कफाला सिस्टम, कैदियों की जिंदगी और कमाई... समझें Gulf Countries में कैसे जीते हैं भारतीय कामगार?    

खाड़ी देश जाना हर मजदूर और उसके परिवार का सपना होता है. हालांकि, यहां की जिंदगी इन मजदूरों के लिए बेहद मुश्किल हो जाती है. इनका हर स्तर पर शोषण होता है. कितनी सैलरी मिलती है और क्यों शोषण होता है...जानिए सबकुछ

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खाड़ी देशों में काम करने वाले मजदूरों की हकीकत उनके परिवार के लोग भी शायद ही जान पाते हैं.

दक्षिणी कुवैत के मंगफ क्षेत्र में एक बहुमंजिला इमारत में लगी भीषण आग में 42 भारतीयों की जलकर मौत हो गई. इस हादसे के बाद लगातार दिल को झकझोर देने वाली कहानियां सामने आ रही हैं. इसी आग में जलकर केरल के रहने वाले श्रीहरि की भी मौत हो गई. श्रीहरि के पिता प्रदीप अपने 27 वर्षीय बेटे के हाथ पर बने टैटू से उसके शव की पहचान कर पाए. श्रीहरि पिछले सप्ताह पांच जून को ही केरल से कुवैत लौटे थे. वह और उसके पिता दोनों एक ही कंपनी में काम करते थे. हालांकि, ऐसी दर्दभरी कहानियों के बीच दिलेरी और साहस की कहानियां भी इस घटना से आईं. उत्तरी केरल के त्रिक्कारिपुर निवासी नलिनक्षन घटना के समय कुवैत की उसी इमारत की तीसरी मंजिल पर फंसे हुए थे. आग की लपटों से बचने के लिए एक साहसिक फैसला लेते हुए वह पास स्थित पानी की टंकी पर कूद गए, जिससे उनकी जान बच गई. हालांकि छलांग लगाने के कारण उनकी पसलियां टूट गईं और चोटें भी आईं, लेकिन उनकी जान किसी तरह बच गई. 

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किसी को इंतजार तो किसी का खत्म
बिहार के दरभंगा के कालू खान भी उसी इमारत में रहते थे, जिसमें आग लगी. उनके परिवार और दोस्तों का कहना है कि त्रासदी घटने के बाद से कोई नहीं जानता कि वह कहां हैं. उनकी मां मदीना खातून ने कहा कि परिवार चिंतित है, क्योंकि उन्होंने फोन कॉल और मैसेज तक का जवाब नहीं दिया है. उनके भाई और अन्य लोगों ने दिल्ली में कुवैत दूतावास और कुवैत में भारतीय दूतावास दोनों से संपर्क किया है, लेकिन उनके साथ क्या हुआ, इसकी कोई पुष्टि नहीं हुई है. उनका कहना है कि उन्हें जानकारी मिली है कि उनके कुछ रूम मेट अस्पताल में भर्ती हैं, लेकिन कालू खान के बारे में कोई जानकारी नहीं है. केरल के कोल्लम निवासी लुकोस की भी इसी आग में मौत हो गई. वह अगले महीने घर लौटने वाले थे. अपनी बड़ी बेटी के लिए उन्होंने एक मोबाइल फोन खरीदा था. हालांकि, बुधवार को उनके परिवार तक आग की खबर पहुंची मगर लुकोस को लेकर कोई पक्की जानकारी नहीं मिल रही थी. बाद में उनके मौत की पुष्टि हुई. पिछले 18 वर्षों से कुवैत में काम करने वाले लुकोस के परिवार में पिता (93), 88 वर्षीय मां, पत्नी और दो बेटियां हैं. इस हादसे में जान गंवाने वालों के दर्द को बांट पाना तो शायद किसी के लिए संभव नहीं पर खाड़ी देशों में काम करने वालों की जिंदगी भी आसान नहीं होती. 

खाड़ी देशों में कितनी मिलती है सैलरी? 
अपनों की जिंदगी संवारने की उम्मीद लिए कामगार खाड़ी देश चले जाते हैं. परिवार के लोग सोचते हैं कि वहां उनकी जिंदगी बहुत बेहतर रहती है. मगर अपनों की जिंदगी बनाने के लिए ये कामगार हर तरह की परेशानी को मुंह बंद कर सहन करते हैं. भारत में बड़ी आबादी और बेरोजगारी इन मजदूरों को खाड़ी के देशों में ले जाती है. भारत में वे जितना कमा सकते थे, कुवैत जैसे देश में उनकी कमाई उससे अधिक होती है. ये अलग बात है कि कुवैत के हिसाब से उनकी कमाई बहुत ही कम होती है. वहां रह चुके कई मजदूर-कामगारों का कहना है कि नॉन स्किल्ड वर्कर के तौर पर उनको सौ-दो सौ कुवैती दीनार तक मिल पाता है. यानि कि वे 30 से 50 हजार के आसपास कमा पाते हैं. भारत के मुकाबले ये अधिक कमाई है, लेकिन वे पैसा तभी बचा पाते हैं, जब बहुत कम किराए में किसी तरह सर छुपाने की जगह पर रहते हैं.

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कफाला के जरिए होता है शोषण
कफाला विदेशी श्रमिकों और उनके नियोक्ता यानि काम देने वालों के बीच संबंध को परिभाषित करती है. इसका उपयोग खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) देशों-बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात-साथ ही जॉर्डन और लेबनान में किया गया है. बहरीन और कतर दोनों ने इस प्रणाली को समाप्त करने का दावा किया है, हालांकि आलोचकों का कहना है कि सुधारों को खराब तरीके से लागू किया गया है और यह नहीं के बराबर है. इस सिस्टम के तहत, राज्य स्थानीय व्यक्तियों या कंपनियों को विदेशी मजदूरों को नियोजित करने के लिए प्रायोजन परमिट देता है (बहरीन को छोड़कर, जहां श्रमिकों को व्यक्तिगत नियोक्ताओं के बजाय सरकारी एजेंसी द्वारा प्रायोजित किया जाता है). प्रायोजक यात्रा व्यय को कवर करता है और आवास प्रदान करता है, अक्सर छात्रावास जैसे आवास में या, घरेलू श्रमिकों के मामले में, प्रायोजक के घर में. किसी व्यक्ति को सीधे काम पर रखने के बजाय, प्रायोजक कभी-कभी श्रमिकों को खोजने और मेजबान देश में उनके प्रवेश की सुविधा के लिए मूल देशों में निजी भर्ती एजेंसियों का उपयोग करते हैं.

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कफाला के चलते बन जाते हैं गुलाम
कफाला सिस्टम आमतौर पर श्रम मंत्रालयों के बजाय आंतरिक मंत्रालयों के अधिकार क्षेत्र में आती है, इसलिए श्रमिकों को अक्सर मेजबान देश के श्रम कानून के तहत कोई सुरक्षा नहीं मिलती है. इससे वे शोषण के शिकार हो जाते हैं और उन्हें श्रम विवाद के अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है. इसके अलावा, क्योंकि श्रमिकों के रोजगार और निवास वीजा से जुड़े हुए हैं और केवल प्रायोजक ही उन्हें नवीनीकृत या समाप्त कर सकते हैं, यह सिस्टम राज्य के बजाय निजी नागरिकों को श्रमिकों की कानूनी स्थिति पर नियंत्रण प्रदान करता है, जिससे एक शक्ति असंतुलन पैदा होता है और इसी का प्रायोजक फायदा उठाते हैं. ज्यादातर स्थितियों में, श्रमिकों को नौकरी स्थानांतरित करने, रोजगार समाप्त करने और मेजबान देश में प्रवेश करने या बाहर निकलने के लिए अपने प्रायोजक की अनुमति की आवश्यकता होती है. बिना अनुमति के कार्यस्थल छोड़ना इन देशों में एक अपराध है, जिसके परिणामस्वरूप कर्मचारी की कानूनी स्थिति समाप्त हो सकती है और संभावित रूप से कारावास या निर्वासन हो सकता है, भले ही कर्मचारी दुर्व्यवहार से भाग रहा हो. श्रमिकों के पास शोषण का सामना करने के लिए बहुत कम विकल्प हैं, और कई विशेषज्ञों का तर्क है कि यह प्रणाली आधुनिक गुलामी को बढ़ावा देती है.

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कुवैत में कितने भारतीय कामगार?
आंकड़े बताते हैं कि कुवैत की कुल आबादी करीब 49 लाख है. इस 49 लाख में कुवैत के अपने नागरिक महज 15 लाख 50 हजार के आसपास हैं. जबकि करीब 33 लाख 50 हजार दूसरे देशों से आने वाले लोग हैं. इनमें 30 फीसदी हिस्सा यानि कि करीब 10 लाख लोग भारतीय हैं. इनमें से अधिकतर केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और पंजाब राज्य से हैं. बिल्डिंग की आग में मरने वालों में भी अधिकतर तमिलनाडु और केरल के ही बताए गए हैं. कुवैत में बढ़ई, राजमिस्त्री, घरेलु सहायक, ड्राईवर और यहां तक कि बाइक पर खाने की डिलीवरी करने वालों की भारी मांग है. इन सब कामों के लिए कुवैत अधिकतर भारतीयों पर निर्भर है. कुवैत में कुल मजदूरों-कामगारों का 21 फीसदी हिस्सा भारतीय है. कुवैत में भारतीय दूतावास के 2020 के आंकड़ों के मुताबिक करीब 28 हजार भारतीय क़ुवैत के पब्लिक सेक्टर में काम करते हैं. इनमें स्वास्थ्य कर्मचारी से लेकर, इंजीनियर और तेल कंपनियों में काम करने वाले शामिल हैं. कुवैत में करीब 1500 भारतीय डाक्टर और 24 हजार नर्स भी हैं. सबसे अधिक करीब 5 लाख 25 हजार भारतीय निजी क्षेत्र में काम करते हैं, जबकि 3 लाख डोमिस्टिक सेक्टर में रसोईए, ड्राइवर आदि के तौर पर काम करते हैं.

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