अगले साल प्रयागराज में होने जा रहे महाकुंभ में अब थोड़ा ही वक्त बचा है. आयोजन की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं. ऐसे वक्त में महाकुंभ का हिस्सा बनने से पहले हर किसी को कुछ बुनियादी बातें याद दिलाए जाने की जरूरत है. वैसी बातें, जिन्हें हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं.
जीवनदायिनी नदियां और स्नान
कुंभ हो या महाकुंभ, इनमें संगम या अन्य पवित्र नदियों में स्नान करने की परंपरा है. लेकिन लोग अक्सर नदियों में स्नान करने की आपाधापी के बीच कुछ शाश्वत नियमों की अनदेखी कर जाते हैं. हमारे पुरखों ने नदियों में नहाने के कुछ नियम बनाए हैं. आज भी इन नियमों की उपयोगिता न केवल बनी हुई है, बल्कि और ज्यादा बढ़ गई है.
सबसे पहली बात तो यह कि जो नदियां हमें जीवन देती हैं, जिन्हें हम 'मैया' कहकर पुकारते हैं, जिनमें नहाकर हम पवित्र महसूस करते हैं, उन नदियों को हर तरह से दूषित होने से बचाने की जिम्मेदारी हम देशवासियों की है. परंपरा और आधुनिकता के मेल-जोल से ऐसा कर पाना एकदम सहज है.
हमारे शास्त्रकार कहते हैं कि पहले नदी के किनारों पर जल लेकर स्नान कर लेना चाहिए, तब नदी में डुबकी लगानी चाहिए (मलं प्रक्षालयेत्तीरे तत: स्नानं समाचरेत् - मेधातिथि). आज भी सोसायटियों के स्विमिंग पूलों में सीधे नहाने की मनाही रहती है. लोग एक बार बाहर नहाकर, फिर पूलों के अंदर छलांग मारते हैं. सोचिए कि अगर इसी तरह का अनुशासन नदियों में नहाते वक्त रखा जा सके, तो क्या कमाल हो जाए! विचार करने की बात यह भी है कि हम अगली पीढ़ियों के लिए किस तरह की धरोहर छोड़ जाने के पक्ष में हैं?
घाटों की साफ-सफाई
नदियों के घाटों पर पूजा-पाठ स्वाभाविक बात है. दिक्कत तब शुरू होती है, जब लोग पूजन-सामग्री के बचे हुए हिस्सों को घाटों पर छोड़कर निकल जाते हैं. हर बड़े आयोजन के दौरान घाटों पर फूल-मालाएं, दीपक, धूपबत्ती जैसी चीजों के अवशेष बड़े पैमाने पर दिख जाते हैं. इनके निपटारे का सही प्रबंध होना चाहिए. व्यक्तिगत स्तर पर भी और प्रशासन के स्तर पर भी.
एक उपाय तो यह है कि इन चीजों के अवशेषों को खाली जगहों की रेत या मिट्टी में सही तरीके से दबाकर बराबर कर दिया जाए. यह परंपरागत तरीका है. जहां ऐसा करना संभव न हो, वहां इन चीजों को प्रशासन की ओर से नियत जगहों या कृत्रिम कुंडों में ही डाला जाना चाहिए. अच्छा तो यह हो कि पूजा-पाठ के लिए बायोडीग्रेडेबल चीजें चुनी जाएं. पवित्र जगहों और नदी के आसपास साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखकर ही अपनी सांस्कृतिक विरासत और महाकुंभ की शानदार तस्वीर पेश की जा सकती है.
पर्यावरण का खयाल
पर्यावरण संरक्षण आज पूरी दुनिया के लिए बड़ा मुद्दा बन चुका है. ऐसे में महाकुंभ के दौरान अगर हम देश-दुनिया को पर्यावरण की रक्षा का पाठ पढ़ा सकें, तो यह एक शानदार बात होगी. जल और जमीन के संरक्षण पर ज्यादा ध्यान दिया जाना वक्त की मांग है.
सोचने की बात है कि जिन नदियों में प्रवेश करने से पहले, एक बार बाहर ही नहाने का पुराना विधान बना है, उन नदियों को किसी और तरह से दूषित करना कितना गलत होगा. इसलिए मुनासिब तो यही है कि नदियों में किसी भी तरह की जहरीली या हानिकारक चीजें न डाली जाएं. इंसान को सिर्फ अपनी नहीं, बल्कि मछलियों और असंख्य जलीय जीव-जंतुओं के बारे में भी सोचना चाहिए.
इसी तरह, धरती को स्वच्छ और सुंदर बनाए रखने के लिए 'माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः' को सूत्र-वाक्य के रूप में याद रखना होगा. यह वेद का कथन है, जिसमें कहा गया है, "भूमि हमारी माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूं..." यहां केवल अपनी चहारदीवारी के भीतर साफ-सफाई और पवित्रता बनाए रखने की जगह, पूरी पृथ्वी को अपना मानने का संदेश छुपा है. महाकुंभ के दायरे में आने वाली जमीन पर मौसम के अनुकूल वृक्षारोपण का प्लान भी तैयार किया जाना चाहिए.
धैर्य की परीक्षा
महाकुंभ जैसे बड़े मौकों पर या भीड़-भाड़ वाली जगहों पर अक्सर हमारे सब्र का असली इम्तिहान होता है. इस परीक्षा में पास होने की तैयारी भी पहले से करनी होगी. एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ कई बार घातक साबित होती है. इसलिए विशाल आयोजन के दौरान भगदड़ जैसी घटनाओं से बचने के लिए लोगों को जरूरी सावधानियां बरतनी चाहिए. सही प्लानिंग से किसी भी अप्रिय स्थिति से आसानी से बचा जा सकता है.
पहली बात तो यह कि आम लोगों को किसी विशेष मुहूर्त या पर्व के दिन मुख्य घाटों पर जाने से बचना चाहिए. इसकी जगह शांत और कम भीड़ वाली जगहों पर पूजा-अर्चना का विकल्प चुनना चाहिए. भीड़ में बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों का ज्यादा खयाल रखा जाना चाहिए. मोबाइल फोन, आई-कार्ड और जरूरी दवाइयां साथ लेकर चलना चाहिए. भगदड़ या किसी और आपात स्थिति में अफवाहों से बचना चाहिए. सहायता केंद्रों के हेल्पलाइन नंबर पहले ही सेव कर लेना चाहिए. मुसीबत के वक्त ये छोटी-छोटी बातें बड़े काम की साबित होती हैं.
दुनिया की सांस्कृतिक धरोहर
यह मानी हुई बात है कि कुंभ या महाकुंभ के लिए करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था गजब की होती है. सदियों से होता आ रहा आयोजन हमारी धार्मिक मान्यता, सांस्कृतिक अखंडता और 'विविधता में एकता' जैसे नैतिक मूल्यों की भी गवाही पेश करता है. यही वजह है कि इस आयोजन को UNESCO पहले ही 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर' की लिस्ट में शामिल कर चुका है.
इस धरोहर को ढंग से संजोने और इसकी चमक बरकरार रखने के लिए सामूहिक प्रयास की दरकार होगी. इस जवाबदेही को एक जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से निभाया जाना चाहिए.
अध्यात्म का पाठ
आज के दौर में पूरी दुनिया में भारत की विश्वगुरु वाली छवि पक्की होती जा रही है. चाहे खेल का मैदान हो या कूटनीति का, आर्थिक मोर्चा हो या सामरिक, अपने देश की ओर दुनिया बड़ी उम्मीद से निहार रही है. प्राचीन परंपराओं से जुड़े रहकर, हर दिशा में विकास के झंडे गाड़कर यह संभव हो सका है. ऐसे में पूरी दुनिया को 'वैज्ञानिक अध्यात्मवाद' (Scientific Spiritualism) का मतलब और महत्त्व समझाने का जिम्मा भी भारत को उठाना चाहिए.
अंतिम बात यही कही जा सकती है कि महाकुंभ एक विशाल उत्सव जैसा है, जो हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है. प्रयागराज महाकुंभ के दौरान देश-दुनिया की नजर इस ओर बराबर बनी रहेगी. बड़ी तादाद में विदेशी श्रद्धालु और सैलानी भी मौजूद रहेंगे. यह एक बड़ा मौका होगा, जब हम अपनी गौरवशाली परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर की अद्भुत झलक सबके सामने पेश कर सकेंगे. ऐसे में सबको अपनी-अपनी जिम्मेदारी समझनी और संभालनी चाहिए.
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
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