरिंग के अनुभव का इस्तमाल किया और वाटर कूलर की डिज़ाइन इस तरह से तैयार की ज़्यादा से ज़्यादा लोटा ही नल के नीचे आ सकता था। जहां नल से पानी गिरता है वहां पिंजड़े जैसा बना दिया। सोच यह थी कि प्यासा पानी पीकर जाए न कि कोई इन कूलरों से अपना घड़ा भर ले जाए। इस तरह से अलघ साहब ने दिल्ली में बीस वाटर कूलर लगा दिये हैं। हंसते हंसते कहा कि पैसा और पानी दोनों सीमित है लेकिन मुझे यह काम करना अच्छा लगता है।
आपने ऐसा कूलर देखा है जहां पानी के साथ खलील जिब्रान की पंक्तियां भी लिखी हो। आप ज़रूर इस फोटो को बड़ा कर कविता को पढ़ियेगा। कविता यही कहती है कि आपके बच्चे आपके नहीं है। वो आपके ज़रिये ज़रूर इस दुनिया में आएं हैं लेकिन वे आपके ही नहीं हैं। उनकी आत्मा, सोच ये सब आपकी नहीं हैं। उनकी अपनी है। वाह अलघ साहब पानी पीते पीते ऐसे कोई कविता का पाठ करा दे तो इससे अच्छा नेक काम और क्या हो सकता है।
दिल्ली के पंचशील पार्क में रहने वाले अलघ साहब अलग किस्म के जलयोद्धा हैं। अचानक मिली इस कहानी ने मेरे भीतर अपार यकीन पैदा कर दिया कि सिस्टम भले ही हरा दे लेकिन आदमी नहीं हारता है। वो सिस्टम को छोड़ अपना सिस्टम बनाने लगता है। लोगों की सेवा करने लगता है। आई ए एस की परीक्षा में शारीरिक चुनौतियों के बाद भी टॉप करने वाली इरा सिंघल के घर से लौटते वक्त चौराहे पर मिली इस कहानी ने राजनीतिक दलों की लूट और झूट से निकल कर दुनिया को एक सार्थक नज़रिये से देखने का मौका दिया। इसके लिए अलघ साहब का शुक्रिया। हमारी मुलाकात तो नहीं हुई मगर फोन पर जो बात हुई वो काफी है। तो ज़ोर से बोलिये पंचशील पार्क वाले पानी बाबा की जय।