दिव्य जगत और लोक जगत के बीच सेतु हैं श्रीकृष्ण

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डॉ. संदीप चटर्जी

भारतीय प्रज्ञा चिंतन में उपनिषदों का स्थान सर्वोच्च है. तैतिरिय उपनिषद शिक्षा वल्ली का प्रसिद्ध मंत्र है, ''रसो वै सः. रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति.'' अर्थात, वह (परतत्व) रस का स्वरूप है. जो इस रस को पा लेता है वही आनन्दमय बन जाता है. भारतीय दार्शनिक चिंतन के अनुसार उसी आनंदमय परम तत्व का अवतार जीव-जगत पर कृपा करने हेतु समय समय पर होता रहता है. अवतार तो असंख्य है, किन्तु 'रस'' का पूर्ण स्वरूप भारतीय मनिषियों ने श्रीकृष्ण को कहा है. प्रसिद्ध अद्वैत वेदान्ती मधुसूदन सरस्वती अपने जीवन भर की अद्वैत साधना का प्रयोजन एक वाक्य में कहते है, ''कृष्णात् परम किमपि तत्त्वमहं न जाने॥'' कृष्ण से भी बड़ा कोई तत्व है तो उसे हम नहीं जानते! इसका कारण क्या है? वास्तव में श्रीकृष्ण दिव्य जगत और लोक जगत के मध्य के सेतु है. अवतार होकर भी मानवीय गुणों से परिपूर्ण है. उनकी लीलाएं दिव्य है, अनुकरणीय नहीं, किन्तु उनके उपदेश सार्वभौम है. जगत के प्रत्येक जीव के हित में है.  मानवीय संबंधों के जीतने आयाम है उन सबका पूर्ण विकास हमें श्री कृष्ण चरित्र में दिखता है. मानवीय संबंध, सख्य, वात्सल्य या मधुर भावपन्न हो सकते हैं. किन्तु इनकी अभिव्यक्ति या प्रकटीकरण की अपनी सीमाएं हैं. इसके विपरीत श्रीकृष्ण चरित्र में इन सभी भावों का पूर्णतम विकास दृष्टिगोचर होता है.

श्रीकृष्ण की लीलाएं

इसी कारण से प्रायः सभी भारतीय आचार्यों ने कृष्ण लीलाओं के ध्यान, मनन और निधिध्यासन को साधना का सर्वोत्कृष्ट मार्ग कहा है. भक्ति मार्ग के सभी आचार्यों, रामानुज, मध्व, निम्बार्क् और विष्णुस्वामी ने वृंदावन विहारी श्रीकृष्ण को ही अपना इष्ट कहा है. यहां तक की निर्गुण निराकार ब्रह्मवादी आचार्य शंकर भी कृष्ण लीलाओं का ध्यान करते हुए कहते हैं, ''गोविंदम भज मूढ़ मते.'' वेदांतियों का निराकार ब्रह्म ही नन्द और यशोदा के लालड़े कान्हा हैं. यद्यपि राम् और कृष्ण में अभेद है. किन्तु रामावतार में उनकी मर्यादापूर्ण लीलाएं जगत प्रसिद्ध हैं, आदर्श व्यक्ति का उदाहरण राम् के चरित में पग-पग पर दिखता है. कृष्णावतार में लीलाएं मधुर रससिक्त है. भक्त उनका गान करते हैं, उसका स्मरण करते हैं किन्तु अनुकरण नहीं करते. राम ने अपने चरित्र के माध्यम से शिक्षा दी, किन्तु कृष्ण ने युद्ध के समय अपने मित्र को ज्ञान देने के बहाने सम्पूर्ण मानव जाति को शिक्षा दी. कृष्ण चरित्र की यही विशेषता है. वहां लीला रस और ज्ञान रस का अद्भुत समन्वय दिखता है. वह लोकोत्तर शक्ति सम्पन्न देवता भी है और मानव के बहुत समीप रहने वाले गीता गायक शिक्षक-मार्गदर्शक भी.   

कृष्ण चरित्र की गाथा श्रीमदभागवत महापुराण में है. उनकी शिक्षाएं श्रीमद्भगवद् गीता में. दोनों ही ग्रंथ भारतीय परंपरा में अपना विशेष स्थान रखते हैं. भागवत के संबंध में तो विद्वानों की उक्ति प्रसिद्ध ही है, ''विद्यावतां भागवते परीक्षा", विद्वानों की परीक्षा भागवत में होती है. अनादि काल से भागवत भक्तों का संपद रहा है. भक्ति काल में भागवत की महिमा वेदों से अधिक मानी गई. भागवत साधना का फल है. भगवद गीता साधना के मार्ग को बताने वाली. मानवीय जीवन की जटिलताओं से मुक्ति का उपाय भगवद् गीता देती है. भगवद् गीता सार्वभौम शिक्षाओं का ग्रंथ है. जो उपदेश सभी देश, काल और अवस्था में मनुष्य मात्र के अभ्युदय (सांसारिक प्रगति) और निश्रेयस (अध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्ति) कराने वाला हो, उन्हें ही सार्वभौम कहा जा सकता है. कृष्ण चरित्र में भगवद् गीता के उपदेश जो उन्होनें अपने प्रिय सखा अर्जुन को दिए, उनमें कई ऐसे तत्व हैं जिनसे मानव मात्र का कल्याण हो सकता है. भगवद् गीत पर प्रायः सभी आचार्यों और विद्वानों ने अपनी टिकाएं और व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं, साधना के पथ पर जाने वाले कितने ही मानव इन आचार्यों का अनुसरण कर अपना कल्याण कर चुके हैं और आगे भी करते रहेंगे. साधना के अतिरिक्त भी साधारण मानवों के हितार्थ भगवद गीता के माध्यम से भगवान ने कई ऐसे उपदेश दिए हैं, वह मानव मात्र को कल्याण का मार्ग दिखाती है. 

भगवद गीता अध्याय 2 का श्लोक संख्या 63 कहता है-

 क्रोधाद्भवति सम्मोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः . स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

क्रोध से मोह का जन्म होता है; मोह  होने पर स्मृति भ्रष्ट हो जाती है; स्मृति के भ्रष्ट होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य नष्ट हो जाता है.

कामना में लिप्त क्यों रहता है इंसान

आज के युग में विशेष कर धैर्य मानव मात्र के लिए हितकारी है. जिस प्रकार क्रोध के आवरण से दैनंदिन जीवन में कुछ ना कुछ हिंसक घटना दिखता है उसका कारण धैर्य की कमी ही है.धैर्य की कमी का कारण है सर्वदा कामनाओं में लिप्त रहना. कामना का अर्थ यहां लालच है. जितने की आवश्यकता उससे अधिक इकट्ठा करने की तीव्र इच्छा ही लालच है. वैदिक इशोपनिषद  का पहला ही मंत्र लालच को त्यागने कहता है:

''तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्'',  -जो कुछ भी तुम्हें प्राप्त है, उसका त्याग भाव से उपभोग करो, और किसी के धन की लालसा मत करो. 

भगवद गीता में भगवान इसी सूक्ति को और स्पष्ट रूप से कहते हैं - 

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः. निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति.. (2/71)

जो व्यक्ति सभी भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है, जो 'मैं' और 'मेरा' के भाव से रहित हो जाता है, और अहंकार से मुक्त हो जाता है, वह शांति प्राप्त करता है. शांति को प्राप्त व्यक्ति ही इस जटिल संसार में सर्वभावेन ईश्वर के प्रति स्वयं को समर्पित करता है. ऐसे समर्पित व्यक्ति ही ईश्वर को प्रिय होते है. भगवद गीता 7/28 में भगवान कहते हैं, 

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येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्.
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः॥

जिन मनुष्यों के पाप पुण्य कर्मों से नष्ट हो गए हैं, वे मोह के द्वंद्व से मुक्त होकर, दृढ़ निश्चय के साथ उनकी (ईश्वर की) भक्ति करते हैं. और ईश्वर को प्रिय वही व्यक्ति है जो सर्वदा समभाव से युक्त है. जिनके लिए कोई भी शत्रु या मित्र नहीं है. जो सभी प्रकार से संतुष्ट है और स्थिर बुद्धि से युक्त होकर देह-गेह आदि में ममत्व से मुक्त है;

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्. अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः.. (12/19) 

एक ईश्वर के अनंत रूप

भक्त अपनी भावना के अनुसार ईश्वर के किसी एक रूप को अपना मानकर उनके प्रति समर्पण का भाव रखते हैं. भगवद् गीता के अनुसार एक ही ईश्वर अनंत रूप से पूजित होते हैं. ऐसी दृढ़ भावना रखने वे कभी भी सांप्रदायिकता के जंजाल में नहीं फंसते. भारतीय ज्ञान परंपरा और सेमेटिक रिलीजनस में यही बुनियादी अंतर है. हमने सभी में दिव्यता को अनुभव किया और उन्होंने एक ही दिव्यता को सबपर थोप दिया. अध्याय 7/21 में भगवान कहते है, 

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यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति. तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्.. 

जो भक्त मेरे जिस स्वरूप की श्रद्धा से पूजा करना चाहता है, मैं उसी स्वरूप में उसकी श्रद्धा को स्थिर कर देता हूं.

इन शिक्षाओं का दृढ़ता से पालन कर प्रत्येक मानव अध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर हो सकता है. किन्तु उसका दृढ़ रहना आवश्यक है. राग-द्वेष और लालच से अपने स्वधर्म का पालन नहीं करके अन्य रास्तों पर चलना निंद्य है. गीता में कृष्ण ने स्वधर्म के पालन को आत्म कल्याण का प्रथम सोपान कहा है. स्वधर्मे निधन्म् श्रेय: पर धर्मो भयावह, अपने मार्ग पर रहकर मृत्यु को वर्ण करना श्रेष्ठ है, बजाए दूसरे पंथ को अवम्वन करने के. ऐसे ही स्वधर्म निष्ठ व्यक्ति भगवान को प्रिय है. धर्म की व्याख्या यहां सार्वभौमिक धर्म से की जा सकती है. श्रीमद भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध में उद्धव जी के प्रति श्री कृष्ण मानव मात्र का साधारण धर्म बताते हुए कहते हैं:

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अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता. भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः॥ (11/17/21)

अहिंसा, सत्य भाषण, चोरी ना करना, काम, क्रोध और लोभ का त्याग और प्राणिमात्र का प्रिय तथा हित करने का उद्योग, यह सब लोगों का साधारण धर्म है. ऐसे व्यक्ति ईश्वर को प्रिय हैं, किन्तु जो अपना दुराचरण त्यागकर अध्यात्मिक मार्ग पर आने का निश्चय कर चुके हैं, उनके प्रति भी द्वेष बुद्धि का त्याग करना चाहिए. कृष्ण, गीता के अध्याय 9/30 में स्पष्ट रूप से उद्घोष करते है:
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्.. साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यासितो हि स:॥

यदि कोई अत्यंत दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरी शरण लेता है-मुझे पूजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि उसने यथार्थ निश्चय कर लिया है. इसी गीता-वाक्य को परवर्ती भारतीय आचार्यों ने अपना ध्येय वाक्य बनाया. चैतन्य महाप्रभू कहते हैं, 'जेइ कृष्ण तत्व वेत्ता सेई गुरु होय', जिस भी व्यक्ति को भगवद तत्व संबंधी ज्ञान है, वही गुरु बनने योग्य है, उन्ही से अध्यात्मिक शिक्षा ली जा सकती , उसमे वर्ण, धर्म, आश्रम और राष्ट्रीयता का भेद मायने नहीं रखता. 

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श्रीकृष्ण की शिक्षाएं

भगवान कृष्ण की शिक्षाएं सार्वभौमिक हैं.भगवान कृष्ण स्वयं सार्वभौम भारत राष्ट्र पुरुष है. त्तर में बद्रीनाथ, पश्चिम में द्वारकानाथ, पूर्व में जगन्नाथ, मध्य भारत में श्रीनाथ और दक्षिण में पंढरीनाथ, रंगनाथ और गुरुवायुरप्पन के नाम से अनंत काल से भारतीय राष्ट्र के लाडले बन कर वह विराज रहे हैं.राष्ट्र कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कृति जन गण मन में जिन 'चिर सारथी'- शाश्वत मार्गदर्शक के रूपक का प्रयोग करते हैं, वह वही है जिन्होंने युग-युग भारत को संकट से उबारा है, जिनका पांचजन्य शंख अधर्म के विरोध में दारुण विप्लव की सूचना देता रहा है, जो भारतीय राष्ट्र के पथ परिचायाक है: 
''हे चिर-सारथी,
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माझे
तव शंखध्वनि बाजे,
संकट-दुख-त्राता,
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे...''

आज जन्माष्टमी  उनके आविर्भाव दिवस पर उन लीला पुरुषोत्तम राष्ट्र पुरुष के चरणों में शत कोटी नमन वंदन.       
    

अस्वीकरण: डॉक्टर संदीप चटर्जी, दिल्ली विश्विद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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