चुपचाप तीर छाप... 2020 के चुनाव में हार के बाद किस तरह CM नीतीश ने बदली रणनीति, जानिए JDU में हुए 5 बड़े बदलाव

 2022-2023 में जब नीतीश कुमार ने एक बार फिर महागठबंधन के साथ सरकार बनाई, तो कई बार स्पष्ट हुआ कि उनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय राजनीति में एक विकल्प बनने की थी. लेकिन जैसे-जैसे विपक्षी एकता की तस्वीर धुंधली होती गई, नीतीश ने बीजेपी से पुराने रिश्तों को सुधारने का प्रयास शुरू किया.

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नई दिल्ली:

2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में जनता दल यूनाइटेड (JDU) को एक करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था. पार्टी महज 43 सीटों तक सिमट गई और राज्य में तीसरे नंबर की ताकत बनकर रह गई थी. यह नीतीश कुमार की अब तक की सबसे बड़ी चुनावी हार थी, हार का ठीकरा लोजपा के चिराग पासवान पर फोड़ा गया, लेकिन JDU के भीतर भी रणनीतिक, सांगठनिक और सामाजिक स्तर पर गंभीर खामियां उजागर हुईं. इस हार के बाद नीतीश कुमार ने खुद को फिर से केंद्र में लाकर पार्टी को एक बार फिर जीवित करने की मुहिम छेड़ दी. 2025 के संभावित चुनावों से पहले JDU में 5 बड़े बदलाव ऐसे हैं जो इस बार पार्टी को मजबूत स्थिति में खड़ा कर सकते हैं. 

1 - संगठन में पुनर्गठन, कई हुए बाहर युवाओं को मिला मौका

2020 की हार के तुरंत बाद नीतीश कुमार ने संगठनात्मक ढांचे में बड़ा बदलाव किया. सबसे पहले तत्कालीन अध्यक्ष आरसीपी सिंह से पार्टी की कमान धीरे-धीरे वापस ले ली गई. उनके बाद ललन सिंह को अध्यक्ष बनाया गया और अब स्वयं नीतीश कुमार ने पार्टी का नेतृत्व संभाल लिया है. इससे पार्टी में चल रही खींचतान पर विराम लगाने का प्रयास हुआ।

नीतीश ने पुराने और थके हुए चेहरों की जगह युवा नेतृत्व को तरजीह देना शुरू किया. वशिष्ठ नारायण सिंह की जगह उमेश कुशवाहा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, जिससे ‘लव-कुश' समीकरण को फिर से साधा जा सके. यही नहीं, एक समय नाराज होकर पार्टी छोड़ चुके उपेंद्र कुशवाहा की भी वापसी करवाई गई, हालांकि बाद में वे फिर अलग हो गए. 

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2- मंडल राजनीति की तरफ जदयू की हुई वापसी

नीतीश कुमार ने 2020 के बाद मंडल राजनीति के पुराने फॉर्मूले की ओर वापसी की. सामाजिक न्याय की राजनीति को फिर से धार देने के लिए उन्होंने जातीय जनगणना को केंद्र में रखा और केंद्र सरकार पर इसका दबाव भी बनाया. यह एक ऐसा मुद्दा था जो बिहार की सामाजिक संरचना में गहरी पकड़ रखता है और इससे पिछड़ा, अति पिछड़ा और दलित वर्ग के मतदाताओं में JDU के प्रति समर्थन को वापस लाने की कोशिश की गई.

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2020 के चुनाव में जदयू की हार का एक कारण उसका अपने कोर वोट बैंक पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) से दूरी माना गया. नीतीश ने इस कमी को पहचाना और मंडल राजनीति की ओर फिर से रुख किया. उन्होंने बिहार में जातिगत गणना कराने का ऐतिहासिक फैसला लिया, जिसे 2022 में लागू किया गया. यह कदम न केवल बिहार की सियासत में, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा का विषय बना. 

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3 - संजय झा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर बीजेपी से रिश्ते सुधरे:

 2024 आते-आते नीतीश ने पार्टी में संजय झा को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया. संजय झा एक युवा, आधुनिक और मीडिया फ्रेंडली चेहरा माने जाते है. इससे पीछे नीतीश कुमार की 2 रणनीति थी. 

  • एक, पार्टी के अंदर रणनीतिक चतुराई और संवाद स्थापित करने की नई शैली लाना.
  • दूसरा, सवर्ण वोट बैंक को भी जोड़े रखना, क्योंकि संजय झा ब्राह्मण समुदाय से आते हैं और मिथिलांचल के कुछ हिस्सों में उन्होंने अपनी पकड़ बनाई है. 

4- बीजेपी से रिश्तों में सुधार, 2013 से पहले की तासीर

 2022-2023 में जब नीतीश कुमार ने एक बार फिर महागठबंधन के साथ सरकार बनाई, तो कई बार स्पष्ट हुआ कि उनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय राजनीति में एक विकल्प बनने की थी. लेकिन जैसे-जैसे विपक्षी एकता की तस्वीर धुंधली होती गई, नीतीश ने बीजेपी से पुराने रिश्तों को सुधारने का प्रयास शुरू किया.  संजय झा की नियुक्ति और बीजेपी नेताओं के साथ उनकी केमेस्ट्री अच्छी हुई है. बीजेपी के साथ सहज रिश्तों ने जदयू को 2024 के लोकसभा चुनाव में 12 सीटें जीतने में मदद की, जो 2020 की तुलना में बेहतर प्रदर्शन था.

5- कार्यकर्ताओं का सम्मान:  पुराने लोगों को भेजा राज्यसभा

नीतीश कुमार ने पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के लिए दो पुराने, अपेक्षाकृत अनचीन्हे चेहरों अनिल हेगड़े और खीरू महतो को राज्यसभा भेजा.  इसका संदेश साफ था: JDU केवल चुनावी चेहरों की पार्टी नहीं है, यहां जमीनी कार्यकर्ता भी ऊपर आ सकते हैं.

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