सिर्फ बाहर उजाला करने से क्या होगा, रोशनी की सबसे ज्यादा जरूरत तो भीतर है!

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Amaresh Saurabh

देशभर में दीपावली को लेकर जैसा उत्साह दिखाई पड़ता है, वह बिल्कुल अनूठा है. वैसे तो इस पर्व के आगे-पीछे और भी कई पर्व जुड़े हुए हैं. लेकिन इनमें प्रधानता प्रकाश-पर्व की ही रहती है. ऐसे में थोड़ा ठहरकर देखने की जरूरत है कि क्या हम उस जगह उजाला फैला पा रहे हैं, जहां इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है.  

तमसो मा ज्योतिर्गमय
वैदिक साहित्य में एक सूत्र वाक्य मिलता है- 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'. मतलब, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो. आज भी लोग इस वाक्य को पूजा-प्रार्थना में शामिल करते हैं. शिक्षा से जुड़े कई संस्थानों ने इसे अपना आदर्श वाक्य बनाया है. वैसे तो इंसान की कामना प्रकाश की ओर चलने की रहती है. लेकिन विडंबना ये कि हमारे कदम जाने-अनजाने उस ओर निकल पड़ते हैं, जहां सिवाए अंधेरे के, और कुछ हाथ नहीं आता.

वास्तव में सद्बुद्धि और ज्ञान की तुलना प्रकाश से की गई है. प्रार्थना में इसकी ही मांग की गई है. बिना इसके, केवल बाहरी प्रकाश से बात नहीं बनती. देखने-परखने की बात यह है कि कोई कदम उठाते समय हम बुद्धि का कितना उपयोग कर पाते हैं. उत्सव के मौकों पर, परंपरा के सवाल पर कहीं हम अपने ज्ञान की आंखें बंद तो नहीं कर लेते?

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धनतेरस और 'असली धन'
दीपावली मनाई जाती है कार्तिक मास की अमावस्या को. इससे ठीक पहले वाली त्रयोदशी 'धन-त्रयोदशी' या 'धनतेरस' नाम से जानी जाती है. पौराणिक मान्यता के अनुसार, सतयुग में इसी तिथि को समुद्र-मंथन के दौरान भगवान धन्वंतरि उत्पन्न हुए थे. यही धन्वंतरि देवताओं के वैद्य माने गए. इन्हें ही आयुर्वेद का जनक माना जाता है.

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ऐसी मान्यता है कि धन्वंतरि अपने साथ अमृत कलश लेकर अवतरित हुए थे. बस, इस कलश को ध्यान में रखकर लोग धनतेरस पर नए-नए बर्तन, गहने-आभूषण, यहां तक कि इलेक्ट्रॉनिक आइटम भी खरीदने लगे. आज के दौर की बात करें, तो इस दिन बहुत बड़े पैमाने पर इन चीजों की खरीद-बिक्री होती है. धन्वंतरि के कलश के भीतर क्या है, यह झांकने की किसी को फुर्सत कहां? वास्तव में, उनके कलश में जो अमृत है, वह सेहत का खयाल रखकर, सुखमय और लंबे जीवन का आनंद उठाने का अमृत है.

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गौर से देखें, तो धनतेरस में सबसे मुख्य बात है आरोग्य के देवता के प्राकट्य का उत्सव मनाना, जिससे हर किसी को निरोगी जीवन जीने की प्रेरणा मिल सके. रही बात त्रयोदशी के साथ 'धन' शब्द के जुड़ाव की, तो दुनिया में सेहत से बढ़कर और कौन-सा धन होगा? जो अवसर आयुर्वेद से मेल-जोल बढ़ाकर आरोग्य पाने में बिताया जाना चाहिए, वह दूसरी चीजों की खरीद-बिक्री की कतार में लगकर गुजर जा रहा है. यह धारणा गहरी जड़ जमाए बैठी है कि इस दिन कुछ न कुछ बाजार से खरीदना ही है (चाहे उसकी जरूरत हो या नहीं). देख सकते हैं कि प्रकाश पर्व से ठीक पहले रोशनी कहां डाले जाने की जरूरत है.

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वैसे धनतेरस पर कुबेर की भी पूजा की जाती है. वही कुबेर, जो देवताओं के कोषाध्यक्ष यानी खजांची माने गए हैं. ये लक्ष्मीजी के सेवक हैं. एक तरह से ये धन के रक्षक हैं. इसका संदेश यही है कि धनतेरस पर सबको अपना बैलेंस चेक करना चाहिए. खर्च करने से पहले घर का बजट देखना चाहिए.

दीप-पर्व की मान्यताएं
मान्यता है कि दुष्ट राक्षसों का संहार करके श्रीराम जिस रात अयोध्या लौटे, वह अमावस की रात थी. अधर्म पर धर्म की विजय-पताका फहराने वाले प्रभु के स्वागत में लोगों ने सारे रास्ते, घर-आंगन दीयों से जगमग कर दिए. इस पर्व का महत्त्व जैन धर्म में भी है. मान्यता है कि जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी ने इसी दिन निर्वाण पाया था. एक कथा में यह भी बताया गया है कि देवलोक से देवताओं ने दीप जलाकर महावीर स्वामी की स्तुति की थी.

समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं. जिस तरह के असुरों का संहार श्रीराम ने किया था, वैसे असुर आजकल खोजने पर भी कहीं दिखाई नहीं देते. लेकिन मुश्किल ये कि अब इंसान की प्रवृत्तियों में वैसी चीजें बिना खोजे दिख जाती हैं, जिन्हें मानवता के नजरिए से उचित नहीं ठहराया जा सके. छोटे स्तर के छल-कपट, बेईमानी, झगड़ों से लेकर बड़े-बड़े युद्धों तक का अंतहीन सिलसिला. बाहर से सभ्य दिखने वालों के भीतर ही कई राक्षसी वृत्तियां समा गई मालूम पड़ती हैं. इन बदली हुई परिस्थितियों में बाहर की रोशनी, जगमगाती लड़ियां और दीपमालाएं कितनी कारगर होंगी, जब कालिमा का साम्राज्य हमारे भीतर हो.

सेहत और पर्यावरण
प्रकाश के पर्व को जबरन कुछ गैरजरूरी चीजों से जोड़कर हम न केवल अपनी धरती और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं, बल्कि सेहत को भी खतरे में डालते हैं. दिवाली पर पटाखे फोड़ें या नहीं, इसको लेकर लंबी-चौड़ी बहस की जा सकती है. तर्क-वितर्क या कुतर्क के सहारे अपने-अपने पक्ष को सही ठहराया जा सकता है. कानूनी पेच को और कसने या ढील दिए जाने की वकालत की जा सकती है. लेकिन इस तथ्य से किसे इनकार होगा कि पटाखों से हवा में बड़े पैमाने पर जहर घुलता ही है.

सिर्फ सांस या दिल से जुड़ी बीमारियों की बात नहीं, यह जहर और कानफोड़ू शोर एक सेहतमंद आदमी के लिए भी खतरनाक है. और पृथ्वी केवल इंसानों के रहने की जगह थोड़े ना है! लेकिन जब इंसान एक बड़े फलक पर इंसानों के हित की बात सोचने से परहेज कर रहा हो, तो मूक पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की खैर कौन पूछे?

चाहिए बुद्धि के साथ समृद्धि
दोष हमारी परंपराओं में नहीं, बल्कि प्रतीकों के सही मतलब की ओर से आंखें मूंदे रहने में है. दीपावली की रात को मुख्य रूप से लक्ष्मी-गणेश की पूजा साथ-साथ करने का विधान है. लक्ष्मी समृद्धि की देवी मानी गई हैं और गणेश सद्बुद्धि देने वाले देव. यह एक आदर्श स्थिति है, जिसमें यह कामना छुपी है कि हमें समृद्धि मिले, पर सद्बुद्धि के साथ. देखा जाए, तो सद्बुद्धि की रोशनी में ही धन-वैभव का उचित उपयोग संभव है. सद्बुद्धि का यह उजाला ही समृद्धि को सुरक्षित और लाभकारी बना सकता है. यही जनहित का भी आधार है. यही इस दीप-पर्व का संदेश है, जिसे पकड़ने में अक्सर चूक हो जाया करती है.

जब महात्मा बुद्ध 'अप्प दीपो भव' की बात करते हैं, तो वे यह भी कह रहे होते हैं कि पहले स्वयं ज्ञान से भर जाओ, तभी औरों को भी उजाले से भर सकोगे. कहीं ऐसा न हो कि दीप असंख्य जल जाएं, पर मन का अंधकार दूर ही न हो! दीप-पर्व यही याद दिलाने आता है कि असली अंधकार से लड़ने का हमारा अभियान कहीं गलत दिशा में मुड़ता तो नहीं जा रहा है?

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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