नौसैनिक के बच्चे गीता और संजय चोपड़ा अपने धौला कुआं ऑफिसर्स एन्क्लेव स्थित घर से निकले, तब शाम के 6.15 बज रहे थे. वह 1978 में अगस्त के आखिरी दिनों की शाम थी. उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर बाढ़ का ख़तरा मंडरा रहा था. बूंदाबांदी के बीच एक विशेष कार्यक्रम के लिए वो दोनों संसद मार्ग स्थित ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) कार्यालय जा रहे थे. जीसस एंड मैरी कॉलेज की सेकंड ईयर की छात्रा गीता को उस दिन रात 8 बजे भाई संजय के साथ युवा वाणी पर आना था.
बारिश के कारण चोपड़ा भाई-बहन संसद मार्ग तक पैदल नहीं चल सके तो उन्होंने डॉ. एमएस नंदा के साथ सफर तय किया, जिन्होंने उन्हें एआईआर कार्यालय से एक किलोमीटर पहले गोले डाक खाना के पास छोड़ दिया. उनके पिता उन्हें रात 9 बजे आकाशवाणी कार्यालय से लेने वाले थे. यह 26 अगस्त, 1978 का दिन था.
28 अगस्त 1978 को मिला था संजय और गीता का शव
हालांकि भारतीय नौसेना के कैप्टन एमएम चोपड़ा और रोमा चोपड़ा के बेटे और बेटी, संजय और गीता आकाशवाणी कार्यालय नहीं पहुंच सके. उनके माता-पिता ने फिर कभी उनकी आवाज नहीं सुनी. तीन दिन बाद, एक चरवाहे ने रिज के घने जंगल में दो बच्चों के सड़ते शवों को देखा, तब 28 अगस्त 1978 को शाम के 6 बजे थे.
डॉ. एमएस नंदा द्वारा संजय और गीता को गोले डाक खाना के पास छोड़ने के बाद, कुछ लोगों ने इलाके के चारों ओर नींबू के कलर की फिएट देखी थी, कार में कुछ गड़बड़ी थी.
बिजली के सामान की दुकान के मालिक भगवान दास ने गोले मार्केट चौराहे पर फिएट को अपने पास से गुजरते हुए देखा. उन्होंने कथित अपहरण की रिपोर्ट करने के लिए शाम 6.45 बजे पुलिस को फोन किया. कार की पिछली सीट पर दो किशोर थे और उनमें से लड़की मदद के लिए चिल्ला रही थी. कार की नंबर प्लेट पर 'MRK 930' लिखा था.
कंट्रोल रूम ने इलाके में गश्त करने वाले वाहनों को वायरलेस अलर्ट भेजा. अलर्ट जारी होने के तुरंत बाद, राजिंदर नगर पुलिस स्टेशन में इसी तरह की एक और रिपोर्ट दर्ज की गई.
23 वर्षीय जूनियर इंजीनियर इंद्रजीत सिंह नोआटो ने ड्यूटी ऑफिसर हरभजन सिंह को सूचित किया कि उन्होंने लोहिया अस्पताल के पास एक फिएट को उनके स्कूटर के पास से तेजी से आते देखा है. उसने कार से एक लड़की की दबी-दबी चीखें सुनी थीं.
लोगों ने कार में बच्चों को मदद मांगते देखा
जैसे ही उसने चौराहे पर फिएट के पास अपना स्कूटर रोका, उसने कार की अगली सीट पर दो लोगों को देखा, और पीछे की सीट पर एक लड़का और एक लड़की थी. लड़की ड्राइवर के बाल खींच रही थी. जब लड़के ने सिंह को खिड़की के पास आते देखा तो उसने अपनी खून से सनी टी-शर्ट की ओर इशारा किया. कार सिग्नल तोड़कर तेजी से निकल गई.
इसके बाद भी पुलिस समय पर कार्रवाई नहीं कर पाई और जनता का गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा. गीता और संजय के लापता होने के तीन दिन बाद पुलिस को पता चला कि उनकी हत्या कर दी गई है. गीता के साथ बलात्कार भी किया गया है.
1970 के दशक तक दिल्ली 'रेप कैपिटल' नहीं बनी थी. गीता और संजय चोपड़ा की बलात्कार-हत्या शायद दिल्ली का पहला जघन्य अपराध था. दिल्ली उच्च न्यायालय ने हत्यारों कुलजीत उर्फ रंगा खुश और जसबीर सिंह उर्फ बंगाली उर्फ बिल्ला को मौत की सजा सुनाई.
दो निर्दोष किशोरों की बलात्कार और नृशंस हत्या के लिए दोषियों को मौत की सजा देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि बिल्ला और रंगा को इस अपराध को करने में और दूसरों को भयंकर पीड़ा देने में आनंद आया और इसलिए मौत की सजा के अलावा कोई और सजा देना न्याय की पूर्ण विफलता होगी.
घटना के दो हफ्ते बाद गिरफ्तार हुए रंगा और बिल्ला
गीता और संजय की हत्या के दो हफ्ते बाद, भाग रहे रंगा और बिल्ला दिल्ली जाने के लिए कालका मेल में सवार हुए. आगरा स्टेशन के पास ट्रेन धीमी होने पर वे उसमें चढ़ गए. लेकिन जिस बोगी में चढ़े वो एक आर्मी डिब्बा था, यहीं उन्होंने गलती कर दी और आखिरकार वो गिरफ्तार हो गए.
बोगी में लांस नायक गुरतेज सिंह और एवी शेट्टी ने उनकी आईडी मांगी, तो उनमें से एक ने दूसरे से कहा, "इनको पहचान पत्र दिखाओ." लांस नायक गुरतेज सिंह को उन पर संदेह हुआ. उनके पास हिंदी अखबार नवयुग की एक कॉपी भी थी, जिसमें 1978 में बिल्ला - "इंडियाज़ मोस्ट वांटेड" की एक तस्वीर थी.
इसके बाद सुबह 3.30 बजे, जब ट्रेन दिल्ली स्टेशन पर पहुंची, तो रंगा और बिल्ला को उनके सामान कृपाण, एक जिंदा .32 बोर कारतूस और उनके खून से सने कपड़ों के साथ पुलिस को सौंप दिया गया. इस तरह, 1978 में, रंगा और बिल्ला तिहाड़ जेल की 'फांसी कोठी' में पहुंचे, जहां जेलर सुनील गुप्ता संचालन के प्रभारी थे. रंगा-बिल्ला की फांसी तिहाड़ में गुप्ता की पहली फांसी थी.
सुनेत्रा चौधरी की किताब ब्लैक वारंट: कन्फेशन्स ऑफ ए तिहाड़ जेलर (रोली बुक्स, 2019) पर आधारित सुनील गुप्ता के जीवन पर एक नेटफ्लिक्स श्रृंखला 10 जनवरी को रिलीज होने वाली है.
तिहाड़ की 'फांसी कोठी'
ब्लैक वारंट: कन्फेशंस ऑफ ए तिहाड़ जेलर पुस्तक में, सुनील गुप्ता बताते हैं, "बिल्ला और रंगा से पहली बार मिलने के दशकों बाद भी, मैं अभी भी उन्हें उनके विशिष्ट व्यक्तित्वों से अलग कर सकता हूं. तिहाड़ में रंगा का नाम 'रंगा खुश' था. जो उसके स्वभाव के अनुसार था. वो 24 साल का था और लगभग छह फुट लंबा था. वो जेल में काफी खुश लग रहा था. वो बार-बार खुद को यह समझाने की कोशिश करता था कि वो एक खुशहाल जगह पर है और मौत के इंतजार में नहीं है. मुझे यकीन नहीं है कि वो वास्तव में खुश था या दिखने की कोशिश कर रहा था. उसने अंत तक अपना प्रसन्नचित्त स्वभाव बरकरार रखा."
सुनील गुप्ता के अनुसार, वहीं दूसरी ओर बिल्ला बिल्कुल विपरीत था.
जेलर गुप्ता ने अपनी किताब ब्लैक वारंट: कन्फेशन्स ऑफ ए तिहाड़ में कहा, "इसके विपरीत, 22 वर्षीय बिल्ला, जो बहुत छोटा था, केवल 5.5 फीट लंबा था, जेल के चारों ओर घूमता रहता था. रंगा जेल समुदाय के दैनिक जीवन में भाग लेता था, लेकिन बिल्ला किसी से बात नहीं करता था. उसने हमें बार-बार बताया कि उसे फंसाया गया और झूठा आरोप लगाया गया. वो अपने आने वाले परिवार से कहता था, 'मुझे वकील दो, मुझे जमानत दिलाओ.' सभी अदालतों ने उसे मौत की सजा देने की पुष्टि की, लेकिन बिल्ला ने अंत तक इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया."
गुप्ता कहते हैं, रंगा अंत तक कहता रहा कि उसने और बिल्ला ने फिरौती के लिए अपहरण की साजिश रची थी और गीता तथा संजय का कभी भी बलात्कार या हत्या नहीं होनी थी.
ब्लैक वारंट का कवर: तिहाड़ जेलर का बयान, सुनेत्रा चौधरी और सुनील गुप्ता द्वारा (रोली बुक्स, 2019)
गुप्ता कहते हैं, "रंगा का दावा था कि जब बिल्ला ने गीता को देखा, तभी उसकी नीयत खराब हो गई और एक साधारण अपहरण और डकैती मामले को सबसे भयानक बलात्कार और हत्या के मामले में बदल दिया, जैसा कि दिल्ली ने उस समय देखा था."
दिल्ली हाईकोर्ट की मौत की सज़ा को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा. मोरारजी देसाई, जो 1978 में भारत के प्रधानमंत्री थे, उन्होंने इस मामले में विशेष रुचि ली. क्योंकि चोपड़ा हत्याकांड से निपटने के तरीके के कारण उनकी सरकार की आलोचना हुई थी.
जनता पार्टी गठबंधन सरकार, जो आपातकाल के बाद सत्ता में आई थी, बाद के चुनाव हार गई. जनता पार्टी की हार में दिल्ली की कानून-व्यवस्था की खस्ता हालत की अहम भूमिका थी.
इंडिया टुडे मैगज़ीन के 30 सितंबर, 1978 के अंक में बताया गया, "राजधानी की लगातार बिगड़ती कानून और व्यवस्था की स्थिति पहले ही निचले स्तर पर पहुंच चुकी थी, और चोपड़ा हत्याकांड वह चिंगारी थी, जिसने आग भड़का दी. कैप्टन चोपड़ा, मारे गए बच्चों के पिता थे , दिल्ली के अधिकांश नागरिकों की भावनाओं को आवाज दे रहे थे, जब उन्होंने कहा: 'आजकल कोई भी मां और पिता अपने बच्चों के बारे में सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं, आज यह मेरे बच्चों का सवाल है, कल यह कोई और हो सकता है."
ब्लैक वारंट
(ब्लैक वारंट क्यों: डेथ वारंट को तैयार करने वाली काली रेखाओं के कारण इसे 'ब्लैक वारंट' कहा जाता है.)
रंगा और बिल्ला के डेथ वारंट पर साइन होते ही तिहाड़ के जल्लादों को समन मिल गया. पंजाब के फरीदकोट से फकीरा और मेरठ जेल से कालू दिल्ली की कुख्यात बलात्कारी-हत्यारे जोड़ी की फांसी देखने के लिए तिहाड़ पहुंचे.
गीता और संजय चोपड़ा के बलात्कार और हत्या के चार साल बाद 31 जनवरी 1982 को फांसी की तारीख तय की गई थी.
31 जनवरी से एक सप्ताह पहले, रंगा और बिल्ला को फांसी कोठी में ले जाया गया, जो अब जेल नंबर 3 में स्थित है. तिहाड़ के इस खंड में 16 'डेथ सेल्स' हैं; मृत्युदंड की सजा पाने वाले कैदियों के लिए उनके अंतिम सप्ताह को निर्धारित किया गया है. इस इमारत के भीतर हैंगिंग एरिया स्थित है. इसे जेल के बाकी हिस्सों से और जनता की नज़रों से दूर रखा गया है.
फांसी कोठी के बाहर से किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं होता है कि जब मौत की सजा पाए एक कैदी को फांसी के लिए तैयार किया जाता है तो वहां क्या तैयारी चल रही है.
फांसी कोठी में मौत की सज़ा पाए कैदियों के लिए सर्वोत्तम जेल सेवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं. कैदियों से पूछा जाता है कि क्या वे अपने परिवार से अंतिम मुलाकात चाहता है, या कोई मजिस्ट्रेट उनकी वसीयत नोट करना चाहता है. फांसी के समय से दस मिनट पहले उसे हथकड़ी लगाकर फांसी मंच पर ले जाया जाता है.
फांसी से एक रात पहले, जब बिल्ला रो रहा था, रंगा ने भी उसका मज़ाक उड़ाया था: "देखो, मर्द होके रो रहा है (इस रोते हुए आदमी को देखो)!"
उस समय दिल्ली में फांसी के समय केवल जेल अधिकारियों को ही उपस्थित रहने की अनुमति थी. इसलिए, जब 31 जनवरी, 1982 को रंगा और बिल्ला को फांसी के तख्ते पर ले जाया गया, तो जेलकर्मियों के अलावा वहां कोई नहीं था. जेल रोड बंद कर दिया गया था और मीडिया को इसकी कोई भनक नहीं थी कि तिहाड़ के अंदर फांसी कैसे चल रही है.
सुनील गुप्ता याद करते हैं, बिल्ला छटपटा रहा था, क्योंकि फंदा उसके गले में चला गया था. दूसरी ओर, रंगा, अपने नाम "रंगा खुश" के अनुरूप, चिल्लाया, "जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल!"
जब जल्लाद ने लीवर खींचा, जिससे फांसी का प्लेटफार्म दो हिस्सों में बंट गया, तो रंगा और बिल्ला 15 फुट नीचे कुएं में गिर गए, माना जा रहा था कि मौत तुरंत हो जाएगी, लेकिन फांसी के दो घंटे बाद भी रंगा की नाड़ी चल रही थी.
जब जल्लाद ने लीवर खींचा तो पतले और लंबे रंगा ने अपनी सांसें रोक ली और इसकी वजह से फांसी की प्रक्रिया सहज रूप से नहीं हुई. इसके बाद जेल के एक कर्मचारी को कुएं में उतरना पड़ा और रंगा के पैरों को तब तक खींचना पड़ा, जब तक वह मर नहीं गया. इस तरह रंगा की आख़िरी सांसें सचमुच उससे छीन ली गईं.
रंगा और बिल्ला के परिवार वाले उनके शवों पर दावा करने नहीं आए. जेल स्टाफ ने उनका अंतिम संस्कार कर दिया.
रंगा और बिल्ला की फांसी से एक दिन पहले 30 जनवरी को, दिल्ली के पांच पत्रकार बिल्ला का साक्षात्कार लेने के लिए तिहाड़ जेल के गलियारे में चले गए.
उस समय द नेशनल हेराल्ड में कार्यरत प्रकाश पात्रा ने बाद में द टेलीग्राफ के लिए याद करते हुए कहा, "जसबीर सिंह उर्फ बिल्ला को उसके साथी कुलजीत सिंह के साथ 1978 में भाई-बहन संजय और गीता चोपड़ा की नृशंस हत्या के लिए फांसी पर लटकाया जाना था, उससे कुछ घंटे पहले पत्रकार उसका साक्षात्कार लेने के लिए लोहे की ग्रिल से अलग की गई एक कोठरी के सामने खड़े थे."
सिर्फ बिल्ला ही इंटरव्यू के लिए राजी हुआ था. रंगा किसी से मिलना नहीं चाहता था.
पात्रा लिखते हैं, "जब हम उससे मिले, तो जसबीर सिंह ग्रिल से लगभग एक फुट की दूरी पर खड़ा था. उस 15-20 मिनट के समय में मुझे जो सबसे ज्यादा याद है, वह दो चीजें हैं: वह आदमी कैसे कांप रहा था और उसकी आवाज कितनी ऊंची और स्पष्ट थी. वह बार-बार अपनी बेगुनाही की बात कर रहा था और कहता रहा कि 'रब' (भगवान) जानता था कि उसने वो हत्याएं नहीं की हैं, जिसके लिए उसे फांसी दी जानी है. मुझे नहीं लगता कि उस दिन मौजूद हममें से किसी ने भी उस पर एक पल के लिए भी विश्वास किया होगा."
अगले दिन दिल्ली के अखबारों में बिल्ला का इंटरव्यू छपा. दिल्ली के किशोर गीता और संजय चोपड़ा के बलात्कारी-हत्यारे को उसके साथी रंगा के साथ तब तक फांसी पर चढ़ाया जा चुका था.