- मुंबई की 14 वर्षीय लक्ष्मी की मोबाइल की लत के कारण आत्महत्या ने बच्चों में बढ़ती समस्या को उजागर किया है.
- बाल रोग विशेषज्ञ के अनुसार मोबाइल बच्चों के व्यवहार में आक्रामकता और बेचैनी जैसी नशे जैसी लत का कारण बनता है.
- मोबाइल की अधिकता से बच्चों के दिमागी विकास में बाधा आती है, जिससे भाषा और सामाजिक कौशल प्रभावित होते हैं.
मनोरंजन के नाम पर मोबाइल आज बच्चों के बचपन को निगलता जा रहा है. यह एक ऐसी अदृश्य बीमारी का रूप ले चुका है, जिसका असर तब समझ आता है जब बहुत देर हो चुकी होती है. यह कहानी सिर्फ एक परिवार की नहीं, बल्कि आज के हर घर की है, जहां मोबाइल बच्चों के जीवन में धीरे-धीरे जहर घोल रहा है.
मुंबई की 14 वर्षीय लक्ष्मी की आत्महत्या ने इस संकट को एक दर्दनाक चेहरा दिया है. उसके माता-पिता, लालमणी और गुलाब यादव के लिए वह दिन किसी बुरे सपने से कम नहीं था, जब उनकी बेटी ने सिर्फ एक मोबाइल के लिए अपनी जान दे दी. मां ने बताया कि वह आधार कार्ड अपडेट करवाने गई थीं और बेटी ने उनसे फोन घर पर छोड़ने की गुजारिश की थी. जब वे लौटीं, तो दरवाजा अंदर से बंद था. पड़ोसियों की मदद से दरवाजा खोला गया और लक्ष्मी को फंदे से लटका पाया गया.
पिता गुलाब यादव कहते हैं, “काश हमने स्मार्टफोन की जगह एक साधारण फोन लिया होता.” यह घटना एक चेतावनी है कि मोबाइल अब सिर्फ एक गैजेट नहीं, बल्कि एक लत बन चुका है.
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. इरफ़ान अली बताते हैं, “मोबाइल एक नशे की तरह काम करता है जैसे नशे में इंसान आक्रामक हो जाता है, वैसे ही बच्चे भी मोबाइल के बिना बेचैन और हिंसक हो रहे हैं.
एकता, जो अपने छह साल के बेटे देवांश को स्पीच थेरेपी के लिए रोज क्लिनिक ले जाती हैं, बताती हैं कि उनके बेटे को एक साल की उम्र से मोबाइल की लत लग गई थी. “मोबाइल न देने पर वह दीवार पर सिर पटकता था,” उन्होंने कहा कि अब उसे सामान्य भाषा सिखाने के लिए महंगी थेरेपी का सहारा लेना पड़ रहा है.
थेरेपिस्ट तन्वी सांघवी कहती हैं, “बचपन के पहले तीन साल दिमागी विकास के लिए बेहद अहम होते हैं. इस दौरान ज़्यादा स्क्रीन टाइम से बच्चों में बोलने की देरी, मोटर स्किल्स की कमी और सामाजिक व्यवहार में बाधा आती है.
कोविड के बाद बढ़ी समस्या
मनोचिकित्सक जुही आचार्य और ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट डॉ. चेतना गोरावाला के अनुसार, कोविड के बाद ऑनलाइन क्लासेज़ ने बच्चों में मोबाइल की लत को और बढ़ा दिया है. एक सर्वे के मुताबिक, 50% माता-पिता मानते हैं कि मोबाइल की लत के कारण उनके बच्चे गुस्सैल और हिंसक हो गए हैं.
यह सिर्फ एक तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि एक गहरा मनोवैज्ञानिक और सामाजिक संकट है. सवाल यह है कि क्या हम अपने बच्चों को एक स्वस्थ बचपन दे रहे हैं या उन्हें एक ऐसे डिजिटल जाल में धकेल रहे हैं, जिससे बाहर निकलना बेहद मुश्किल होता जा रहा है?