क्या ये अजीब नहीं है कि आप जिस दल को जिताना चाहते हैं, उसके लिए दिन रात मेहनत करने वाले कार्यकर्ताओं के प्रति आपकी कोई सहानुभूति नहीं है. आप दूसरे दल से आए उम्मीदवार को वोट कर देते हैं. हर दल में दलबदल ब्रांच है. दल और दलबदलू दोनों ही मौकापरस्त होते हैं. यह भी सही है कि टिकट बंटने के दो-तीन दिन तक ही दलबदलू और परिवारवाद का मुद्दा हावी रहता है. उसके बाद रैलियां शुरू होते ही सारा मंज़र कुछ और हो जाता है.