बिहार की राजनीति इस समय एक नए मोड़ पर खड़ी है. लंबे समय से चले आ रहे राजनीतिक समीकरणों को पहली बार कोई गंभीर चुनौती मिली है. चुनाव विश्लेषण के काम से राजनीति में आए प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी पहली बार विधानसभा चुनाव में उतरी है. जन सुराज ने अब तक 116 उम्मीदवारों की सूची जारी की है. इनमें पूर्व आईपीएस अधिकारी आरके मिश्रा, पटना हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता यदुवंश गिरी, भोजपुरी गायक रीतेश पांडेय और पार्टी महासचिव किशोर कुमार के नाम शामिल हैं. जन सुराज पार्टी खुद को बिहार के जाति, परिवारवाद और सत्तावाद पर आधारित पारंपरिक राजनीतिक ढांचे का विकल्प बनने की कोशिश कर रही है.
एनडीए का एंटी-इनकंबेंसी
बिहार में एनडीए 2005 के बाद से अधिकांश समय सत्ता में रहा है. एनडीए के लंबे शासन काल ने एंटी-इनकंबेंसी को जन्म दिया है. कई वरिष्ठ मंत्री और नेता भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं. प्रशांत किशोर ने बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल, डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी, कैबिनेट मंत्री मंगल पांडेय और अशोक चौधरी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए हैं. वहीं राजद के प्रति भी जनता में संशय बना हुआ है, क्योंकि 1990 के दशक की अराजक शासन व्यवस्था और कानून-व्यवस्था की विफलता की यादें अभी भी लोगों के दिलो-दिमाग में ताजा है. प्रशांत किशोर ने कहा है कि या तो उनकी पार्टी करीब 10 सीटें जीतेगी या फिर इतनी सीटें जीतेगी कि निर्णायक बहुमत बनाकर सरकार बना सके.
पीके के नाम से मशहूर प्रशांत किशोर का नाम भारतीय राजनीति में कोई नया नहीं है. वे नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और जगन मोहन रेड्डी जैसे नेताओं के चुनावी रणनीतिकार रह चुके हैं. इस बार वे किसी अन्य नेता के लिए नहीं, बल्कि अपनी खुद की पार्टी के लिए रणनीति बना रहे हैं. जन सुराज का कहना है कि उसका उद्देश्य बिहार की पारंपरिक राजनीति को एक नई दिशा देना है. एक ऐसा राजनीतिक विकल्प पेश करना जो शिक्षा, रोजगार, भ्रष्टाचार नियंत्रण, स्वास्थ्य व्यवस्था और प्रशासनिक सुधारों पर केंद्रित हो. प्रशांत कहते रहे हैं कि बिहार तभी बदलेगा जब शासन व्यवस्था बदलेगी और शासन तभी बदलेगा जब राजनीति मुद्दों पर आधारित होगी. इसलिए वो राजनीति को जाति और परिवारवाद से निकालकर मुद्दों पर केंद्रित करने की कोशिश कर रहे हैं. जन सुराज की रैलियों में उमड़ती भीड़ यह बताती है कि बिहार में लोग बदलाव के लिए उत्सुक हैं.
छात्रों के आंदोलन से मिली दिशा
पिछले दो साल से प्रशांत किशोर बिहार में पदयात्रा कर रहे थे. इसके जरिए वो जनता के बीच जाकर जमीनी हकीकत को समझ-परख रहे थे. वो पटना में आंदोलनकारी बीपीएससी परीक्षार्थियों के समर्थन में सड़क पर भी उतरे. उन्होंने प्रदर्शनकारी छात्रों का साथ दिया. पटना में जेपी गोलंबर के पास प्रदर्शनकारी छात्रों पर वाटर कैनन और बर्बरतापूर्ण लाठीचार्ज में कई छात्र घायल हुए थे. पुलिस ने प्रशांत किशोर समेत कई छात्रों पर प्राथमिकी दर्ज की. इनमें से कुछ गिरफ्तार भी किए गए. इसके विरोध में प्रशांत किशोर दो जनवरी से गांधी मैदान में आमरण अनशन बैठ गए. उन्होंने तबतक अनशन पर बैठने की घोषणा की कि जब तक सरकार जांच और पुनर्परीक्षा की घोषणा नहीं करती है. लेकिन पुलिस ने छह जनवरी को उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उसी दिन उन्हें जमानत भी मिल गई. इससे उनके आंदोलन को नई दिशा भी मिली.
प्रशांत किशोर ने इस चुनाव में शिक्षा और पलायन को मुद्दा बनाने की कोशिश की है.
इस आंदोलन के बाद प्रशांत किशोर की लोकप्रियता अप्रत्याशित रूप से बढ़ी. उनकी रैलियों में छात्रों, बेरोजगार युवाओं और शिक्षित मध्यम वर्ग की भारी भीड़ दिखने लगी. उल्लेखनीय है कि बिहार में 18 से 39 साल की आयु वर्ग के मतदाताओं की संख्या करीब 3.68 करोड़ है. यह कुल मतदाताओं का करीब 47 फीसदी है. यह वर्ग रोजगार, पारदर्शी भर्ती प्रणाली और ईमानदार शासन की उम्मीद रखता है. जन सुराज ने इन मतदाताओं की भावनाओं को पहचानकर उसे अपनी राजनीति का केंद्रीय बिंदु बना लिया. हालांकि बिहार में जातीय समीकरण अभी भी प्रभावी हैं, लेकिन प्रशांत किशोर का मानना है कि नई पीढ़ी जातिवाद से ऊपर उठकर सोच रही है. कई विश्लेषक मानते हैं कि जाति का प्रभाव पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, पर यह भी सच है कि युवा अब रोजगार और विकास जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दे रहे हैं.
पीके की वैचारिक और संगठनात्मक चुनौतियां
इतना सब होने के बाद भी बिहार की राजनीति में पैठ बनाना प्रशांत के लिए आसान नहीं होगा. जन सुराज पार्टी ने जिस नए राजनीतिक आदर्शवाद और उम्मीद को जन्म दिया है, उसने बिहार की राजनीति में बहस के नए केंद्र स्थापित किए हैं. पलायन, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, असमान विकास और शासन में जवाबदेही जैसे मुद्दों को प्रशांत किशोर फिर से विमर्श के केंद्र में लाए हैं. लेकिन जन सुराज के सामने वैचारिक और संगठनात्मक चुनौतियां भी कम नहीं हैं. पार्टी का ढांचा व्यक्ति-केंद्रित है. जिला और प्रखंड स्तर पर स्थानीय नेतृत्व की विश्वसनीयता और अनुभव स्पष्ट नहीं है. टिकट वितरण में भी राजनीतिक अवसरवाद की झलक मिलती है. कई ऐसे चेहरे हैं, जिन्हें मुख्यधारा की पार्टियों में जगह नहीं मिली, इसलिए वे जन सुराज में चले आए हैं. यदि पार्टी सचमुच 'जन की राजनीति' बनना चाहती है, तो उसे व्यक्ति-केंद्रित आंदोलन से संस्थागत संगठन की दिशा में आगे बढ़ना होगा.
प्रशांत किशोर ने कहा है कि वे बिहार से पलायन रोक देंगे और जो लोग छठ पर लौटेंगे उन्हें वापस बाहर नहीं जाना पड़ेगा. लेकिन यह वादा तभी पूरा हो सकता है जब बिहार में औद्योगिक ढांचा खड़ा किया जाए. वे अक्सर कहते हैं कि बिहार को फैक्ट्री नहीं, बल्कि शिक्षा चाहिए, जबकि बिहार के सकल घरेलू उत्पाद में निर्माण का हिस्सा 10 फीसदी से भी कम है. हर साल 30 लाख से अधिक लोग रोजगार के लिए बिहार छोड़ जाते हैं. ऐसे में बिना उद्योग लगाए पलायन रोकने की बात व्यावहारिक नहीं लगती है. बिहार में कृषि प्रसंस्करण, फूड पार्क, सौर ऊर्जा और आईटी उद्योगों की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन इन क्षेत्रों के दोहन के लिए प्रशांत किशोर ने कोई ठोस नीति या रोडमैप सामने नहीं रखा है.
कैसे बदलेगा बिहार की शिक्षा का ढांचा
भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रशांत किशोर का रुख कठोर है, लेकिन उनके साथ जदयू से निकाले गए आरसीपी सिंह जैसे नेता भी हैं जिन पर गंभीर आरोप हैं. यह दोहरा मानदंड उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाता है. उन्होंने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए किसी स्वतंत्र आयोग, डिजिटल पारदर्शिता प्रणाली या व्हिसलब्लोअर तंत्र की कोई ठोस योजना नहीं दी है. केवल आरोप लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसके लिए एक व्यापक संस्थागत व्यवस्था चाहिए.
इसके अलावा बिहार की निम्न प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाने की कोई ठोस कार्ययोजना उनके पास नहीं दिखती है. वास्तविकता यह है कि वे सत्ता में आकर भी पब्लिक सेक्टर बैंक्स की नीतियों को नहीं बदल पाएंगे. बिहार की 84 फीसदी आबादी ग्रामीण है, लेकिन उन्होंने कृषि और ग्रामीण उद्योगों के लिए कोई ठोस नीति नहीं पेश की है. नीति आयोग के 2023 के आंकड़ों के मुताबिक बिहार का समावेशी विकास सूचकांक मात्र 37 है, जो देश के सबसे निचले तीन राज्यों में से एक है. प्रशांत किशोर कहते हैं, बिहार बदलेगा तो शासन व्यवस्था बदलेगी, पर वास्तव में शासन तभी बदलेगा जब आर्थिक संरचना में बदलाव आएगा.
प्रशांत किशोर अपने भाषणों में पलायन का मुद्दा तो उठाते हैं लेकिन यह नहीं बताते हैं इसे रोकने की उनके पास योजना क्या है.
शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रशांत किशोर की सोच व्यावहारिक नहीं लगती. उनका कहना है कि जब तक सरकारी स्कूल नहीं सुधरेंगे, तब तक वे बच्चों को निजी स्कूलों में भेजेंगे और उनकी फीस सरकार देगी. यह बात सरकारी शिक्षा तंत्र की दुर्दशा को स्वीकार तो करती है, लेकिन नीतिगत दृष्टि से यह आत्मसमर्पण जैसी प्रतीत होती है. बिहार के अधिकांश निजी स्कूल एक कमरे या किराए के भवन में चलते हैं. उनमें प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव है. पढ़ाई का स्तर भी बहुत अच्छा नहीं है. उच्च शिक्षा का हाल और भी बुरा है. राज्य के 15 विश्वविद्यालयों में 55 फीसदी से अधिक शिक्षकों के पद रिक्त हैं. शोध का माहौल, प्रयोगशालाएं और उद्योगों से जुड़ी स्किल-आधारित शिक्षा लगभग नहीं के बराबर है. प्रशांत किशोर ने शिक्षा को चुनावी विमर्श में जरूर शामिल किया है, लेकिन उसमें सुधार के लिए कोई ठोस योजना नहीं पेश कर पाए हैं.
प्रशांत किशोर जनता से संवाद करना जानते हैं. वे लोगों की भाषा में बात करते हैं और उनकी भावनाओं को छूते हैं. लेकिन शासन से संवाद की भाषा का व्याकरण अभी उन्हें सीखना बाकी है. केवल नारे और भावनाएं काफी नहीं होंगी. बिहार जैसे राज्य में नीति, संगठन, नेतृत्व और संस्थागत व्यवस्था पर भी उतना ही ध्यान देना होगा. प्रशांत किशोर ने बिहार की राजनीति के विमर्श को बदलने की कोशिश की है. जनता अब केवल वादे नहीं, बल्कि नीयत और नीति भी देख रही है. यदि जन सुराज अपने संगठन को मजबूत कर पाया, स्थानीय नेतृत्व को सशक्त बनाया और व्यावहारिक नीतियां पेश की तो बिहार की राजनीति एक नए युग में प्रवेश कर सकती है. आने वाला चुनाव यह तय करेगा कि क्या बिहार वाकई प्रगतिशील राजनीति की दिशा में आगे बढ़ेगा या एक बार फिर पुराने जातीय और सत्तावादी चक्र में फंसा रहेगा.
डिस्क्लेमर: सुभाष कुमार ठाकुर बिहार के बाबासाहेब भीमराव अम्बेदकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में शोध छात्र हैं और अंबरीश लोकनीति विश्लेषक हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.