क्या तीन भाषा वाले फॉर्मूले के विरोध का कोई तर्कसंगत आधार है?

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Amaresh Saurabh

तमिलनाडु में इन दिनों हिंदी के खिलाफ आवाज तेजी से उठ रही है. तमिलनाडु सरकार का आरोप है कि नई शिक्षा नीति के तीन भाषा वाले फॉर्मूले की आड़ में प्रदेश पर हिंदी थोपी जा रही है. ऐसे में यह देखना प्रासंगिक होगा कि आखिर तीन भाषाओं वाला फॉर्मूला किस मकसद से बनाया गया है. साथ ही इस फॉर्मूले के विरोध का क्या कोई तर्कसंगत आधार है ?

तीन भाषा वाला फॉर्मूला चर्चा में क्यों?

वैसे तो दक्षिण के राज्य, खासकर तमिलनाडु से हिंदी-विरोध की आवाज आना कोई नई बात नहीं है.वहां हिंदी-विरोध का इतिहास करीब एक शताब्दी पुराना है. वर्तमान में सत्ता पर काबिज द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (DMK)का जन्म ही हिंदी विरोधी आंदोलन से हुआ है. हाल में केंद्र और तमिलनाडु सरकार के बीच उभरे विवाद की जड़ में भी भाषा का मसला ही है.

तमिलनाडु के ऐतराज की एक बड़ी वजह, स्कूलों में तीन-भाषा वाले फॉर्मूले को अपनाने पर जोर देना है. तमिलनाडु ने इसे खारिज कर दिया है. इसी मसले को लेकर समग्र शिक्षा योजना के तहत तमिलनाडु को दी जाने वाली ₹2,152 करोड़ की राशि अटकी हुई है. सीएम  एमके स्टालिन ने हाल ही में कहा कि राज्य पर हिंदी थोपे जाने का विरोध किया जाएगा, क्योंकि 'हिंदी मुखौटा है और संस्कृत छुपा हुआ चेहरा'. इन सबके बीच देखने वाली बात यह है कि साल 2026 में तमिलनाडु में विधानसभा-चुनाव होना है. ऐसे वक्त में इस मुद्दे को हवा दिया जाना बहुत-कुछ साफ कर देता है.

क्या है तीन भाषा का फॉर्मूला?

सबसे पहले तीन भाषाओं वाले इस फॉर्मूले पर एक नजर डालते हैं. इस फॉर्मूले का इतिहास काफी पुराना है. यहां इतिहास में न जाकर, केवल राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), 2020 के प्रावधानों पर एक नजर डाल लेना ठीक रहेगा.

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NEP, 2020 के तहत देश के सभी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा (कक्षा 1 से 5 तक) मातृभाषा या स्थानीय भाषा में देने की सिफारिश है. कक्षा 6 से 10 तक 3 भाषाएं पढ़ना-पढ़ाना अनिवार्य है. यह सरकारी और प्राइवेट, दोनों तरह के स्कूलों पर लागू है. तीन भाषाएं कौन-कौन सी होंगी, इस बारे में कई विकल्प दिए गए हैं. मोटे तौर पर, तीन भाषाओं को इस तरह देखा जा सकता है :

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  • पहली भाषा: स्टूडेंट की मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा.
  • दूसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह अन्य आधुनिक भारतीय भाषा या अंग्रेजी होगी. गैर-हिंदी भाषी राज्यों में यह हिंदी या अंग्रेजी होगी.
  • तीसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा होगी. गैर-हिंदी भाषी राज्यों में यह अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा होगी.

संक्षेप में कह सकते हैं कि तीन में से कम से कम दो भारत की मूल भाषा होने की बात कही गई है.

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तीन भाषा का फॉर्मूले का मकसद क्या है?

इस फॉर्मूले को लाए जाने का मकसद देशभर में भारतीय भाषाओं की पढ़ाई को प्रोत्साहन देना है. NEP, 2020 में साफ तौर पर निर्देश दिए गए हैं कि सीखी जाने वाली भाषाएं राज्यों, क्षेत्रों और निश्चित तौर पर छात्रों की अपनी पसंद की होंगी. शर्त बस इतनी-सी है कि तीन में से दो भारत की मूल भाषाएं हों.

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इसमें केंद्र और राज्य सरकारों से अपेक्षा की गई है कि वे देशभर की सभी क्षेत्रीय भाषाओं को आगे बढ़ाने पर ध्यान दें. खासकर उन भाषाओं को, जो संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज हैं. पॉलिसी में ऐसा कुछ भी लिखा नहीं मिलता, जिससे हिंदी या संस्कृत को जबरन थोपे जाने का आभास होता हो.

मातृभाषा पर जोर के पीछे की वजह जानिए

मातृभाषा पर जोर दिए जाने की बात में कोई रहस्य नहीं छुपा है. कम उम्र के बच्चे अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा में किसी चीज को तेजी और आसानी से सीखते हैं. यही वजह है कि निचली कक्षाओं में इसके जरिए पढ़ाई पर खासा जोर दिया गया है. इसमें कहा गया है कि शुरुआती शिक्षा का माध्यम घर की भाषा/ मातृभाषा/ स्थानीय भाषा/ क्षेत्रीय भाषा होगी. आगे चलकर इसे भाषा के तौर पर पढ़ाया जाता रहेगा.

नीति में इस बात पर जोर है कि जहां कहीं भी बच्चे को मिल रही भाषा और मातृभाषा में गैप हो, तो उसे भरा जाए. विज्ञान, गणित समेत सारे विषयों को इसी भाषा में उपलब्ध कराया जाए. हर भाषा को मनोरंजक बनाकर, बातचीत के अंदाज में पढ़ाया जाए. भाषा सिखाने के लिए, लोकप्रिय बनाने के लिए तकनीक के इस्तेमाल की बात कही गई है.

भारतीय भाषाओं में क्या रखा है?

इस पूरी चर्चा में एक सवाल उठता है कि आखिर भारतीय भाषाओं में ऐसी क्या खूबियां हैं कि इस पर पूरा फोकस किया गया है. दरअसल, अपने देश की भाषाओं में शिक्षा हासिल करना फायदे का सौदा है, घाटे का नहीं. अपनी भाषाएं न केवल पढ़ने-पढ़ाने के नजरिए से, बल्कि सामाजिक ढांचे और तकनीकी विकास में लाभकारी साबित हुई हैं.

पॉलिसी कहती है कि अपने देश की भाषाएं दुनिया में सबसे समृद्ध और सबसे वैज्ञानिक मानी गई हैं. इनमें न केवल प्राचीन, बल्कि आधुनिक साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के विशाल भंडार हैं. इन भाषाओं में रचे गए साहित्य, गीत-संगीत, फिल्में आदि हमारी धरोहर हैं. ये हमारी राष्ट्रीय पहचान की तरह हैं. ऐसे में इन भाषाओं को बढ़ावा दिया जाना लाजिमी ही है.

विदेशी भाषाओं के प्रति नजरिया

पॉलिसी में भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी में बेहतर कोर्स मुहैया कराने की बात तो है ही. साथ ही कोरियाई, जापानी, थाई, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश जैसी कई विदेशी भाषाओं के नाम भी गिनाए गए हैं. माध्यमिक स्तर तक इसकी पढ़ाई का विकल्प भी खुला रहेगा. इसके पीछे का मकसद दुनिया की दूसरी संस्कृतियों के बारे में जानकारी बढ़ाना, दुनिया के अन्य देश के लोगों से मेल-जोल और संवाद बढ़ाने में सक्षम होना है.  

त्रिभाषा फॉर्मूला का मकसद जानिए

तीन भाषाओं वाले फॉर्मूले को लाए जाने के पीछे एक ज्यादा बड़ा मकसद काम कर रहा है. वह यह है कि देश की भाषाओं के फैलाव से अलग-अलग हिस्सों के लोग एक-दूसरे से मिलने-जुलने में सहज महसूस करेंगे. एक-दूसरे की भाषाओं को सीखकर, देश की विशाल बौद्धिक संपदा से लाभ भी उठा सकेंगे. इस तरह यह फॉर्मूला राष्ट्रीय एकता में सहायक हो सकता है.

रोजी-रोजगार के नजरिए से भी देशी भाषाओं का ज्ञान फायदेमंद ही माना जाएगा. ऐसी कई नौकरियां हैं, जिनमें स्थानीय भाषाएं जानने वालों को खास तरजीह दी जाती है. ऐसी भाषाओं की जानकारी के अभाव में कई मौके हाथ से निकलते देखे जाते हैं.

नई नीति में साफ कर दिया गया है कि संवैधानिक प्रावधानों के लिए, लोगों और क्षेत्रों की आकांक्षाएं पूरी करने के लिए, बहुभाषावाद और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए त्रिभाषा फॉर्मूले को लागू किया जाना जारी रहेगा. जहां तक किसी नई भाषा को सीखने का सवाल है, उसे रोचक तरीके से, ऐप, फिल्म, थिएटर, कथा-कहानी, काव्य, संगीत आदि के सहारे सिखाया जाएगा.

क्या हिंदी-संस्कृत थोपी जा रही है?

सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर त्रिभाषा फॉर्मूले के जरिए हिंदी या संस्कृत थोपे जाने के आरोप क्यों लगाए जा रहे हैं? पॉलिसी में इसको लेकर क्या कहा गया है? जहां तक पॉलिसी की बात है, इसमें साफ कहा गया है कि तीन भाषा के फॉर्मूले में पूरा लचीलापन रखा जाएगा. किसी भी राज्य पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी. साथ ही भाषाएं चुनने के लिए राज्य और वहां पढ़ने वाले बच्चे स्वतंत्र होंगे. यहां तक कि इसमें भाषा बदलने का भी प्रावधान है.

इतना जरूर है कि नई नीति में संस्कृत भाषा और साहित्य की खूबियों की चर्चा विस्तार से की गई है. बताया गया है कि संस्कृत साहित्य में गणित, दर्शन, व्याकरण, संगीत, राजनीति, चिकित्सा, वास्तुकला, धातु-विज्ञान, नाटक, कविता, कहानी आदि बहुत कुछ है. इन्हें अलग-अलग धर्म के लोगों ने भी रचा है और गैर-धार्मिक लोगों ने भी. देश के सभी क्षेत्र के लोगों ने, हजारों साल में रचकर इसे समृद्ध किया है. गौर करें, तो तथ्यात्मक रूप में ऐसा कहना एकदम सही है.  

संस्कृत की तमाम विशेषताओं को गिनाकर यह कहा गया है कि इसे तीन भाषाओं वाले मुख्यधारा के विकल्प के साथ-साथ, एक समृद्ध विकल्प के रूप में पेश किया जाएगा. इस भाषा को दिलचस्प और प्रासंगिक रखने पर जोर है. साथ ही इसके सरल मानक रूप को अपनाने की बात कही गई है.

क्या किसी भाषा को दबाया जा रहा?

जी नहीं. नई नीति में दक्षिण भारत की तमाम भाषाओं समेत हर एक भाषा के संरक्षण पर जोर है. इसमें साफ कहा गया है कि भारत में शास्त्रीय तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम और ओडिया समेत अन्य शास्त्रीय भाषाओं में अत्यंत समृद्ध साहित्य भरे पड़े हैं. पॉलिसी में पाली, फारसी, प्राकृत- सबके संरक्षण पर जोर है. ये सारी भाषाएं और इनके साहित्य 'जीवित' और 'जीवंत' बने रहें, यह तय करने की बात कही गई है.

पॉलिसी को ध्यान से देखें, तो इसमें तमिल, तेलुगू समेत भारत की अन्य शास्त्रीय भाषाओं और साहित्य को स्कूलों में बड़े पैमाने पर विकल्प के रूप में पेश करने का जिक्र है. ये भाषाएं बढ़ेंगी कैसे, इसकी राह भी बताई गई है. कहा गया है कि जहां जरूरी होगा, वहां इनके 'ऑनलाइन मॉड्यूल' उपलब्ध होंगे.

संविधान में भाषाओं को संजोने के प्रावधान

किसी भाषा को दबाने का सवाल इसलिए भी नहीं उठता, क्योंकि संविधान में भाषाओं को संजोने के उचित प्रावधान पहले से मौजूद हैं. आर्टिकल 29 में यहां तक कहा गया है कि नागरिकों के किसी भी वर्ग को, जिसकी अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसके संरक्षण का अधिकार होगा. कुल मिलाकर, भाषायी फॉर्मूले के विरोध के पीछे कोई दमदार तर्क नजर नहीं आता.

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.