नदी सिंदूरी: पीछे छूटे गांव को शब्दों से खींचते शिरीष खरे

सिंदूरी नदी के किनारे बसे गांव मदनपुर की कहानियों को सामने लाते शिरीष खरे हमें अवधेश, बसंत, खूंटा जैसे किरदारों के पास ले जाते हैं.

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'एक देश बारह दुनिया' किताब से चर्चा में आए लेखक शिरीष खरे की 'नदी सिंदूरी' आपको गांव के रहन सहन से वाकिफ कराती जाएगी. सिंदूरी नदी के किनारे बसे गांव मदनपुर की कहानियों को सामने लाते शिरीष खरे हमें अवधेश, बसंत, खूंटा जैसे किरदारों के पास ले जाते हैं. गांव में जातिवाद के मकड़जाल को शिरीष कुछ इस तरह लिखते हैं कि दलित बसंत एक दिन गांव का हीरो है तो एक दिन ऊंची जाति के लोगों के सामने सर उठाने की वजह से वो अधमरा है. खुद के किशोर जीवन की कहानी शिरीष ने जिस तरह लिखी है उससे एक किशोर मन में चल रही उथल पुथल से भी पाठक परिचित होते जाते हैं.

किताब की शुरुआत ऐसी कि पाठक शब्दों में ही खो जाएं

शिरीष खरे की लिखी किताब प्रतिष्ठित राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आई है. किताब का आवरण चित्र बड़ा ही आकर्षक है, नदी में चलती नाव को देख पाठक मानो किसी गहरी सोच में डूब जाते हैं. पिछले आवरण में लेखक के परिचय के साथ सुप्रसिद्ध कथाकार रणेन्द्र की किताब पर टिप्पणी है. जितने विस्तार से किताब की भूमिका लिखी गई है, ऐसी कम ही किताबों में पढ़ने को मिलती है. इनमें लेखक कहानियों के तैयार होने की परिस्थितियों के बारे में बताते हैं, साथ ही वह अंग्रेजी, उर्दू शब्द प्रयोग किए जाने की वजह भी पाठकों के साथ साझा करते हैं.

'इतिहास दोहराता है पर नदियां सूख जाए तो जीवन खत्म हो जाता है, कुछ भी दोहराने लायक नहीं बचता है' पंक्ति हमारे समाज में नदियों का महत्व सामने लाती है. किताब की तेरह कहानियों में से पहली कहानी 'हम अवधेश का शुक्रिया अदा करते हैं' गांव के जीवन पर लिखी गई, रामलीला को केंद्र में रखकर लिखी इस कहानी में हम पढ़ते हैं कि कैसे गांव में लोग एक दूसरे के जीवन में दखल देते रहते हैं. किताब की शुरुआत से ही इसके किस्से कहानियों में डूब जाने का मन करता है और यह उन किताबों में है, जिन्हें आप लगातार बैठ कर कुछ घण्टों में पूरी पढ़ सकते है.

लेखक के बचपन के किस्से, पीछे छूटी पर्यावरण से नज़दीकी

'कल्लो तुम बिक गई' कहानी दिल छूने वाली है. 'जब कोई दुख में डूब जाता है तो अंधेरा बेमानी हो जाता है' जैसी पंक्ति से लेखक जीवन के अनुभवों को पाठकों के लिए छोड़ जाते हैं. मशीनों और यंत्रों की वजह से हम पर्यावरण से कितने दूर हो गए हैं, यह दिखाने के लिए लेखक टीवी का सहारा लेते हैं और कहानी में यह लिखते हैं कि कैसे टीवी आने के बाद वह अपनी गाय से दूर हो जाते हैं.

'कल्लो जब बछड़ा जनती थी तब हमें हमारे साथ खेलने के लिए नया भाई मिल जाता' पंक्ति से हम इंसानों और जानवरों का वह रिश्ता महसूस करते हैं, जो अब कहीं खो सा गया है. 'हां, इस भूसे में हम कच्चे सीताफल, आम केले दबाकर रखा करते थे पकने के लिए' लेखक का अपने गांव की यादों से जुड़ा एक किस्सा है, जो अपना गांव छोड़ चुके लोगों को अपनी अपनी यादों में खोने पर मजबूर कर देगा.

'डरियो तो डरियो, मनो अब मत डरियो' किस्सा लिखते लेखक ने जिस तरह अपने बचपन को याद किया है, उसे पढ़ते बहुत से पाठकों को भी अपना बचपन याद आ जाएगा. मदनपुर और तेंदूखेड़ा के बीच की कहानी लेखक ने जिस तरह से अपनी यादों में सजा कर रखी है, ठीक वैसे ही मदनपुर और तेंदूखेड़ा न जाने कितने पाठकों की यादों में बसे होते हैं, किताब पढ़ते पाठकों को वह सब याद आते रहेंगे.

किताब में हमें पालतू जानवरों की आवश्यकता के बारे में भी बताया गया है और अब कम हो चुके इस चलन के बीच इसे पढ़ना जरूरी है.

बचपन की याद के साथ, सामाजिक तानेबाने की चिंता

'रामदई हमने टीबी नही देखी' कहानी से लेखक गांव की दिल के करीब यादों से बाहर आते दिखे हैं, जब उन्होंने अपनी कहानी में मुग्धा पात्र को जगह दी है. मुग्धा पात्र के जरिए लेखक तब गांव में व्याप्त जातिवाद को पाठकों के सामने लेकर आते हैं जब वह लिखते हैं कि मुग्धा स्कुल में बाकी बच्चों के साथ खाना नही खाता था.

'समाज प्रदूषित होता तो नदी भी प्रदूषित होगी' पंक्ति का अर्थ बहुत गहरा है और देश की लगभग सभी नदियों की दुर्दशा का कारण हमारे सामने रखती है.

'खूंटा की लुगाई भी बह गई' कहानी में लेखक ने गांव में विधवाओं की सामाजिक स्थिति पर लिखा है.


याद बिल्कुल साफ, लोगों के पहनावे का वर्णन ऐसा की वो सामने नज़र आए

लेखक ने अपने बचपन में जिन लोगों को सामने देखा, उनमें कुछ उनकी यादों में बसे रहे. उनके डील डौल का वर्णन लेखक कुछ ऐसे करते हैं कि पाठकों के मन में भी उनकी छवि बिल्कुल साफ बन जाए, यह किताब के सबसे मजेदार किस्से लगते हैं.

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'बिलथारी वाला ऐसा दुबला था जैसे शरीर पर नहीं बल्कि हैंगर पर कपड़े टांगे कोई कंकाल गांजे की चिलम की तर्ज पर बीड़ी खींचे जा रहा हो' इसका पहला उदाहरण है.

'धन्ना का रंग और उसका पहनावा इस सीमा तक काला था कि धन्ना उसका लाभ उठाते हुए देखते ही देखते अंधेरे में विलीन हो सकता था' में धन्ना का रंग पाठकों के मन में खुद ही बनते जाता है.

बसंत के बारे में लिखा है, नीचे पुलिसिया बूट और ख़ाकी रंग का पैंट. किताब में बुंदेली का प्रयोग बहुत सी जगह किया गया है और इसे पढ़ते हुए अलग ही आनन्द आता है. कहानियों में अंत तक रुचि बने रहती है, पात्रों से पाठक भी बना लेंगे पहचान.

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किताब की लगभग हर कहानी में आखिर तक क्या होने वाला है, इसका रोमांच लेखक ने बड़ी खूबी के साथ बनाए रखा है. गांव में व्याप्त जातिवाद, दहेज प्रथा और राजनीति को इसकी कहानियों में जगह दी गई है.

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'जब कछु नही तो चोरी ही सई' यह एक ऐसी कहानी है जहां आपको लगता है की किताब की एक कहानी दूसरी से जुड़ी है क्योंकि अवधेश जैसे पात्र के बारे में आप आगे पढ़ते रहते हैं. किताब में शामिल कुछ पात्रों के किस्सों को ऐसे रचा गया है कि उनके नाम आपको सालों तक याद रहेंगे जैसे कि अवधेश, अवधेश की ढोलक की थाप आप कभी नहीं भूलेंगे.

कहानियों के पात्रों की दोस्ती पाठकों के साथ बड़ी खूबी के साथ कराने की कला शिरीष खरे से सीखी जा सकती है. दीक्षित सर जैसे पात्र हर पाठक को अपनी पहचान के लगेंगे, यादव मास्साब के खड़े होने का तरीका जिस तरह से लिखा गया है वह उस दृश्य को आंखों के सामने लेकर आ जाता है. यादव मास्साब द्वारा बच्चों को सामूहिक भागीदारी और बराबरी का पाठ सिखाना ही वह वजह लगती है, जिससे लेखक ने यह शानदार किताब पाठकों के लिए लिखी.

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'हमने उनकी सई में फाड़ दई' किस्से को पढ़ना किसी बॉलीवुड एक्शन फिल्म को देखना जैसा है. चबूतरे पर चढ़ कर बोला गया बसंत का डॉयलॉग शानदार है, बसंत के जरिए लेखक ने फिर से गांव में होते जातिभेद को लिखा है.

एक नदी के किनारे कैसे कोई सभ्यता खुद को आगे बढ़ाती है, उससे जुड़े लोगों की उस नदी के आसपास हुई घटनाओं, क्षेत्रों से इतनी यादें जुड़ी होती हैं कि वे चाहकर भी कभी उस नदी से जुड़ी यादों को भुला नही पाते. शिरीष खरे ने इन सब को बहुत ही नाटकीय अंदाज़ में लिख डाला है, जिसे अपने बचपन, जवानी या यूं कहें कि अपने जीवन को एक बार याद करने के लिए सभी को जरूर पढ़ना चाहिए.

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