चार्टशीट को लेकर SC के फैसले से पीड़ित, आरोपी और जांच एजेंसी को भी फायदा : सुप्रीम कोर्ट के वकील

सुप्रीम कोर्ट के वकील करन भरिहोक से NDTV ने की खास बातचीत, उन्होंने कहा- ट्रांसपेरेंसी और बैलेंस लाने के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण फैसला है.

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सुप्रीम कोर्ट के वकील करन भरिहोक.

नई दिल्ली:

आपराधिक मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) का एक बड़ा फैसला आया है. सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि आपराधिक मामलों में चार्ज शीट यानी आरोप पत्र कैसा होना चाहिए. यह बड़ा फैसला क्रिमनल ट्रायल के मामलों में अदालतों को सुविधा देगा, और न्याय प्रक्रिया के बाकी हिस्सों को भी राहत देगा. इस फैसले को लेकर NDTV ने सुप्रीम कोर्ट के वकील करन भरिहोक से खास बातचीत की.
                    
सुप्रीम कोर्ट के वकील करन भरिहोक से यह पूछने पर कि इस फैसले के क्या मायने हैं और इससे कानूनी रूप से खुद को निर्दोष मानने वाले लोगों को क्या फायदा होगा? उन्होंने कहा कि, ''हमारा जो क्रिमनल जस्टिस का सिस्टम है, यह एक तिकोना सिस्टम है. इसमें एक अपराधी होता है, एक शिकायत करने वाला है और एक निष्पक्ष प्रोसीक्यूशन है, जिसे उस केस को लड़ना है. उसे यह तय करना है कि इस मामले में कुछ है भी या नहीं. क्रिमनल जस्टिस सिस्टम को बैलेंस करने के लिए जो क्रिमनल प्रोसीजर कोर्ट है, उसने कुछ नियम-कायदे बनाए हैं. इसमें से एक रूल है कि पुलिस कितना इनवेस्टीगेट करेगी. कब तहकीकात करके आरोप पत्र दायर करेगी. उस आरोप पत्र में क्या-क्या होगा. धारा 173 इसे परिभाषित करती है कि आरोप पत्र में क्या-क्या होना चाहिए. मामला क्या है, आपको क्या लगता है कि कौन-कौन इस घटना के बारे में जानता है. उनमें से कौन आपको लगता है कि अपराधी है, जिसके खिलाफ कोई एक्शन लिया जाना चाहिए. यदि वह अपराधी है तो क्या उसे अरेस्ट किया था. यदि अरेस्ट किया था तो क्या मजिस्ट्रेट के सामने ले जाकर उसको बॉन्ड पर रिलीज किया गया था. यदि वह 376 या क्राइम अगेंस्ट वूमेन पर आधारित कोई अपराध है तो उसमें क्या उसकी कोई मेडिकल रिपोर्ट हुई थी. 173 यह सब डिफाइन करता है.'' 

उन्होंने कहा कि, ''हर स्टेट का एक पुलिस मेनुअल भी होता है, जो 173 के साथ पढ़ा जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में नोटिस किया कि बहुत सारे स्टेट में इन सब चीजों के बगैर भी आरोप पत्र दायर किए जा रहे थे. अपूर्ण आरोप पत्र दायर किए जा रहे थे. किसी में आरोपी का नाम नहीं है, किसी में क्या घटना है, तहकीकात हुई है, रिमांड हुआ था, क्या सबूत है, मटेरियल क्या है... 173 के हिसाब से इस कोर्ट ने फिर दोहराया है कि आपका काम एज ए प्रोसीक्यूशन, एज ए इनवेस्टीगेशन एजेंसी, एज पुलिस, सिर्फ आरोप पत्र दायर करना नहीं है. उस पर आपको अपना ओपीनियन एज इनवेस्टीगेशन आफीसर भी देना है कि आपके हिसाब से कोई अपराध हुआ है या नहीं. अगर आपको लगता है कि कोई अपराध नहीं हुआ है तो उस केस में क्लोजर रिपोर्ट या समरी फाइल होती है.  लगता है कि अपराध हुआ है, तो आरोप पत्र दायर होता है.'' 

भरिहोक ने कहा कि, ''आरोप पत्र जब कोर्ट के पास जाता है, तो वह उसी मटेरियल के साथ जाता है जो 173 में बताया गया है. उसी के आधार पर कोर्ट किसी नतीजे पर आता है, कि चार्जशीट के आधार पर चार्ज फ्रेम करना है या नहीं. ट्रायल चलेगी या नहीं. आरोप पत्र पर सब कुछ निर्भर करता है, बेल है, रिमांड है.. और तहकीकात होनी है कि नहीं होनी है. कोर्ट के सामने जो मटेरियल रखा जाएगा उसी के बेस पर फैसला होगा.'' 

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सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता ने कहा कि, ''कोर्ट ने दो पार्ट में जजमेंट दिया है. पहले में उन्होंने 173 को इंटरप्रेट किया है, पहले के जजमेंट को लेकर, 173 की लैंग्वेज को लेकर.. कहा है कि एक आरोप पत्र में क्या-क्या होना चाहिए. और इस हद तक होना चाहिए कि कोर्ट उसमें स्ट्रांग सस्पेशन पर फैसला ले सके. दूसरे पार्ट में जो एक्चुअल फैक्ट थे इस बैच ऑफ रिट पिटीशन में, उनके अंदर जाकर, उस लॉ को एप्लाई करके कोर्ट ने उदाहरण दिए हैं कि किस-किस मामले में आरोप पत्र कम्पलीट नहीं था और इस हद तक कम्पलीट नहीं था कि उसके बेसेस पर जो समन इशू किए गए, वह भी खत्म कर दिए गए.'' 

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उन्होंने कहा कि, ''सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला है, यह तीनों समूहों आरोपी, पीड़ित और प्रोसीक्यूशन के लिए है. ट्रांसपेरेंसी और बैलेंस लाने के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण फैसला है. इस फैसले में बहुत सारी ऐसी चीजें कह दी हैं जो आगे पीड़ित को तो फायदा देंगी ही, आरोपी को भी फायदा देंगी. जांच एजेंसी को भी फायदा देंगी.'' 

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