भारत में संविधान सुप्रीम है या जातिगत और धार्मिक संगठन. हर महीने दो महीने के अंतराल पर जाति और धर्म के नाम पर कोई संगठन खड़ा हो जाता है और खुद को संविधान और उससे बने कानूनों से ऊपर घोषित कर देता है. ऐसी संस्थाओं को इस तरह की छूट कैसे मिल जाती है कि जब चाहे संविधान की तमाम धाराओं को नदी में प्रवाहित कर आते हैं और खुद अपने आप को व्यवस्था घोषित कर देते हैं. आस्था के नाम पर 90 के दशक में भारत में जो कुछ भी हुआ अब उसकी फ्रेंचाइज़ी खुल गई है. फ्रेंचाइजी खुलने का मतलब है कि जो बड़ी दुकान है वो चुप रहती है और उसकी शह पर छोटी छोटी दुकानें आए दिन खुलती हैं और संविधान को चुनौती देने लगती हैं. ऐसा नहीं है कि इन संस्थाओं के पास सिर्फ ताकत होती है, समर्थन नहीं होता है. बहुत बार बहुत ज़्यादा समर्थन होता है. तो सवाल उठता है कि ये सामान्य और साधारण लोग भी सामाजिक आन बान शान के नाम पर ऐसे संगठनों के पीछे क्यों खड़े हो जाते हैं, क्या उन्हें संविधान से ज़्यादा ऐसे संगठनों की शरण में जाना सुरक्षित लगता है. आप सोचिएगा.