ये जो भीड़ है, धर्म का मर्म समझने में भूल कैसे कर देती है?

Advertisement
Amaresh Saurabh

यूपी के हाथरस में हुआ भयंकर हादसा अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया. आस्था और धर्म के नाम पर जमा हुई भीड़ में सौ से ज्यादा लोगों की जान चली गई. सत्संग में भगदड़ के लिए जिम्मेदार कौन, यह एक अलग सवाल है. लेकिन इससे बड़ा सवाल यह है कि एक बहुत बड़ी आबादी धर्म का सही अर्थ तलाशने में कहीं भूल तो नहीं कर देती है? अगर हां, तो कैसे?

भगदड़ के पीछे क्या?
कुछ मीडिया रिपोर्ट में प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से भगदड़ का जो कारण बताया जा रहा है, वह थोड़ा अजीब है. बाबा का सत्संग चल रहा था. सत्संग समाप्त होने पर बाबा की 'चरण-रज' लेने के लिए अचानक भीड़ उमड़ी. लोग एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते चले गए. कुछ ही देर में वहां लाशों का ढेर लग गया. मरने वालों में बड़ी तादाद में महिलाएं हैं. हादसे के पीछे 'साजिश' वाला एंगल अब तक स्थापित नहीं पाया है.

कुछ का दावा है कि बाबा सत्संग में चमत्कार जैसी कुछ चीजें भी करते थे. अपने हाथ में 'चक्र' दिखलाते थे. कितनों ने देखा, पता नहीं. उपनाम भी कुछ इस टाइप का कि भोले-भाले लोग उन्हें नारायण का साकार रूप ही मान लें. यानी ले-देकर वही कहानी. दु:ख-तकलीफ, तरह-तरह की समस्याएं और इन सबसे फौरी राहत के लिए बातों की मीठी गोली का डोज... या इससे भी एक कदम आगे जाकर, किसी चमत्कार का आसरा!

क्या चमत्कार होते हैं?
अपना देश ऋषि-मुनियों, सिद्धों-संतों की भूमि रहा है. हमारे वेद-पुराण और इनसे जुड़े साहित्य में चमत्कार और अलौकिक प्रसंग भरे पड़े हैं. यह अलग बात है कि इनमें से कई प्रसंग तो केवल प्रतीकात्मक हैं, जिनके कुछ गूढ़ मतलब हैं. आधुनिक काल में भी चमत्कार की क्षमता रखने वाले महापुरुषों की जीवनियां आसानी से मिल जाती हैं. इसलिए यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि चमत्कार जैसी कोई चीज होती होगी.

लेकिन क्या चमत्कार कोई ऐसी चीज है, जो रोज-ब-रोज, हर किसी के सामने, कैमरे के सामने घटित होती चले? जवाब साफ है- नहीं. अगर ऐसा होने लग जाए, तो उसे चमत्कार कहेंगे ही क्यों? फिर चमत्कार और दाल-भात के कौर में फर्क ही क्या रह जाएगा? चमत्कार की अपनी सीमाएं हैं. यह खरीद-बिक्री की चीज नहीं. कोई धंधा नहीं. खुलेआम प्रदर्शन करके नोट छापने की मशीन भी नहीं. यह एक सीमा के भीतर, पॉजिटिव एनर्जी के सहारे दीन-दुखियों की सेवा-सहायता का औजार हो सकता है. यहीं संतों की भूमिका देखी जाती रही है.

संत केवल अपने हाथों से चमत्कार नहीं करते. उनका पूरा जीवन और दर्शन, उनके धारदार विचार, प्रेरणा से भरी वाणी असली चमत्कार करते हैं. हमारे यहां ऐसे ही संतों को पूजने की परंपरा रही है. लेकिन ऐसे संत और असंत के बीच का फर्क करने की नजर हमें देगा कौन?  

Advertisement

सोशल मीडिया का हाल
आज सोशल मीडिया पर ऐसे कंटेंट भरे पड़े हैं, जिनसे लगता है कि हर तरह की समस्याओं से निजात पाना, बस चुटकी बजाने जितना आसान है. करना केवल इतना है कि किसी खास तिथि को, खास समय में, खास तरीके से एक रुपया का सिक्का जमीन के नीचे चुपके से दबा देना है. या झाड़ू को अमुक स्थान पर छुपाकर रख देना है. या पूजा वाली जगह पर चुपके से एक खास चीज चढ़ा देनी है. बस, हो गया काम!

इसके बाद क्या होगा, पूछिए मत. इतना पैसा बरसेगा कि रातोंरात मालामाल हो जाओगे! इतने कस्टमर आएंगे कि संभाल नहीं पाओगे! ज्यादा कुछ करने की जरूरत ही कहां है? अगर कुछ बड़ा हासिल करने के लिए मेहनत-मशक्कत करना पड़ जाए, तो ऐसी 'गुप्त विद्याओं' का फायदा ही क्या? जो चमत्कार पैदा न कर सके, वह धर्म ही क्या? और हां, जाते-जाते वीडियो को लाइक और चैनल को सब्सक्राइब जरूर कर दीजिए. बिना दिमाग लगाए, बिना आजमाए, वीडियो को शेयर करना तो मत ही भूलिए!

Advertisement

यह तय करने के लिए पहले धर्म को गौर से देखना होगा. कई तरह की व्याख्याएं हैं. मोटे तौर पर तीन बातें हैं. पहली बात- किसी चीज का खास गुण, उसका स्वभाव (Characteristics) धर्म है. जैसे, गर्मी पहुंचाना आग का, ठंडक पहुंचाना बर्फ का 'धर्म' है. दूसरी बात- कर्त्तव्य, ड्यूटी, नीति, नैतिकता, न्याय, सदाचार, ईमान, विवेक के अर्थ में भी धर्म का इस्तेमाल होता है. तीसरी बात- किसी रिलीजन, मजहब, पंथ या संप्रदाय को भी धर्म मान लिया जाता है. खैर, यहां तक भी कोई उलझन नहीं है. सारी उलझन हमारे ऋषि-मुनि पहले ही सुलझा चुके हैं.

शास्त्रकार कहकर गए हैं कि अठारहों पुराण पढ़ने की फुर्सत न हो, तो कोई बात नहीं. इनमें सिर्फ दो ही बातें हैं- परोपकार पुण्य है, दूसरों को सताना पाप है. ठीक यही बात तुलसीबाबा भी कहते हैं- परहित के समान कोई धर्म नहीं, परपीड़न के समान कोई अधर्म नहीं.

Advertisement

अब देखिए, इन सारी बातों में धर्म कहां गलत है? इसमें आस्था भी गलत नहीं है. अगर कुछ गलत है, तो वह है- धर्म की गलत इमेज बना लेना. प्रकृति के तय नियमों के खिलाफ जाकर 'कुछ ज्यादा' की मांग करना. ज्ञान की आंखों पर अंधविश्वास की मोटी पट्टी चढ़ा लेना. सोचिए, अगर विवेक ही चला गया, तो चमड़े की आंख किस काम की? अफसोस कि आज एक बड़ी भीड़ कुछ इसी तरह के दृष्टिदोष से पीड़ित है.

कर्म ही प्रधान है
एक है कर्म-फल का सिद्धांत. इस पर अनेक मजहब और पंथ सहमति जताते हैं. 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा...' हमारे ग्रंथों में 'लक्ष्मी' यानी धन-वैभव पाने के लिए भी मेहनत-मशक्कत, उद्यम करने की जरूरत बताई गई है. मोटी बुद्धि वाले भी कर्म का महत्त्व आसानी से समझ सकें, इसके लिए सरल भाषा में उदाहरण दिए गए हैं. जंगल का राजा शेर ही है, तो क्या? उसे भी शिकार करने के लिए दौड़ लगानी पड़ती है. हिरण खुद चलकर शेर के मुंह में नहीं समा जाता.

Advertisement

एक टर्म है- वैज्ञानिक अध्यात्मवाद. भारत कई बातों के अलावा इसके दम पर भी विश्वगुरु बना रहा. इस धर्म-प्रधान देश में एक बड़ी भीड़ को वैज्ञानिक नजरिए से अध्यात्म की गूढ़ बातें समझाए जाने की जरूरत है. आखिरी बात यही कही जा सकती है, जो कि शास्त्र में ही है. जिसके पास ज्ञान नहीं, अपना विवेक नहीं, शास्त्र उसे क्या फायदा पहुंचा सकता है? (यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम्).

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं

Topics mentioned in this article