मायावती ने उत्तर प्रदेश की जगह नागपुर से चुनाव अभियान की शुरुआत क्यों की?

14 अक्टूबर 1956 को  नागपुर की दीक्षाभूमि में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर अपने 3 लाख 65 हजार समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था. मायावती ने नागपुर से चुनावी सभा की शुरुआत कर क्या संकेत दिए हैं?

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बहुजन समाज पार्टी (Bahujan samaj party) की नेता मायावती ने गुरुवार की शाम नागपुर में एक चुनावी सभा को संबोधित किया. नागपुर के इंदौरा के बेजानबाग में मायावती की लोकसभा चुनाव 2024 के लिए पहली जनसभा थी. उत्तर प्रदेश पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश के बाद महाराष्ट्र ही वो राज्य है जहां किसी समय में बसपा का जनाधार रहा है. हालांकि हाल के दिनों में चुनावी राजनीति में बसपा लगातार पिछड़ती दिख रही है.

बसपा पूरे देश में अकेले चुनाव मैदान में है. इस चुनाव में साल 2014 के तर्ज पर मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने के फैसला लिया है. ऐसे में ये सवाल उठ रहे हैं कि उत्तर प्रदेश जहां से मायावती कई बार सीएम रह चुकी हैं उसे छोड़कर मायावती ने नागपुर को क्यों चुना?

नागपुर की सभा के माध्यम से दलित वोटर्स को बड़ा संकेत
नागपुर भारत में दलित राजनीति के लिए एक प्रमुख स्थल के तौर पर रहा है. 14 अक्टूबर 1956 को  नागपुर की दीक्षाभूमि में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर अपने 3 लाख 65 हजार समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था. इसके माध्यम से उन्होंने कई किताबें और लेख लिखकर दलितों के लिए बराबरी की बात कही थी.  अंबेडकर के सिद्धांतों पर चलकर कांशीराम ने बसपा को देश के गांव-गांव तक पहुंचाया था. मायावती और बसपा के लिए दलित वोट बैंक ही आधार रहा है. हालांकि समय के साथ उस वोट बैंक में बीजेपी ने बड़ी सेंध लगायी है. ऐसे में ये सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह अपने से दूर जा रहे दलित वोट बैंक को साधने की यह एक कोशिश है? 

हिंदुत्व की राजनीति के बीच अपने कोर वोटर्स को संभालने की कोशिश
देश भर में हुए हाल के कुछ चुनावों में देखा गया है कि बीजेपी के पक्ष में थोक के भाव दलित वोट पड़े हैं. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी दलितों के एक बहुत बड़े वर्ग का झुकाव बीजेपी की तरफ देखा गया. मायावती के आलोचकों और विरोधियों का कहना रहा है कि मायावती पूरे दलित समाज के बदले सिर्फ जाटव समाज का प्रतिनिधित्व करती है. हालांकि एक दौर ऐसा रहा है जब न सिर्फ उत्तर प्रदेश में बल्कि देश के कई राज्यों में मायावती के एक ऐलान पर दलितों मतों का एक बड़ा हिस्सा वोट करता रहा था. ऐसे में मायावती ने अपनी राजनीति को एक बार फिर उत्तर प्रदेश से बाहर निकालकर राष्ट्रीय स्तर पर रखने की कोशिश की है. 

कभी बीजेपी और कांग्रेस का विकल्प दिख रही बसपा आज हाशिये पर
1990 और 2000 के दशक में देश के कई राज्यों में बहुजन समाज पार्टी का विस्तार देखने को मिला. उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में बसपा के उम्मीदवार राजनीति को प्रभावित करते रहे थे. कांशीराम के बाद भी मायावती के नेतृत्व में कई जगहों पर बसपा को अच्छी सफलता मिली.हालांकि हिंदुत्व की राजनीति के 2014 में व्यापक उभार के बाद मायावती और बसपा हाशिये पर जाति हुई दिख रही है. 

अंबेडकर की विरासत पर दावेदारी के लिए संघर्ष
हाल के दशक में देश भर में अंबेडकर की राजनीति के तरफ से बीजेपी और अन्य दलों का रुझान बढ़ता रहा है. कई चुनावी सभाओं में भी पीएम मोदी ने अंबेडकर को सम्मान न देने के लिए कांग्रेस पर हमला बोला है. आम आदमी पार्टी की तरफ से भी दिल्ली और पंजाब में अंबेडकर को आगे कर राजनीति होती रही है. ऐसे में मायावती एक बार फिर से अंबेडकर की राजनीतिक विरासत पर अपने दावे को मजबूत करने के लिए नागपुर पहुंची. 

कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रही हैं मायावती
पिछले चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद मायावती की पार्टी बसपा को एक साथ कई मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ रहा है. एक तरफ बसपा के लिए यह चुनाव अस्तित्व के संकट के तौर पर है. वहीं दूसरी तरफ उसके वोट बैंक पर कई दलों की तरफ से दावे किए जा रहे हैं.  उत्तर प्रदेश में जहां चंद्रशेखर आजाद की नजर बसपा के वोट बैंक पर है. वहीं पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की नजर बसपा के पुराने वोट बैक पर रही है. उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में बसपा के वोटर्स तेजी से बीजेपी की तरफ शिफ्ट हो रहे हैं. ऐसे में पूरे देश भर में एक व्यापक संदेश देने के लिए मायावती ने चुनावी सभा की शुरुआत नागपुर से की है. 

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