यूपी में राजनैतिक दलों की ताक़त धर्म और जाति
Caste Census in UP: मोदी सरकार ने जाति जनगणना (Caste Census in India) का ऐतिहासिक फैसला लिया है. सामाजिक समानता और हर वर्ग के अधिकारों के प्रति उठाए गए इस मजबूत कदम का असर हर राज्य में देखने को मिलेगा. देश में जाति जनगणना कराने के केंद्र सरकार के फेसले का बड़ा असर उत्तर प्रदेश की राजनीति पर भी दिखाई दे सकता है. यूपी की राजनीति मंडल और कमंडल के इर्द-गिर्द घूमती है. ऐसे में सत्ता में बैठी बीजेपी के पास हिंदुत्व के साथ-साथ जातियों को साधने का बड़ा हथियार इस फ़ैसले से मिल गया है.
मंडल और कमंडल के इर्द-गिर्द घूमती यूपी की राजनीति
कमंडल की राजनीति करने वाली बीजेपी सत्ता में मज़बूती से बैठी है. ऐसे में विपक्ष के जातीय कार्ड का एक बड़ा जवाब इस फ़ैसले से बीजेपी को मिल गया है. दो साल बाद साल 2027 में यूपी में विधानसभा चुनाव होना है. ज़ाहिर है तब तक शायद सेंसस ना हो पाये, लेकिन इस मुद्दे को लेकर बीजेपी अगले दो साल सभी जातियों के पास जाएगी और सीधा निशाना कांग्रेस पर साधेगी. देश की सत्ता में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस भले जातीय जनगणना की मांग कर रही हो लेकिन अब बीजेपी कांग्रेस पर ये कह कर हमला करेगी कि आज़ादी के बाद 1951 में कांग्रेस ने जातीय जनगणना नहीं होने दिया। बीजेपी के तमाम पिछड़े नेता 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' का नारा देते रहे हैं. अब वो दलितों और पिछड़ी जातियों को उनकी हिस्सेदारी दिलाने का दावा खुलकर कर सकेंगे.
यूपी में राजनैतिक दलों की ताक़त धर्म और जाति
उत्तर प्रदेश में राजनैतिक दलों की ताक़त धर्म और जाति है. वर्तमान में बीजेपी हिंदुत्व के आधार पर मज़बूत है, तो वहीं पीडीए का नारा देने वाली समाजवादी पार्टी और बीएसपी की ताक़त जातीय समीकरण है. इनके अलावा क्षेत्रीय दलों की एकमात्र ताक़त जाति है. इनमें ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा, डॉ संजय निषाद की निषाद पार्टी, अनुप्रिय पटेल की अपना दल (एस), जयंत चौधरी की आरएलडी, पल्लवी पटेल की अपना दल (करनेवाली) जैसे दलों ने सत्ता में हिस्सेदारी सिर्फ जातियों के बल पर पाई है. यूपी में राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों का दावा है कि मंडल आयोग की सिफ़ारिशें आंशिक तौर पर लागू हुई हैं. ऐसे में पिछड़ो की राजनीति करने वाले सुभासपा से लेकर निषाद पार्टी और अपना दल जैसी पार्टियां एससी/एसटी के साथ साथ पिछड़ों को लोकसभा और विधानसभा में कोटा दिए जाने की मांग उठा सकते हैं.
जनगणना के बाद परिसीमन..!
देश में जनगणना के बाद परिसीमन भी संभावित है. ऐसे में जातीय जनगणना के नतीजों के आधार पर कई मांगें उठाई जा सकती हैं. इसमें एक मांग ये की जा सकती है कि आरक्षण के तयशुदा 50 फ़ीसदी में जातीय आबादी के आधार पर हिस्सेदारी तय की जाये. यूपी की बात करें, तो 50 फ़ीसदी आरक्षित हिस्से में जो 27 फ़ीसदी पिछड़ों, 21 दलितों और दो फ़ीसदी अनुसूचित जनजाति के लिए कोटा तय है, उसमें बदलाव की मांग उठाई जा सकती है. पिछड़े दलित और अल्पसंख्यक यानी पीडीए की बात करने वाली समाजवादी पार्टी का रुख देखना बेहद महत्वपूर्ण होगा. यूपी में जातीय जनगणना की मांग सपा ने सबसे मुखरता से उठाई थी. ऐसे में संभव है कि जातीय जनगणना में जातियों की आर्थिक स्थिति की जानकारी इकट्ठी करने की बात सपा कर सकती है. साथ ही नौकरियों में आरक्षण में जातियों के अनुपात से नौकरी देने के प्रावधान की भी मांग की जा सकती है.
कुछ जातियों की स्थिति को लेकर विवाद
यूपी में लंबे समय से कुछ जातियों की स्थिति को लेकर विवाद है. खासतौर पर पिछड़ी जातियों में आने वाली जातियां ये दावा करती रही हैं कि उनकी स्थिति अनुसूचित जाति की है, लेकिन राजनैतिक कारणों से उन्हें अनुसूचित जाति वर्ग से निकाल फेंका गया. इसमें सबसे बड़ा विवाद निषादों को लेकर जारी है. मुलायम सिंह यादव ने निषादों की 17 उप-जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में भेजने की मंज़ूरी दे दी थी, लेकिन चूंकि राज्यों के पास ये अधिकारी नहीं है कि वो जातियों का स्टेटस बदल सके. इसलिए ये फ़ैसला केंद्र में जाकर अटक गया. यही फ़ैसला सीएम रहते अखिलेश यादव ने भी किया, लेकिन उससे कुछ हासिल नहीं हुआ. ऐसे में जनगणना के आंकड़ों के आधार पर स्टेटस बदलने की मांग में भी तेज़ी आ सकती है.
यूपी में 2 साल तक जाति जनगणना का मुद्दा रहेगा हावी
कुल मिलाकर यूपी की राजनीति में अगले दो साल यानी जब तक चुनाव नहीं होते, तब तक ये मुद्दा प्रभावी दिखाई देगा. एक तरफ़ सीएम योगी आदित्यनाथ अपने कमंडल वाली राजनीति के साथ-साथ मंडल को अपना हथियार बनायेंगे, वहीं विपक्ष अब केंद्र के जातीय जनगणना के फ़ैसले के आधार पर नए तरीके से जातीय समीकरण साधने के प्रयोग करता दिखाई देगा.
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