बिहार चुनाव 2025: मोरवा में क्या इस बार रहेगी जेडीयू-आरजेडी में कांटे की टक्कर या पलट जाएगी बाजी

मोरवा की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर है. यहां धान, गेहूं, मक्का और दालों की खेती बड़े पैमाने पर होती है. कृषि आधारित कुछ छोटे स्तर के उद्योग भी यहां मौजूद हैं. बिहार की राजधानी पटना यहां से लगभग 90 किलोमीटर दूर है, लेकिन, मोरवा की सबसे बड़ी और चिंताजनक बात यहां की बेरोजगारी है.

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प्रतीकात्मक फोटो

बिहार की मोरवा सीट समस्तीपुर जिले में आती है.भौगोलिक रूप से यह उपजाऊ गंगा के मैदान का हिस्सा है. इससे करीब  32 किलोमीटर की दूरी पर बूढ़ी गंडक नदी बहती है, जो इस क्षेत्र की कृषि को जीवन देती है. इसे हमेशा कांटे की टक्कर वाली सीट के रूप में गिना जाता है. उजियारपुर लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली इस सीट के चुनावी मुकाबले का सीधा असर दिल्ली की राजनीति पर भी पड़ता है. वर्तमान में ये सीट सामान्य श्रेणी में आती है, जहां आरजेडी का परचम लहरा रहा है. ये समस्तीपुर जिला मुख्यालय से 11 किलोमीटर दूर है.

आरजेडी और जेडीयू के बीच इस बार जनसुराज भी खड़ी है

इस सीट पर हमेशा आरजेडी और जेडीयू के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिलती है. वो इस बार भी हो सकता है, लेकिन बीच में इस बार जनसुराज भी मौजूद है. जनसुराज ने अपने उम्मीदवारों को पहली सूची जारी कर दी है, जिसमें इस सीट से कर्पूरी ठाकुर की पोती डॉ जागृति ठाकुर को चुनावी मैदान में उतारा गया है. सो इस सीट पर इस बार तीन पार्टियों के बीच मुकाबला देखने को मिल सकता है.

2020 में आरजेडी के रणविजय साहू ने जमाया था सीट पर कब्जा

मोरवा की पहचान हमेशा से ही निर्णायक मतदाताओं और अप्रत्याशित नतीजों के लिए रही है. 2020 का विधानसभा चुनाव मोरवा के लिए एक बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम साबित हुआ, जब आरजेडी के रणविजय साहू ने अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वी को हराकर सीट पर कब्जा किया. रणविजय इस सीट पर 10 हजार से अधिक वोटों के अंतर से जीते थे. ये चुनाव पूरी तरह से जेडीयू बनाम आरजेडी था. इस सीट के लिए माना जाता है कि मोरवा के मतदाता किसी एक दल या शख्स से अधिक प्रभावित नहीं रहते, बल्कि ये देखते हैं कि कौन उनके क्षेत्र के लिए काम कर सकता है. इसके लिए वे बदलाव को भी स्वीकार करते हैं.


मोरवा सीट 2008 परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई

मोरवा सीट 2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई, इसलिए इसका चुनावी इतिहास बहुत पुराना नहीं है, लेकिन बेहद दिलचस्प है. मोरवा सीट पर पहला चुनाव 2010 में हुआ था. इस चुनाव में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के वैद्यनाथ सहनी ने जीत हासिल की थी. उन्होंने राजद के अशोक सिंह को हराकर इस नई सीट पर जदयू का झंडा फहराया. वैद्यनाथ सहनी की जीत का मुख्य आधार सहनी समाज का मजबूत समर्थन था. 2015 में जदयू उस समय महागठबंधन का हिस्सा था इसलिए जदयू के विद्या सागर निषाद महागठबंधन के संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर चुनावी मैदान में उतरे थे. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सुरेश राय को पराजित कर यह सीट बरकरार रखी. 2020 में समीकरण बदले और रणविजय साहू (राजद) ने बाजी पलटते हुए जीत दर्ज की.

राजनीतिक विकास मगर जातिगत समीकरण के साथ

मोरवा की राजनीति में भले ही विकास की बातें हों, लेकिन बिहार के अन्य हिस्सों की तरह यहां भी जातिगत समीकरण ही चुनाव के नतीजों पर सबसे अधिक हावी रहते हैं. मोरवा में सहनी समाज (जो निषाद समुदाय का हिस्सा है) की आबादी सबसे अधिक है. यह समाज न केवल संख्या में बड़ा है, बल्कि यह सबसे अग्रेसिव होकर वोट करता है यानी मतदान के प्रति सबसे ज्यादा जागरूक और सक्रिय रहता है. यही समाज इस क्षेत्र की एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि मछली पालन के लिए जाना जाता है, जिससे उनकी क्षेत्रीय पहचान और शक्ति और भी मजबूत होती है.

मतदाताओं के गणित पर भी डाल लें एक नजर

इस सीट पर लगभग 30 फीसदी वोटिंग मुस्लिम और यादव (एमवाई) मतदाताओं की है. ये दोनों समुदाय मिलकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के लिए एक मजबूत और विश्वसनीय वोट बैंक तैयार करते हैं. इन प्रमुख समुदायों के अलावा, ब्राह्मण और राजपूत मतदाता भी मोरवा की चुनावी तस्वीर में एक अहम भूमिका निभाते हैं. यह दिखाता है कि यहां की राजनीति कई परतों वाली है, जहां हर समुदाय का अपना महत्व है. 

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मोरवा की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर, बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा

मोरवा की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर है. यहां धान, गेहूं, मक्का और दालों की खेती बड़े पैमाने पर होती है. कृषि आधारित कुछ छोटे स्तर के उद्योग भी यहां मौजूद हैं. बिहार की राजधानी पटना यहां से लगभग 90 किलोमीटर दूर है, लेकिन, मोरवा की सबसे बड़ी और चिंताजनक बात यहां की बेरोजगारी है. 6 नवंबर को इस सीट पर चुनाव होने हैं. मोरवा में बेरोजगारी और गरीबी जैसे प्रमुख मुद्दे जरूर उभरेंगे, लेकिन हमेशा की तरह जातिगत समीकरण भी एक बड़ा फैक्टर साबित हो सकता है.
 

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