कपिसा का योद्धा, चीन का सेनापति! एक 'भारतीय' जनरल लुओ हाओ-ह्सिन की अनसुनी कहानी

लुओ हाओ-ह्सिन की गाथा हमें यह याद दिलाती है कि भारत और चीन के बीच केवल व्यापारिक सिल्क रूट ही नहीं था, बल्कि विचारों, संस्कृतियों और यहां तक कि सेनाओं का भी आदान-प्रदान होता रहा.  

विज्ञापन
Read Time: 4 mins
फटाफट पढ़ें
Summary is AI-generated, newsroom-reviewed
  • लुओ हाओ-ह्सिन कपिसा से आए भारतीय सेनापति थे, जिन्होंने तांग राजवंश में चीनी सेना में उच्च स्थान प्राप्त किया.
  • तांग राजवंश के कठिन राजनीतिक और आर्थिक संकटों के बीच लुओ ने योग्यता से सम्राट के भरोसेमंद कमांडर बन गए थे.
  • चू-त्जु विद्रोही के खिलाफ लुओ की निर्णायक जीत ने उन्हें प्रांतीय न्यायाधीश और युवराज के शिक्षक जैसे पद दिलाए.
क्या हमारी AI समरी आपके लिए उपयोगी रही?
हमें बताएं।
नई दिल्‍ली:

भारत और चीन का रिश्ता सिर्फ व्यापार, धर्म और संस्कृति तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि इतिहास के पन्नों में ऐसी कई कहानियां छिपी हैं जो इन दोनों सभ्यताओं के गहरे जुड़ाव को बयां करती हैं.  ऐसी ही एक दिलचस्प कहानी है पांचवीं सदी की तो तांग राजवंश के दौरान चीन में उभरे एक भारतीय सेनापति लुओ हाओ-ह्सिन से जुड़ी हुई है. कपिसा (वर्तमान अफगानिस्तान-भारत सीमा क्षेत्र) से आए इस योद्धा ने न सिर्फ चीन की सेना में अपना स्थान बनाया, बल्कि सम्राट का सबसे भरोसेमंद कमांडर बनकर विदेशी धरती पर इतिहास रचा. 

तांग राजवंश का कठिन दौर

तांग राजवंश (618–907 ई.) चीन का स्वर्ण युग माना जाता है लेकिन इसका उत्तरार्ध राजनीतिक और आर्थिक संकटों से भरा रहा. लगातार विद्रोह, सीमावर्ती हमले और आर्थिक गिरावट ने साम्राज्य की नींव हिला दी थी. राजधानी चांगआन (वर्तमान शीआन) में विदेशी समुदायों और व्यापारियों पर संदेह गहराने लगा था. कई विदेशियों को निष्कासित कर दिया गया, और सीमाओं पर रह रहे अल्पसंख्यकों को भी सुरक्षा संकट का सामना करना पड़ा. लेकिन इस अस्थिर माहौल में भी एक विदेशी व्यक्ति—लुओ हाओ-ह्सिन—ने अपनी योग्यता और साहस से असंभव को संभव कर दिखाया.

तांग राजवंश की यह कहानी आज भी उतनी ही अहमियत रखती है क्योंकि यह बताती है कि प्रतिभा और मेहनत सीमाओं से परे होती है. लुओ हाओ-ह्सिन, जिन्होंने विदेशी होते हुए भी चीन के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य में सम्मान पाया, भारत-चीन संबंधों की उस साझा विरासत का हिस्सा हैं जिसे आज फिर से याद करना जरूरी है. 

 मामूली सैनिक से सेनापति तक

लुओ हाओ-ह्सिन ने अपना करियर एक छोटे से सैन्य अधिकारी के रूप में शुरू किया. शुरुआती दिनों में उन्हें विदेशी होने के कारण कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन उनकी बहादुरी और रणनीतिक क्षमता ने उन्हें धीरे-धीरे ऊंचे पदों पर पहुंचा दिया. सम्राट ते-त्सुंग (780–805 ई.) के शासनकाल में वे इतने भरोसेमंद बन गए कि उन्हें 'प्रेरित रणनीति की सेना के सेनापति' नियुक्त किया गया.  यह पद साधारण नहीं था—यह राजदरबार में सम्राट के सबसे नजदीकी और प्रभावशाली सैन्य पदों में से एक था. 

निर्णायक युद्ध और सम्मान

लुओ को अपनी क्षमता साबित करने का अवसर तब मिला जब उन्हें विद्रोही सेनापति चू-त्जु के खिलाफ मोर्चा संभालने भेजा गया. उन्होंने अपनी रणनीति और साहस के दम पर चू-त्ज़ु को हराकर न सिर्फ साम्राज्य को बचाया, बल्कि दरबार में भी अपनी पहचान बना ली. इस जीत के बाद लुओ को प्रांतीय न्यायाधीश, नमक आयुक्त और युवराज के शिक्षक जैसे अहम पदों से सम्मानित किया गया. यह इस बात का प्रमाण था कि एक विदेशी योद्धा भी चीन के सम्राट का इतना विश्वास जीत सकता है. 

युद्ध के मैदान से बौद्ध धर्म तक

लुओ हाओ-ह्सिन का योगदान सिर्फ सैन्य क्षेत्र तक सीमित नहीं था. वह धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यों में भी सक्रिय थे. 793 ई. में उन्होंने सम्राट से अपने चचेरे भाई, कपिसा के ही बौद्ध भिक्षु हुई की मदद करने की अपील की थी. सम्राट की स्वीकृति से हुई और उनके शिष्यों ने एक विशाल बौद्ध ट्रांसलेशन प्रोजेक्‍ट की शुरुआत की थी. इस कैंपेन में संस्कृत सूत्रों का चीनी भाषा में अनुवाद किया गया, इससे बौद्ध धर्म चीन में और गहराई तक फैला. यह पहल भारत और चीन के सांस्कृतिक संबंधों की एक अनोखी मिसाल बनी. हाओ-ह्सिन के मन में एक भारतीय संत प्राजना के लिए काफी सम्‍मान था जो कि कपिसा के ही थे. 

Advertisement

सोंग राजवंश में नया रूप

लुओ हाओ-ह्सिन के जीवन की एक झलक सदियों बाद सोंग राजवंश (960–1279 ई.) के समय पर आए एक नाटक में भी मिलती है जो उस समय पर आधारित था. इसका टाइटल था 'The General's Daughter Becomes a Nun'. हालांकि इस नाटक में लुओ की छवि बदली हुई दिखाई देती है. हालांकि इसमें उन्‍हें एक वफादार सेनापति नहीं, बल्कि दरबार की ओर से अपमानित और निर्वासित किए गए शख्‍स के तौर पर दिखाया गया है. नाटक की कहानी उनकी बेटी पर केंद्रित है, जो पिता के पापों का प्रायश्चित करने के लिए बौद्ध नन बन जाती है. यह साहित्यिक पुनर्कल्पना इस बात को दर्शाती है कि इतिहास में किसी नायक की छवि समय और समाज के हिसाब से बदल सकती है.   

भारत-चीन रिश्तों की झलक

लुओ हाओ-ह्सिन की गाथा हमें यह याद दिलाती है कि भारत और चीन के बीच केवल व्यापारिक सिल्क रूट ही नहीं था, बल्कि विचारों, संस्कृतियों और यहां तक कि सेनाओं का भी आदान-प्रदान होता रहा.  एक भारतीय सेनापति का चीन की सेना में सर्वोच्च पद पाना इस गहरे ऐतिहासिक रिश्ते का जीवंत उदाहरण है. 

Advertisement
Featured Video Of The Day
Zubeen Garg Death Case: अब तक नहीं सुलझी मौत की गुत्थी, परिवाल ने दिया अल्टीमेटम | Khabron Ki Khabar
Topics mentioned in this article