'कालानमक': नाम पर न जाइए, इस चावल के स्वाद और सुगंध के दीवाने हैं लोग

कालानमक चावल आज भी बाझा गांव और पिपरहवा के बीच उगाया जाता है. गौतम बुद्ध की चिता की राख मिट्टी के एक बर्तन में पिपरहवा के नददीक ब्रितानी इंजीनियर विलियन क्लैक्सटॉन पेपे ने 1897 में खोजी थी. इसके साथ वहां चावल के कुछ दाने भी मिले थे.ये दाने कालानमक के थे.

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नई दिल्ली:

भारत में धान की खेती का इतिहास करीब उतना ही पुराना है जितना खेती का है.भारत में धान की हजारों प्रजातियों की खेती की जाती है.केंद्र सरकार के मुताबिक भारत में धान की पैदावार 14 सौ लाख टन से अधिक है.धान की हजारों प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं. इन्हीं में से एक है कालानमक. इस चावल को दुनियाभर में शांति का संदेश देने वाले गौतम बुद्ध का प्रसाद माना जाता है. यह चावल अपनी खुशबू और स्वाद के लिए लोकप्रिय है. 

कालानमक का गौतम बुद्ध से क्या है नाता

कालानमक चावल का इतिहास गौतम बुद्ध से जुड़ा हुआ है.गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोधन का साम्राज्य आज के भारत और नेपाल के बीच के इलाकों में फैला हुआ था.संस्कृत में शुद्धोधन नाम का अर्थ 'शुद्ध चावल'होता है.राजकुमार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बनने के बाद एक बार अपने पिता के साम्राज्य में पहुंचे.चीनी यात्री फाहियान पांचवीं शताब्दी की शुरुआत में भारत आया था.उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि बाझा जंगल के पास स्थित मथला गांव के लोगों ने गौतम बुद्ध से प्रसाद की मांग की.उन्होंने उन्हें कुछ दाने निकालकर दिए और उन्हें खेत में बोने के लिए कहा.गौतम बुद्ध ने कहा कि इससे पैदा हुए चावल की खुशबू आपको मेरी याद दिलाएगी. 

कालानमक धान
Photo Credit: Marinder Mishra

किसानों का कहना है कि कालानमक चावल आज भी बाझा गांव और पिपरहवा के बीच उगाया जाता है. गौतम बुद्ध की चिता की राख मिट्टी के एक बर्तन में पिपरहवा के नजदीक ब्रितानी इंजीनियर विलियन क्लैक्सटॉन पेपे ने 1897 में खोजा थी.इसके साथ वहां चावल के कुछ दाने भी मिले थे.यह जगह भारत-नेपाल सीमा के पास स्थित है.यहां पैदा होने वाले कालानमक का स्वाद और सुगंध दूसरे इलाकों में पैदा होने वाले कालानमक से जुदा होता है.पिपरहवा नेपाल स्थित लुंबनी से करीब 15 किमी दूर है.लुंबनी में ही राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म हुआ था.इस जगह की खोज 1896 में की गई थी. 

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अंग्रेजों ने दिया कालानमक की खेती को बढ़ावा

कालानमक चावल का उत्पादन बढ़ाने और संरक्षण का प्रयास सबसे पहले अंग्रेजों के ही कार्यकाल में हुआ था.आज के सिद्धार्थनगर जिले में अंग्रेजों ने कालानमक की खेती में लगने वाली पानी की आपूर्ति को बनाए रखने के लिए जलाशय बनवाएं थे.इन जलाशयों से पूरे साल पानी की आपूर्ति होती रहती थी. वे कालानमक की खेती खुद के खाने के अलावा दूसरे देशों में निर्यात करने के लिए भी करते थे.कालानमक की सफलता को देखकर आसपास के जिलों में भी कालानमक की खेती होने लगी.इनमें गोरखपुर और बस्ती जैसे इलाके प्रमुख हैं.यहां से कालानमक चावल राप्ती नदी से होते हुए कोलकाता तक भेजा जाता था,वहां से उसे ढाका पहुंचाया जाता था. 
 

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खेत में खड़ी कालानमक धान की फसल.
Photo Credit: Marinder Mishra

ऐसा भी नहीं है कि कालानमक की खेती करने वाले किसान इससे बहुत खुश थे.स्थानीय किसानों का कहना है कि उनके पूर्वज अंग्रेजों के लिए खेती करते थे.पैदावार कम होने की स्थिति में अंग्रेज किसानों को मारते-पीटते भी थे.इस दुर्व्यवहार की वजह से स्थानीय किसानों का कालानमक से मोहभंग हुआ. वो उसकी खेती से विमुख हो गए. 

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कालानमक के लिए कितना पानी चाहिए

प्रगतिशील किसान और पत्रकार मणेंद्र मिश्र बताते हैं कि सिद्धार्थनगर जिले का आकार हथेली की तरह है.इस वजह से यहां जलजमाव होता है. यह पानी कई-कई महीने तक जमा रहता है. यह पानी कालानमक खेती के लिए अनुकूल परिस्थिति है,क्योंकि कालानमक के लिए पानी की जरूरत अधिक होती है. 

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खेत में खडी कालानमक की फसल.
Photo Credit: Marinder Mishra

कालानमक की खुशबू जितनी अच्छी होती है, उसकी पैदावार उतनी अच्छी नहीं होती है. इसका पौधा पांच फिट से अधिक ऊंचा होता है. यह पानी वाली जगह पर ही खड़ा रहता है. इसकी पैदावार भी काफी कम होती है. धान की दूसरी फसलों की तुलना में करीब एक चौथाई पैदावार ही कालानमक की होती है.इस वजह से कालानमक की खेती बहुत फायदेमंद नहीं मानी जाती है.  

मणेंद्र खुद भी कालानमक धान की खेती करते हैं. वो एक समस्या की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि आर्थिक पक्ष के अलावा एक समस्या कालानमक के बीज का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हो पाना है.वो कहते हैं कि पैदावार में से ही कुछ धान को बीज के लिए बचा कर रख लिया जाता है.उसी को अगले साल बोया जाता है.वो बताते हैं कि कालानमक की एक और प्रजाति आई है,जिसके पौधों की साइज छोटी है.इसमें पैदावार तो थोड़ी अधिक होती है, लेकिन इसका स्वाद और सुगंध उस तरह का नहीं है, जैसी कालानमक की होती है.  

कालानमक की नई किस्में

अंग्रेजी अखबार 'टाइम्स ऑफ इंडिया'की एक खबर के मुताबिक कृषि वैज्ञानिक राम चेत चौधरी ने संयुक्त राष्ट्र में भी काम किया है. उन्होंने दुनिया भर में धान की खेती पर शोध किया है. सेवानिवृत्त होने के बाद वो अपने गृह जनपद गोरखपुर लौट आए थे. वहां उन्होंने कालानमक पर काम करने का फैसला किया. उन्होंने और उनकी टीम ने पिपरहवा में गौतम बुद्ध के अवशेषों के साथ मिले चावलों का परिक्षण किया. वो गौतम बुद्ध के अवशेषों के साथ मिले चावल और आजकल पैदा हो रहे कालानमक के गुणों की पड़ताल करना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने सिद्धार्थनगर जिले के बाजहा और पिपरहवा के बीच स्थित गांवों का दौरा कर किसानों से बातचीत की.
इस तरह उन्होंने धान के 250 जर्मप्लाज्म जुटाए. उन्होंने राज्य सरकार की प्रयोगशाला में इन सबका परिक्षण किया. इनमें से केवल एक ही चावल का गुण उस चावल के गुण के समान मिला,जो गौतम बुद्ध के अवशेष के साथ मिले थे.यह चावल मथला गांव के फूलचंद नाम के किसान के यहां से मिला था. यह गांव बजहा गांव से करीब दो किमी दूर है, जहां गौतम बुद्ध ने प्रसाद के रूप ग्रामिणों को अनाज के कुछ दाने दिए थे.चौधरी ने जितने सैंपल जुटाए थे,उनमें से इसका नंबर तीन था. इसलिए कालानमक की इस प्रजाति का नाम केएन-3 रखा गया. फूलचंद के पूर्वज कालानमक की खेती करते आए हैं. वो अंग्रेजों के लिए भी खेती करते थे. 

कालानमक धान की फसल.
Photo Credit: Marinder Mishra

चौधरी ने बाद में इसी कालानमक की किस्म की सांभा मसूरी नाम की एक प्रजाति से क्रास कराकर कालानमक की दो और प्रजातियां विकसित कीं. इनका नाम रखा गया बौना कालानमक 101 और बौना कालानमक 102. इनके पौधों की लंबाई परंपरागत कालानमक से छोटी तो थी, लेकिन स्वाद और सुंगध के मामले में उससे कमतर थी. इसी की तरफ मणेंद्र मिश्र भी इशारा करते हैं. 

कालानमक को मिला जीआई टैग

चौधरी के प्रयासों से ही कालानमक को चावल की पुरानी किस्म का जियोग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) टैग मिला. इससे उत्तर प्रदेश के 11 जिलों बहराइच, बलरामपुर, बस्ती, देवरिया, गोण्डा, गोरखपुर, कुशीनगर, महाराजगंज, संत कबीर नगर, सिद्धार्थनगर और श्रावस्ती को जोड़ा गया.इसका परिणाम यह हुआ कि 2023 आते-आते इन जिलों में कालानक की खेती का रकबा बढ़कर 80 हजार हेक्टेयर हो गया. इस काम के लिए चौधरी को राष्ट्रपति ने 'पद्मश्री'सम्मान से सम्मानित किया. 

कालानमक धान
Photo Credit: Marinder Mishra

वहीं मणेंद्र कालानमक से जुड़ी कुछ दूसरी समस्याओं की ओर भी इशारा करते हैं. वो कहते हैं कि पहले कालानमक के धान की हाथ से कटाई, दंवाई और कुटाई होती थी. कालानमक धान को मिट्टी से बने डेहरी में रखा जाता था. इससे उसका स्वाद और सुगंध बना रहता था.लेकिन अब यह सब बंद हो गया है. कालानमक धान की कुटाई मिलों में होती है, इससे उसका सुगंध जाता रहा. इसके साथ ही वो कहते हैं कि अच्छी कीमत न मिलने की वजह से किसानों का मन कालानमक की खेती की ओर से उचट रहा है. वो यह भी बताते हैं कि कालानमक की फसल तैयार होने में करीब चार महीने का समय लगता है. इस वजह से यह दिसंबर तक कटती है. इस वजह से जहां कालानमक की फसल लगी होती है, वहां गेंहू की फसल में देरी होती है. 

कालानमक में पोषकतत्व

कालानमक के चावल में पोषण के नजरिए से तमाम गुण होते हैं.ग्लूसेमिक इंडेक्स कम होने की वजह से इसे डायबिटिक लोग भी खा सकते हैं.इस वजह से कालानमक का स्वाद चखने के बाद से हर कोई इसकी स्वाद और सुगंध का दिवाना हो जाता है. आज कई ई मार्केटिंह वेबसाइट पर यह 200 से 500 रुपये प्रति किलो के रेट से उपलब्ध है. लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान इससे मुनाफा नहीं कमा पाते हैं. तमाम तरह के गुणों के बाद भी बाजार में अच्छी कीमत न मिलने के वजह से किसान इसकी खेती को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखाते हैं. 

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