आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला, कहा- OBC आरक्षण की तरह लागू हो क्रीमी लेयर

सुप्रीम कोर्ट के एक संविधान पीठ ने गुरुवार को दिए फैसले में कहा कि अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति में सब कैटेगरी बनाने में कोई संवैधानिक वाधा नही हैं. अदालत ने यह भी कहा कि ओबीसी आरक्षण की तरह एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर लागू होना चाहिए.

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नई दिल्ली:

सुप्रीम कोर्ट गुरुवार को एससी-एसटी आरक्षण को लेकर एक बड़ा फैसला सुनाया. अदालत ने कहा कि एससी-एसटी में सह कैटेगरी बनाकर अधिक पिछड़े लोगों को अलग से कोटा देने के लिए इजाजत है. यह फैसला सात जजों के एक संविधान पीठ ने 6-1 के बहुमत से सुनाया.फैसला सुनाने वाले एक जज ने कहा कि वो इस बात से सहमत हैं कि ओबीसी पर लागू क्रीमी लेयर का सिद्धांत एससी-एसटी पर भी लागू होता है. इस संविधान पीठ में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मित्तल, जस्टिस मनोज मिश्र और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल थे.बहुमत के इस फैसले से जस्टिस बेला त्रिवेदी ने असहमति जताई.

क्या कहा है सीजेआई ने

फैसला सुनाते हुए सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि छह जज निर्णय के पक्ष में हैं, सभी एकमत हैं. इस तरह बहुमत ने 2004 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार मामले में दिए उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि एससी-एसटी के आरक्षण में  उप वर्गीकरण की इजाजत नहीं है. 

इस पीठ ने मुख्य तौर पर दो पहलुओं पर विचार किया,पहला यह कि क्या आरक्षित जातियों के उप-वर्गीकरण की इजाजत दी जाए और दूसरा यह कि ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में दिए गए फैसले की सत्यता, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 341 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जातियां समरूप समूह हैं और उन्हें आगे उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है.

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अदालत ने कहा है कि अनुसूचित जातियों के उप वर्गीकरण के आधार को राज्यों द्वारा परिमाणात्मक और प्रदर्शनीय आंकड़ों द्वारा उचित ठहराया जाना चाहिए.अदालत ने कहा कि राज्य यह काम अपनी मर्जी से नहीं कर सकता है.

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क्या एससी-एसटी में बनेगी सब कैटेगरी

सीजेआई चंद्रचूड़ और जस्टिस मिश्र ने अपने फैसले में ऐतिहासिक साक्ष्यों का हवाला दिया.उन्होंने कहा कि अनुसूचित जातियां समरूप वर्ग नहीं हैं.फैसले के मुताबिक सब कैटेगरी बनाना संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निहित समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है. इसके साथ ही यह उप वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 341(2) का उल्लंघन नहीं करता है.अनुच्छेद 15 और 16 में ऐसा कुछ भी नहीं है,जो राज्य को किसी जाति को उप-वर्गीकृत करने से रोकता हो.

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जस्टिस बीआर गवई का कहना था कि अधिक पिछड़े समुदायों को तरजीह देना राज्य का कर्तव्य है. एससी-एसटी की श्रेणी में केवल कुछ लोग ही आरक्षण का आनंद ले रहे हैं.उन्होंने कहा कि इस जमीनी हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि एससी-एसटी के भीतर ऐसी श्रेणियां हैं, जिन्हें सदियों से अधिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है. उन्होंने सामाजिक लोकतंत्र की जरूरत पर बीआर आंबेडकर के एक भाषण का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है, ''इतिहास बताता है कि जब नैतिकता का सामना अर्थव्यवस्था से होता है,तो जीत अर्थव्यवस्था की होती है.''

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क्या एससी-एसटी आरक्षण में भी लागू होगा क्रीमी लेयर

उन्होंने अनुसूचित जाति के क्रीमी लेयर (संपन्न वर्ग) के बच्चों की तुलना गांव में मैला ढोने वाले अनुसूचित जाति के व्यक्ति के बच्चों से करना बेईमानी होगी.उन्होंने कहा कि एससी-एसटी के केवल कुछ लोग ही आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं. जस्टिस गवई ने कहा कि राज्य को एससी एसटी वर्ग में क्रीमी लेयर की पहचान करने और उन्हें सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) के दायरे से बाहर करने के लिए एक नीति बनानी चाहिए. सच्ची समानता हासिल करने का यही एकमात्र तरीका है.उन्होंने कहा कि पिछड़े समुदायों को प्राथमिकता देना राज्य का कर्तव्य है.

वहीं जस्टिस विक्रम नाथ ने कहा कि उप वर्गीकरण का कोई भी अभ्यास अनुभवजन्य आंकड़ों द्वारा समर्थित होना चाहिए.
उन्होंने कहा,''मैं इस बात से सहमत हूं कि ओबीसी पर लागू क्रीमी लेयर सिद्धांत एससी-एसटी पर भी लागू होता है.''

वहीं इस मामले में असहमति जताने वाली जस्टिस त्रिवेदी ने कहा कि अनुच्छेद 341 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जातियों की राष्ट्रपति सूची में राज्य द्वारा कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता. संसद द्वारा पारित कानून के द्वारा ही जातियों को राष्ट्रपति सूची में शामिल या बाहर किया जा सकता है. उप वर्गीकरण राष्ट्रपति सूची में छेड़छाड़ के समान होगा. अनुच्छेद 341 का उद्देश्य एससी-एसटी सूची में भूमिका निभाने वाले किसी भी राजनीतिक कारक को समाप्त करना था जस्टिस त्रिवेदी ने कहा कि स्पष्ट और शाब्दिक व्याख्या के नियम को ध्यान में रखना होगा.

क्या होता है क्रीमी लेयर

मंडल कमिशन की सिफारिश के आधार पर वीपी सिंह की सरकार ने 1991 में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण दिया था. इंदिरा साहनी ने सुप्रीम कोर्ट में वैधानिकता को लेकर इस फैसले को चुनौती दी.सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 1991 में दिए अपने फैसले में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण के फैसले का समर्थन किया,लेकिन उसने कहा कि ओबीसी की पहचान के लिए जाति को पिछड़ेपन का आधार बनाया जा सकता है. इसके साथ ही, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया था कि ओबीसी में क्रीमी लेयर को आरक्षण नहीं दिया जाएगा.

फैसला आने के अगले साल 1992 में ओबीसी आरक्षण लागू हो गया. लेकिन कुछ राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट की बात यह कहते हुए नहीं मानी की उनके यहां ओबीसी में कोई क्रीमी लेयर है ही नहीं.इसके बाद 1999 में क्रीमी लेयर का मुद्दा फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. अदालत ने अपना फैसला बरकरार रखा.सरकार ने 1993 में ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने के लिए अधिकतम सालाना आय की सीमा तय करते हुए नॉन-क्रीमी लेयर सर्टिफिकेट की व्यवस्था की थी.सरकार ने 1 लाख रुपये से ज्यादा की सालाना आमदनी वाला ओबीसी परिवार क्रीमी लेयर घोषित किया था. इसे 2004 में ढाई लाख रुपये, 2008 में साढ़े चार लाख रुपये, 2013 में छह लाख रुपये और 2017 में आठ लाख रुपये कर दिया गया. अभी यह सीमा लागू है. 

क्या था पूरा मामला

पंजाब सरकार ने 1975 में आरक्षित सीटों को दो भाग में बांटकर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण नीति बनाई थी. एक श्रेणी बाल्मीकि और मजहबी सिखों के लिए और दूसरी श्रेणी दूसरी अनुसूचित जातियों के था.यह नीति 30 साल तक लागू रही. साल 2006 में इस मामले को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट पहुंचा. ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2004 के फैसले के आधार पर इस नीति को रद्द कर दिया गया.चिन्नैया फैसले में कहा गया था कि एससी श्रेणी में उप वर्ग बनाने की इजाजत नहीं है, क्योंकि यह समानता के अधिकार का उल्लंघन है.

पंजाब सरकार ने 2006 में बाल्मीकि और मजहबी सिखों को कोटा देने के लिए फिर एक नया कानून बनाया. जिसे 2010 में फिर से हाई कोर्ट में चुनौती दी गई.हाई कोर्ट ने नए कानून को भी रद्द कर दिया.ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा.वहां  पंजाब सरकार का कहना था कि इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले के तहत यह स्वीकार्य था, जिसने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के भीतर सब कैटेगिरी की अनुमति दी थी.पंजाब सरकार का कहना था कि अनुसूचित जाति के भीतर भी इसकी अनुमति दी जानी चाहिए.

साल 2020 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों के पीठ ने पाया कि ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के फैसले पर एक बड़ी बेंच में फिर से विचार की जरूरत है. फैसले में कहा गया था कि एससी श्रेणी में सब कैटेगिरी की इजाजत नहीं है. इसके बाद सीजेआई के नेतृत्व में सात जजों की बेंच बनाई गई. इस बेंच ने जनवरी 2024 में इस मामले में तीन दिन तक मामले सुनवाई की. इसी बेंच ने आज अपना फैसला सुनाया है.

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