दिहाड़ी मजदूर के बेटे और एशियाई खेलों की पैदल चाल स्पर्धा के कांस्य पदक विजेता राम बाबू का गरीबी से प्रसिद्धि का सफर एक शानदार कहानी है जो बयां करती है कि कैसे मजबूत इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति अपनी किस्मत खुद लिखता है. एशियाई खेलों की 35 किमी पैदल चाल मिश्रित टीम स्पर्धा में मंजू रानी के साथ कांस्य पदक जीतने वाले राम बाबू ने एथलेटिक्स की ट्रेनिंग का खर्चा उठाने के लिए वेटर का काम किया और कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान मनरेगा योजना के तहत अपने पिता के साथ सड़क निर्माण का कार्य भी किया क्योंकि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी.
चौबीस साल के राम बाबू ने पीटीआई को दिए साक्षात्कार में कहा, ‘‘मैंने अपने जीवन में अब तक हर संभव कार्य किया है, वाराणसी में वेटर के रूप में काम करने से लेकर हमारे गांव में मनरेगा के तहत सड़क निर्माण के लिए अपने पिता के साथ गड्ढे खोदने तक.''
उन्होंने कहा, ‘‘यह अपने लक्ष्य को लेकर आपकी प्रतिबद्धता और एकाग्रता से जुड़ा है. अगर आप किसी चीज को हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध हैं तो आप अपने लक्ष्य तक पहुंचने का रास्ता ढूंढ लोगे. मैंने भी यही किया.''
सोनभद्र जिले के बहुअरा गांव के रहने वाले राम बाबू के पिता खेतिहर मजूदर के रूप में काम करते हैं और हर महीने तीन से साढे़ तीन हजार रुपये ही कमा पाते हैं जो छह लोगों के परिवार को पालने के लिए पर्याप्त नहीं है. रामबाबू उनके एकमात्र बेटे हैं. उनकी तीन बहने हैं. उनकी मां गृहणी है और कभी कभी काम के अपने पति की मदद करती हैं.
उन्होंने कहा, ‘‘मैं पढ़ाई में अच्छा नहीं था और दिलचस्पी भी नहीं थी इसलिए मैं खेल में अपना करियर बनाना चाहता था.''
अपनी मां के आग्रह पर राम बाबू ने अपने घर के पास जवाहर नवोदय विद्यालय (जेएनवी) के लिए प्रवेश परीक्षा दी और उनका चयन हो गया. उनका दाखिला छठी कक्षा में कराया गया.
राम बाबू को जवाहर नवोदय विद्यालय में जो पढ़ाया जा रहा था उनके लिए उसे समझना मुश्किल हो रहा था और इससे उनकी पढ़ाई में रुचि कम होने लगी. जेएनवी में दो साल रहने के दौरान 2012 ओलंपिक ने उन्हें अपने भविष्य का लक्ष्य तक करने के लिए प्रेरित किया.
उन्होंने कहा, ‘‘मैं तब सातवीं कक्षा में था और अपने स्कूल के छात्रावास के टेलीविजन पर मेरीकोम, साइन नेहवाल, सुशील कुमार और गगन नारंग जैसे खिलाड़ियों को पदक जीतते हुए देखा. अगले दिन समाचार पत्र के पहले पन्ने पर उनकी खबर आई और मैंने उन सभी को पढ़ा. ''
जेएनवी में राम बाबू सभी तरह के खेल खेलते थे जिसमें फुटबॉल भी शामिल था. उन्होंने देखा कि बाकी बच्चों के विपरीत काफी अधिक दौड़ने के बावजूद वह आसानी से थकते नहीं हैं इसलिए उन्होंने लंबी दूरी की दौड़ से जुड़ने का फैसला किया.
वह शुरू में मैराथन, 10 हजार मीटर और पांच हजार मीटर में दौड़ते थे लेकिन इसके बाद उनके घुटने में दर्द होने लगा. स्थानीय कोच प्रमोद यादव की सलाह पर वह पैदल चाल से जुड़े जिसमें घुटनों पर अधिक दबाव नहीं पड़ता.
राम बाबू 2019 में भोपाल के साइ केंद्र के कोच को मनाने में सफल रहे कि वह उन्हें ट्रेनिंग दें. उन्होंन देशव्यापी कोविड-19 लॉकडाउन से पहले फरवरी 2020 में राष्ट्रीय पैदल चाल चैंपियनशिप में हिस्सा लिया और चौथे स्थान पर रहे.
लॉकडाउन के दौरान भोपाल का साइ केंद्र बंद हो गया और राम बाबू को घर लौटना पड़ा. उनके माता-पिता को घर चलाने के लिए काम नहीं मिल रहा था.
डेढ़ महीने तक मनरेगा योजना के तहत काम करने के बाद राम बाबू दोबारा भोपाल चले गए.
उन्होंने फरवरी 2021 में राष्ट्रीय पैदल चाल चैंपियनशिप में 50 किमी पैदल चाल का रजत पदक जीता और इससे कोच बसंत राणा की मदद से उनका पुणे में सेना खेल संस्थान में प्रवेश का रास्ता साफ हो गया.
विश्व एथलेटिक्स ने इसके बाद 50 किमी पैदल चाल को अपने कार्यक्रम से हटाने का फैसला किया और राम बाबू 35 किमी स्पर्धा से जुड़ गए. उन्होंने इसके बाद राष्ट्रीय ओपन चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता और पिछले साल राष्ट्रीय खेलों में 35 किमी पैदल चाल में राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया. उनके पास अब सेना में नौकरी है जहां वह हवलदार हैं.
उनकी मां मीना देवी ने 'पीटीआई-भाषा' को बताया कि उनके बेटे में बचपन से ही कुछ कर गुजरने की लगन थी. एशियाई खेलों में उनकी कामयाबी से पूरे गांव और जिले में खुशी का माहौल है. हालांकि यहां तक पहुंचने के लिये राम बाबू ने बहुत संघर्ष किया है.
मीना देवी ने बताया कि राम बाबू ने भी अपने पिता पर पड़ रहे बोझ को कम करने के लिये एक होटल में वेटर का काम किया और मनरेगा योजना के तहत मजदूरी भी की लेकिन इस दौरान निरंतर अभ्यास जारी रखा.