- इलाहाबाद HC ने 20 साल पुराने मामले में ट्रायल कोर्ट की सुस्त कार्यवाही की अनदेखी पर नाराज़गी जताई.
- वरिष्ठ नागरिक श्रीश कुमार मालवीय के खिलाफ 2005 में दर्ज FIR और आरोप पत्र की जांच में अनावश्यक विलंब हुआ है.
- हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को एक महीने के भीतर सुनवाई पूरी करने और आदेश की कॉपी प्रस्तुत करने के निर्देश दिए.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रयागराज से जुड़े 20 साल पुराने मामले में ट्रायल कोर्ट की कार्यप्रणाली पर नाराज़गी जताते हुए उसे फटकार लगाई. कोर्ट ने ये नाराजगी एक वरिष्ठ नागरिक द्वारा दाखिल की गई याचिका पर सुनवाई के दौरान व्यक्त की. हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की सुस्त कार्यवाही पर चिंता जताते हुए तल्ख टिप्पणी की. अदालत ने कहा कि यह एक बहुत ही गंभीर मामला है, जहां करीब 73 वर्ष की आयु के एक वरिष्ठ नागरिक को ट्रायल कोर्ट द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है. प्रथम दृष्टया रिकॉर्ड्स के अवलोकन से ऐसा लगता है कि ट्रायल कोर्ट अपने कर्तव्य निभाने में सुस्त है और अभियोजन पक्ष की ओर से मांगे गए अनावश्यक स्थगन के अलावा कुछ नहीं कर रही है.
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के निर्देशों की अनदेखी
कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट द्वारा जारी निर्देशों की पूरी तरह से अनदेखी की है, जिसमें निर्देश दिया गया है कि पुराने मामलों का जल्द से जल्द निपटारा या फैसला दिया जाए. हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया कि वह इस मामले में दिए गए आदेश की प्रमाणित कॉपी प्रस्तुत करने की तारीख से एक महीने के अंदर सुनवाई पूरी करे. अगर अभियोजन पक्ष अगली निर्धारित तारीख पर कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहता है तो उनके साक्ष्य प्रस्तुत करने का मौका खत्म हो जाएगा.
कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को यह भी निर्देश दिया है कि वह एक महीने बाद इस अदालत को सूचित करे कि इस मामले की सुनवाई पूरी हुई है या नहीं. सख्त लहजे में कहा कि अदालत के पास विभिन्न निर्देशों का पालन न करने के लिए दोषी न्यायिक अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होगा. मामले की अगली सुनवाई 6 जनवरी 2026 को होगी. यह आदेश जस्टिस विवेक कुमार सिंह की सिंगल बेंच ने आवेदक श्रीश कुमार मालवीय की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया.
17 अगस्त 2005 को बुजुर्ग पर दर्ज हुई थी FIR
मामले के मुताबिक, आवेदक श्रीश कुमार मालवीय के खिलाफ 2005 में इलाहाबाद के इंडस्ट्रियल एरिया थाने में मुकदमा दर्ज हुआ था. उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 129 के तहत 9 सितंबर 2005 को ट्रायल कोर्ट में दाखिल आरोप पत्र को रद्द करने के लिए याचिका दाखिल की है. आवेदक के अधिवक्ता ऋतिक कुमार मिश्रा ने कोर्ट में दलील दी कि प्रस्तुत आवेदक लगभग 73 साल के वृद्ध व्यक्ति है. उसके खिलाफ 17 अगस्त 2005 को एक झूठी एफआईआर दर्ज की गई थी. जांच के बाद इस मामले में 9 सितंबर को आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया था. इसके बाद ट्रायल कोर्ट ने 23 दिसंबर 2005 के आदेश द्वारा अपराध का संज्ञान लिया और सात साल बाद 9 सितंबर 2012 को मुकदमे में आरोप तय किए गए. जबकि आवेदक ने आरोपों से इनकार किया.
आवेदक के वकील ने कोर्ट को बताया कि अभियोजन पक्ष का एक भी गवाह गवाही देने अदालत में नहीं आया है और वह पिछले 13 सालों से नियमित रूप से ट्रायल कोर्ट में पेश हो रहे हैं. गवाहों के खिलाफ गैर-जमानती वारंट 6 दिसंबर 2023 को जारी किए गए थे, लेकिन कोई भी गवाह गवाही देने के लिए ट्रायल कोर्ट में पेश नहीं हुआ है. ट्रायल कोर्ट अभियोजन पक्ष के आवेदन/मौखिक प्रार्थना पर अनावश्यक स्थगन देने के अलावा कुछ नहीं कर रही है.
वरिष्ठ नागरिक को ट्रायल कोर्ट ने प्रताड़ित किया
हाईकोर्ट ने सुनवाई करते हुए कहा कि इस मामले में आवेदक पर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 129 के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है, जिसमें अधिकतम सजा छह महीने तक या जुर्माना या दोनों हो सकती है. कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि यह एक बहुत ही गंभीर मामला है, जहां लगभग 73 वर्ष की आयु के एक वरिष्ठ नागरिक को ट्रायल कोर्ट द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है. कोर्ट ने कहा कि जल्द सुनवाई का अधिकार अभियुक्त का मौलिक अधिकार है.
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 1992 द्वारा अब्दुल रहमान अंतुले बनाम आर.एस नायक केस का हवाला दिया, जिसमें माना गया है कि जल्द सुनवाई के अधिकार में जांच की अवधि भी शामिल है. कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से यह स्पष्ट है कि जल्द सुनवाई का अधिकार अभियुक्त का मौलिक अधिकार है और जल्द सुनवाई का अधिकार केवल अदालती कार्यवाही तक ही सीमित नहीं है बल्कि यदि जांच पूरी होने में बहुत अधिक विलंब होता है तो भी अभियुक्त के जल्द सुनवाई के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है. ट्रायल कोर्ट का कर्तव्य है कि वह मुकदमे को जल्द से जल्द पूरा करे.













