बाबरी ढांचा विध्वंस के बाद मुंबई में हुए दंगों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए कई अहम निर्देश..

सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई के एक वकील शकील अहमद द्वारा दायर याचिका में फैसला सुनाया है, जिसमें जस्टिस श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने की मांग की गई थी जिसे राज्य सरकार ने दंगों की जांच के लिए गठित किया था

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 1992-93 के दंगों के दौरान राज्‍य सरकार कानून-व्‍यवस्‍था बनाए रखने में विफल रही
नई दिल्‍ली:

1992-93 में बाबरी का ढांचा गिराने के बाद मुंबई (तब बंबई) में हुए दंगों के मामले में 30 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा कदम उठाया है.  SC ने पीड़ित परिवारों को मुआवजे के भुगतान और निष्क्रिय पड़े आपराधिक मामलों को फिर से शुरू करने के लिए कई निर्देश जारी किए हैं. कोर्ट ने कहा कि सरकार (तब सुधाकरराव नाइक के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार) दंगों के बाद कानून और व्यवस्था बनाए रखने में विफल रही, पीड़ितों को मुआवजा दिया जाए. अगर नागरिकों को सांप्रदायिक तनाव के माहौल में रहने के लिए मजबूर किया जाता है, तो यह अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत उनके जीने के अधिकार को प्रभावित करता है. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई के एक वकील शकील अहमद द्वारा दायर याचिका में फैसला सुनाया है, जिसमें जस्टिस श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने की मांग की गई थी जिसे राज्य सरकार ने दंगों की जांच के लिए गठित किया था.  

बाबरी ढांचा विध्वंस के बाद 1992- 93 में बॉम्‍बे को हिला देने वाले सांप्रदायिक दंगों के लगभग तीस साल बाद, सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मुआवजे को  भुगतान के लिए कई निर्देश जारी किए. सुधाकरराव नाइक को 25 जून 1991 को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई थी जब शरद पवार ने इस्तीफा दे दिया था. नाइक ने 1993 के बॉम्बे दंगों को संभालने में असमर्थता के कारण इस्तीफा दे दिया, और उनकी जगह एक बार फिर पवार ने ले ली. अब अदालत ने पीड़ितों के परिवारों को मुआवजा और निष्क्रिय पड़े आपराधिक मामलों को फिर से शुरू करने के लिए कहा है. सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि राज्य सरकार की ओर से कानून और व्यवस्था बनाए रखने और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत लोगों के अधिकारों की रक्षा करने में विफलता थी. कोर्ट ने अगर नागरिकों को सांप्रदायिक तनाव के माहौल में रहने के लिए मजबूर किया जाता है, तो यह अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत जीने  के अधिकार को प्रभावित करता है. दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में मुंबई द्वारा देखी गई हिंसा ने प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों पर गहरा असर डाला था. इसमें 900 व्यक्ति मारे गए और 2000 से अधिक लोग घायल हुए. मकान, दुकान, व्यापार और नागरिकों की संपत्तियों को नष्ट कर दिया गया. ये सभी भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत उनके अधिकारों का उल्लंघन हैं 

यह कहते हुए कि "उनकी पीड़ा के मूल कारणों में से एक कानून और व्यवस्था बनाए रखने में राज्य सरकार की विफलता थी", कोर्ट ने कहा कि प्रभावित व्यक्तियों को राज्य सरकार से मुआवजे की मांग करने का अधिकार था. कोर्ट ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि महाराष्ट्र सरकार ने पीड़ितों को 2 लाख रुपये का मुआवजा देने का फैसला किया था और 900 मृत व्यक्तियों और 60 लापता व्यक्तियों के कानूनी वारिसों को भुगतान किया गया था. हालांकि दंगों के बाद 168 लोगों के लापता होने की सूचना मिली थी, राज्य सरकार ने अदालत से कहा कि वह केवल 60 लापता व्यक्तियों के परिवारों को मुआवजा दे सकती है, क्योंकि अन्य कानूनी वारिसों का पता नहीं लगाया जा सका है 

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देश

1. इस निर्णय द्वारा जारी निर्देशों के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए MSLSA  के सदस्य सचिव की अध्यक्षता में एक समिति गठित होगी 

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2. राज्य सरकार 168 लापता व्यक्तियों के नाम और पते सहित विवरण वाली एक रिपोर्ट समिति को प्रस्तुत करेगी. राज्य सरकार दूसरे सरकारी प्रस्ताव के तहत मुआवजे से वंचित 108 लापता व्यक्तियों के परिवार के सदस्यों का पता लगाने के लिए किए गए प्रयासों के संबंध में सामग्री भी रखेगी 

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3. राज्य सरकार इसके बाद खोजे गए लापता व्यक्तियों के कानूनी उत्तराधिकारियों को 22 जनवरी 1999 से 9% प्रति वर्ष की दर से ब्याज के साथ 2 लाख रुपये का मुआवजा देगी 

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4. राज्य सरकार आज से एक महीने के भीतर बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को निष्क्रिय फाइलों पर 97 मामलों का विवरण प्रदान करेगी. विवरण प्राप्त होने पर, प्रशासनिक पक्ष पर बॉम्बे हाईकोर्ट संबंधित न्यायालयों को आवश्यक संचार जारी करेगा जिसमें आरोपी का पता लगाया जाएगा जिसके खिलाफ मामले लंबित हैं. 

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