Supreme Court
नई दिल्ली:
राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास लंबित विधेयक पर फैसला लेने के समयसीमा में बांधने के मसले पर राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए प्रेसिडेंसियल रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फैसला दे दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने समयसीमा तय करने के अदालती फैसले को लेकर राष्ट्रपति की ओर से 14 बिंदुओं पर मांगी गई राय पर अब अपना मत व्यक्त किया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल की ओर से विधेयक की मंजूरी के लिए टाइमलाइन तो तय नहीं की जा सकती. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल के पास विधेयक को लेकर पर तीन ही विकल्प हैं. विधेयक को मंजूरी देना, राष्ट्रपति के पास भेजना या विधानसभा को वापस भेजना. अदालत ने कहा कि राज्यपाल अनंतकाल तक बिल रोककर नहीं बैठ सकते.
प्रेसिडेंशियल रेफरेंस की 10 बड़ी बातें
- राज्यपाल या राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों को मंजूरी देने के लिए टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती.
- डीम्ड असेंट का सिद्धांत संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है.
- चुनी हुई सरकार में कैबिनेट को मुख्य भूमिका में होना चाहिए. मुख्य भूमिका में दो लोग नहीं हो सकते लेकिन गवर्नर का कोई सिर्फ औपचारिक भूमिका नहीं होता.
- आर्टिकल 142 प्रयोग कर सुप्रीम कोर्ट विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता. यह राज्यपाल और राष्ट्रपति का अधिकार क्षेत्र में आता है
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधानसभा से पारित विधेयक को राज्यपाल अगर अपने पास रख लेता है, वह संघवाद के खिलाफ होगा। हमारी राय है कि राज्यपाल को विधेयक को दोबारा विचार के लिए लौटाना चाहिए.
- सामान्य तौर पर राज्यपाल को मंत्रिमण्डल की सलाह पर काम करना होता है. लेकिन विवेकाधिकार से जुड़े मामले में वह खुद भी फैसला ले सकता है. गवर्नर, प्रेसिडेंट का खास रोल और असर होता है.
- राज्यपाल के पास बिल रोकने और प्रोसेस को रोकने का कोई अधिकार नहीं है. वह मंजूरी दे सकता है, बिल को असेंबली में वापस भेज सकता है या प्रेसिडेंट को भेज सकता है.
- जब राज्यपाल काम न करने का फैसला करते हैं, तो संवैधानिक कोर्ट न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. कोर्ट मेरिट पर कुछ भी देखे बिना गवर्नर को काम करने का सीमित निर्देश दे सकते हैं.
- राज्यपाल और राष्ट्रपति विधेयक को मंजूरी देने के लिए समयसीमा तय नहीं कर सकते. हालांकि राज्यपाल राज्य सरकार की ओर से पारित बिल को हमेशा के लिए रोककर नहीं रख सकते. उन्हें एक उचित समय के अंदर काम करना होगा.अगर गवर्नर बिल को मंजूरी नहीं दे रहे हैं, तो उसे अनिवार्य तौर पर विधानमंडल को वापस भेजना होगा.
- सुप्रीम कोर्ट का यह भी कहना है कि 'मानी गई मंजूरी' की अवधारणा संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है.
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