लगभग 10 मीटर की लंबाई और ठीक इतना ही डायमीटर वाले सुरंग में तेलंगाना में 8 जिंदगी कैद हो गई हैं. राहत और बचाव कार्य युद्ध स्तर पर जारी है. केंद्र से लेकर राज्य सरकार की तरफ से हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं. उत्तराखंड में 2023 में फंसे निर्माण मजदूरों को बचाने वाले रैट माइनर्स को भी मौके पर लगाया गया है. लेकिन चुनौती गंभीर है. उत्तराखंड के सिलक्यारा सुरंग में फंसे मजदूरों के लिए हुए ऑपरेशन से अधिक चुनौतीपूर्ण ऑपरेशन यह होने वाला है. आइए जानते हैं यह हादसा किस तरह से उत्तराखंड की घटना से भी अधिक गंभीर है और कौन-कौन से चैलेंज मजदूरों की जान बचाने के ऑपरेशन में आने वाले हैं.
तेलंगाना की घटना उत्तराखंड से कैसे अलग है?
तेलंगाना का यह हादसा कुछ मायनों में उत्तराखंड के सिल्क्यारा सुरंग हादसे से मिलता-जुलता है. 12 नवंबर 2023 को उत्तरकाशी में चारधाम प्रोजेक्ट के तहत बन रही सिल्क्यारा-बरकोट सुरंग का 60 मीटर का हिस्सा ढह गया था, जिसमें 41 मजदूर फंस गए थे. उस घटना में भी मलबा हटाना और मजदूरों तक पहुंचना एक बड़ी चुनौती थी. लेकिन 17 दिनों की कड़ी मशक्कत के बाद सभी मजदूरों को सुरक्षित निकाल लिया गया था. उस बचाव अभियान में ऑगर मशीन, वर्टिकल ड्रिलिंग और रैट माइनिंग जैसी तकनीकों का इस्तेमाल हुआ था.
तेलंगाना का हादसा कुछ अलग चुनौतियां पेश कर रहा है. जहां उत्तराखंड में मलबा सूखा और चट्टानी था, वहीं तेलंगाना में कीचड़ और पानी की मौजूदगी ने हालात को जटिल बना दिया है. सुरंग के 11-13 किलोमीटर के बीच पानी जमा होने की बात सामने आई है, जिसके कारण मशीनों का इस्तेमाल सीमित हो गया है. उत्तराखंड में मलबे की मोटाई करीब 60 मीटर थी, जबकि तेलंगाना में यह सिर्फ लगभग 200 मीटर है. सबसे अहम बात यह है कि उत्तराखंड में जिस जगह पर मजदूर फंसे थे वहां उनके पास लगभग 200 मीटर की जगह थी. वहीं तेलंगाना में मात्र 10 मीटर का जगह मजदूरों के पास है. इतने कम जगह में जिंदगी बचाने की जंग लड़ना उनके लिए बेहद कठिन साबित हो रहा होगा.
वीडियो में आप देख सकते हैं कि जिस इलाके में यह घटना हुई है वो पानी वाला इलाका है. जिस कारण परेशानी अधिक बढ़ गयी है.
बचाव अभियान में किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
हादसे के बाद तेलंगाना सरकार ने तुरंत बचाव अभियान शुरू किया. चार विशेषज्ञ टीमें मौके पर पहुंचीं, जिनमें सेना, एनडीआरएफ (राष्ट्रीय आपदा मोचन बल), और स्थानीय प्रशासन शामिल हैं. साथ ही, उन विशेषज्ञों की मदद ली जा रही है, जिन्होंने उत्तराखंड के सिल्क्यारा हादसे में हिस्सा लिया था. लेकिन कई तकनीकी और प्राकृतिक बाधाएं राह में खड़ी हैं.
- कीचड़ और पानी का जमावड़ा: सबसे बड़ी चुनौती है कि सुरंग के भीतर पानी और कीचड़ की वजह से मशीनों का इस्तेमाल मुश्किल हो रहा है. ऑगर मशीन, जो उत्तराखंड में कारगर रही थी, यहां पानी के कारण प्रभावी नहीं हो पा रही.
- दुर्गम रास्ता : हादसे का स्थान सुरंग के प्रवेश द्वार से काफी अंदर है. जिसके कारण भारी मशीनों को ले जाना और वहां तक पहुंचना एक बड़ी समस्या है.
- मजदूरों से नहीं हो रहा संपर्क: मजदूरों से कोई संदेश या जवाब न मिलना बचाव टीम की चिंता बढ़ा रहा है. इससे यह अनुमान लगाना मुश्किल हो रहा है कि वे कहां और किस हालत में हैं.
- समय की कमी: हर गुजरता पल मजदूरों के लिए ऑक्सीजन और भोजन की कमी को खतरनाक बना रहा है. अगर जल्दी सफलता न मिली, तो हालात और बिगड़ सकते हैं.
सरकार का क्या कहना है?
- उत्तम कुमार रेड्डी, तेलंगाना के जल संसाधन मंत्री
खतरे में मजदूरों की जिंदगी, कैसे बचेगी जान?
10 मीटर के इस छोटे से हिस्से में फंसे मजदूरों की हालत का अंदाजा लगाना मुश्किल है. सुरंग के भीतर ऑक्सीजन की कमी, भोजन और पानी का अभाव, और ठंड जैसे हालात उनकी जिंदगी को खतरे में डाल रहे हैं. उत्तराखंड में मजदूरों को पाइप के जरिए भोजन और ऑक्सीजन पहुंचाई गई थी, लेकिन तेलंगाना में अभी तक ऐसा कोई रास्ता नहीं बन पाया है. अगर मजदूर जिंदा हैं, तो हर मिनट उनके लिए कीमती है. इन मजदूरों के परिवारों का रो-रोकर बुरा हाल है. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने तेलंगाना सरकार से संपर्क कर मदद की पेशकश की है.
भारत में क्यों हो रहे हैं बार-बार हादसे?
पिछले लगभग एक दशक में भारत में बुनियादी ढांचे के विकास में तेजी आई है. इस कारण कई टनल बनाए जा रहे हैं. लेकिन टनल निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें विस्तृत भू-तकनीकी सर्वेक्षण (Geo-technical Survey) और सटीक डिजाइन की जरूरत होती है. लेकिन कई मामलों में देखा गया है कि प्रोजेक्ट की डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) में इन पहलुओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है.
सिल्क्यारा टनल हादसे में यह सामने आया था कि डीपीआर में पहाड़ को ठोस चट्टान (हार्ड रॉक) बताया गया था, लेकिन खुदाई के दौरान यह भुरभुरी मिट्टी और कमजोर चट्टानों का क्षेत्र निकला था. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर शुरूआत में ही सही भू-तकनीकी सर्वे किया गया होता, तो ऐसी स्थिति से बचा जा सकता था.
निर्माण में जल्दबाजी और लापरवाही: भारत में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को समय पर पूरा करने का दबाव अक्सर गुणवत्ता पर भारी पड़ता है. ठेकेदार और निर्माण कंपनियां समय सीमा पूरी करने के लिए जरूरी सुरक्षा मानकों को अनदेखा कर देती हैं.
सुरक्षा मानक को नजरअंदाज करना: टनल परियोजनाओं में सुरक्षा मानकों का पालन सुनिश्चित करने के लिए स्वतंत्र निगरानी व्यवस्था जरूरी है. लेकिन भारत में कई बार यह देखा गया है कि सरकारी एजेंसियां और प्राइवेट फर्में मिलकर इन मानकों को दरकिनार कर देती हैं. कई बार इस तरह के हादसों के पीछे इसे भी जिम्मेदार माना जाता है.
भौगोलिक कारण: भारत का भौगोलिक ढांचा टनल निर्माण के लिए एक बड़ी चुनौती पेश करता रहा है. खासकर हिमालयी क्षेत्र, जहां ज्यादातर टनल परियोजनाएं चल रही हैं, अपनी संवेदनशील और अस्थिर भू-संरचना के लिए जाना जाता है. इन भौगोलिक कारणों को समझना जरूरी है, क्योंकि ये हादसों के पीछे एक बड़ा कारक हैं.
बचाव दल का क्या कहना है?
बचाव अभियान की निगरानी कर रहे नागरकुरनूल के जिलाधिकारी बी. संतोष ने कहा कि राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एनडीआरएफ) की चार टीमें - एक हैदराबाद से और तीन विजयवाड़ा से - जिनमें 138 सदस्य हैं, सेना के 24 कर्मी, एसडीआरएफ के कर्मी, एससीसीएल के 23 सदस्य उपकरणों के साथ बचाव अभियान में लगे हुए हैं. जिलाधिकारी ने बताया कि 13.5 किलोमीटर दूर पहुंचने के बाद टीम ने फंसे हुए लोगों को बुलाया, लेकिन उनसे कोई जवाब नहीं मिला. उन्होंने बताया कि इस बिंदु के बाद अब भी 200 मीटर का हिस्सा है और उनके पास पहुंचने के बाद ही स्थिति का पता चल पाएगा. एक रक्षा विज्ञप्ति में कहा गया है कि सिकंदराबाद से भारतीय सेना के बाइसन डिवीजन के इंजीनियर टास्क फोर्स (ईटीएफ) को बचाव अभियान में तैनात किया गया है.
ये भी पढ़ें-:
सुरंग में फिर कैद जिंदगी, बार-बार क्यों होते हैं एक जैसे हादसे?