पुस्तक समीक्षा: बीवी कैसी होनी चाहिए, सामाजिक बुराइयों को सामने लाती एक किताब

मुहम्मद अली रूदौलवी द्वारा लिखे इन कहानियों और पत्रों का सम्पादन एवं संकलन शुऐब शाहिद द्वारा किया गया है. विक्रम नायक द्वारा तैयार किताब का आवरण चित्र, किताब के नाम की तरह ही रोचक है.

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किताब का आवरण चित्र, किताब के नाम की तरह ही रोचक है.

'हर मुआमलों में खुद को होशियार नही समझना चाहिए, मैं भी नही समझता. उर्दू समझने से मेरा दूर तक कोई वास्ता नही है' कोई हिंदी भाषी यह बोले तो वो सरासर झूठ बोल रहा है क्योंकि हिंदी में तो उर्दू शब्दों की भरमार है. रेख्ता बुक्स और राजकमल प्रकाशन ने किताब छापी है 'बीवी कैसी होनी चाहिए' आप इस किताब को पढ़ेंगे तो कुछ उर्दू शब्दों को छोड़कर आपको लगभग पूरी किताब समझ आ जाएगी, यह किताब किसी खजाने से कम नही है.

इसके सामाजिक बुराइयों को बयां करते किस्सों में चाय की दुकान पर बैठकर ,किसी के बारे में बातें बनाने जैसे चटकारे हैं. इसमें खतों के जरिए अपने दिल के हालातों को बयां करने का तरीका है, जो लिखने और सीखने वालों के लिए लर्निंग बूस्टर सा है.

'मेरे बच्चों के नाम जो इस बुढ़ापे में मुझ से दूर जा बसे' किताब की शुरुआत में लिखी यह पंक्ति इस ओर इशारा करती है कि किताब इंसानी रिश्तों पर लिखी गई है. किताब के शीर्षक वाली कहानी इसकी पहली कहानी ही है.

समाज में स्त्रियों की स्थिति पर लिखी पहली कहानी.

'औरत में तराशे हुए हीरे की तरह हजारों पहलू होते हैं और हर पहलू में आफताब एक नए रंग से मेहमान होता है' इसके जरिए लेखक ने औरत की तुलना बड़ी ही खूबसूरती के साथ हीरे के साथ कर ली है. पुरुष अगर महिला को खुद के साथ हमेशा बनाए रखे, उसका सम्मान करे तभी वह सफलता की सीढ़ी चढ़ सकता है और इसे कहने के लिए लेखक ने पृष्ठ 14 में लिखा है 'चूंकि दो दो आदमी मिले हुए थे इसलिए उनकी कुव्वतें भी दोगुनी थी', किताब का आवरण चित्र भी इन्हीं शब्दों से प्रेरित है. पुरुषवादी समाज के वर्चस्व और स्त्रियों की समाज में बुरी स्थिति पर लेखक ने अपनी यह कहानी केन्द्रित रखी हैं.

भारत की अधिकांश महिलाएं घरेलू हिंसा के बावजूद सब कुछ सहती रहती है और कभी कुछ कहती नहीं है. इन सब के बावजूद पुरुषों की खातिर में ही लगी रहती हैं, इसी पर व्यंग्य करते पृष्ठ 18 में लेखक लिखते हैं 'देखा तो एक तरफ का गाल सूजा हुआ है, आंख की लाली बावजूद मुंह धोने के अभी मिटी नहीं है. हाल तो सब पहले से ही जानती थी, मगर अनजान बनकर पूछने लगी 'ए बहन ये क्या हुआ? जवाब मिला- बहन, क्या कहें! आप भी लड़ें, आप ही खफा होकर चले गए, खाना भी नही खाया'.

जगह जगह शेरों का प्रयोग बढ़ाता है खूबसूरती, साथ में खूबसूरती को समर्पित पंक्तियां

लेखक ने किस्सों के बीच शेरों का प्रयोग भी किया है, जो उनके लिखे किस्सों पर सटीक बैठता है, जैसे पृष्ठ संख्या 18 में मियां बीवी के झगड़े से जोड़कर गालिब के इस शेर को लिखा गया है 'कभी जो याद भी आता हूं तो वो कहते हैं कि आज बज़्म में कुछ फ़ित्ना-ओ-फसाद नही'.

'तीसरी जिंस' में खूबसूरती पर लिखी यह पंक्तियां वाट्सएप, फेसबुक के कॉपी- पेस्ट वाले जमाने में याद दिलाता है कि पहले लोग कितना शानदार लिखते थे- 'आंखे बड़ी न थी मगर जब निगाह नीचे से ऊपर करती थी तो वाह-वाह. मालूम होता था मंदिर का दरवाजा खुल गया, देवी जी के दर्शन हो गए'.

खत लिखने बैठा और थोड़ा सा लिखा भी, उसके बाद रह गया. आज तीन रातों से फिर नहीं सोया हूं. खत में लिखे यह शब्द दिखाते हैं कि जब लिखने वालों के दिन हुआ करते थे, तब वह एक एक शब्द को कितनी मेहनत से लिखा करते थे.

तीसरी जिंस पढ़ने के लिए आम हिंदी पाठक को किस्से के अंत में दिए गए उर्दू शब्दों के हिंदी अर्थ का सहारा कुछ ज्यादा ही लेना पड़ेगा लेकिन फिर भी उनको हमारे समाज में महिलाओं की दोयम दर्जे वाली स्थिति का अंदाज तो लगता रहेगा.

आगे भी जारी रहा सामाजिक बुराइयों पर व्यंग्य

लेखक ने अपनी इन कहानियों और किस्सों में हमारी सामाजिक संरचना के दोष सामने लाने में कोई कसर नही छोड़ी है.
'दूर का निशाना' की पहली पंक्ति 'लाला बंसीधर थे तो जात के बनिए और वो भी किशोर धन जो बनियों में ऊंची जात नही समझी जाती है' के जरिए लेखक भारत में जातिवाद की जड़ों की गहराई पाठकों के सामने लेकर आते हैं.

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किसी किताब को लिखते पात्रों के ऊपर कैसे लिखा जाता है, यह हम पृष्ठ संख्या 46, 47 में देख सकते हैं, जहां लेखक ने लाला बंसीधर के डील-डौल, व्यवहार, सामाजिक ओहदे पर बड़े ही विस्तार से लिख डाला है. जैसे, 'हुस्न-ए-इत्तेफाक से हुस्न परस्त भी वाके हुए थे'. इस किस्से का अंत बड़ा रोचक है. जिस पात्र का पूरे किस्से में लेखक द्वारा बखान किया गया है, अंत में उसकी परीक्षा की घड़ी पढ़ने योग्य है. कर्ज रूपी अभिशाप पर इस किस्से को लेखक द्वारा इस खूबी से लिखा गया है कि अंत में पहुंच कर ही पाठकों को यह समझ आता है कि कर्ज का बोझ कितना भारी होता है.

इंसान पर उसके सामाजिक ओहदे पर इतनी बारीकी से शायद ही कहीं पढ़ने को मिलता है. इंसान अपनी बदलती सामाजिक स्थिति को बदलते देख क्या सोचने लगता है, यह लेखक ने पृष्ठ 59 में बिल्कुल जैसा का तैसा लिखा है 'एक वक्त था कि हमारा तआरुफ़ लोगों से इस तरह करवाया जाता था कि फुलॉ के बेटे हैं, फुलॉ के दामाद हैं और अब ये जमाना लगा है कि फुलॉ के बाप हैं और फुलॉ के ससुर हैं, मगर हम चिकने घड़े, हमारी समझ ही नही आता कि हम वो नहीं रहे.' 'गुनाह का खौफ' किस्से में अब्दुल मुगनी साहब के बारे में जिस तरह लेखक ने लिखा है उससे हर व्यक्ति कोर्ट में मुकदमेबाजी की नौबत आने पर उन्हें ही खोजेगा.

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मन लगाने वाले किस्से और रोमांचित करते 'खत'

किताब के लगभग हर किस्से बड़ी तेजी से आगे बढ़ते हैं और उनको पढ़ने में 'आगे क्या' वाला रोमांच बना ही रहता है. हर किस्से कहानी से इंसानी जीवन की सीख मिलती रहती हैं.

लेखक ने किस्सों को ऐसे लिखा है जैसे वो इन किस्सों को दस लोगों को अपने पास बैठाकर सुना रहे हों, 'गुनाह का खौफ' किस्से की पहली पंक्ति ही पाठकों का ध्यान किस्से में लगा देती है 'अब्दुल मुगनी साहब ने मुख्तारी के पेशे में वो नाम पैदा किया कि डिप्लोमा वाले वकील-बैरिस्टर क्या करेंगे.'

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पत्रों के संकलन में पहला खत बेटी के नाम है, साल 1930 के आसपास लिखे इन खातों में तब के अल्मोड़ा का जिक्र है. जिसे पढ़ते अभी भी वहां रहने वाले लोग रोमांचित हो उठेंगे 'एक सड़क जेल को गई है और दूसरी ईसाइयों के सिनेटोरियम को गई है' पंक्ति से इसका अनुमान लग जाता है.'

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