राजद्रोह कानून को रद्द करने की जरूरत नहीं है. ये सिफारिश राजद्रोह कानून को लेकर भारतीय विधि आयोग ने की है. आयोग ने कुछ संशोधन के साथ राजद्रोह कानून को बनाए रखने की सिफारिश की है. इससे जुड़ी एक रिपोर्ट कानून मंत्रालय को भेजी गई है. भारतीय विधि आयोग का कहना है कि भारतीय दंड संहिता के राजद्रोह अपराध (धारा 124ए) को कुछ संशोधनों के साथ बरकरार रखा जाना चाहिए. आयोग ने अधिक स्पष्टता लाने के लिए कानून ममें संशोधन की सिफारिश की है.
विधि आयोग ने कहा है कि उसका सुविचारित मत है कि भारतीय दंड संहिता में धारा I24ए को बनाए रखने की आवश्यकता है. हालांकि, केदार नाथ सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तथ्यों को शामिल कर कुछ संशोधन किए जा सकते हैं, ताकि प्रावधान के उपयोग के संबंध में अधिक स्पष्टता लाई जा सके.
राजद्रोह अपराध पर विधि आयोग का प्रस्ताव
- देशद्रोह के अपराध (आईपीसी की धारा 124ए) के लिए सजा बढ़ाई जाए.
- आयोग ने सिफारिश की है कि राजद्रोह को न्यूनतम 3 साल से 7 साल तक की जेल के साथ दंडनीय बनाया जाए.
- भारत के विधि आयोग ने कहा कि भारत की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए राजद्रोह कानून आवश्यक है.
- भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा मौजूद है.
- नागरिकों की स्वतंत्रता तभी सुनिश्चित की जा सकती है, जब राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए.
- भारत के खिलाफ कट्टरता फैलाने और सरकार को नफरत की स्थिति में लाने में सोशल मीडिया की काफी भूमिका है.
- अक्सर विदेशी शक्तियों की मदद और सुविधा पर होता है, इसके लिए और भी जरूरी है कि धारा 124ए लागू हो.
- कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को लिखे अपने कवरिंग लेटर में 22वें लॉ कमीशन के अध्यक्ष जस्टिस रितु राज अवस्थी (सेवानिवृत्त) ने कुछ सुझाव भी दिए हैं.
- इसमें कहा गया कि आईपीसी की धारा 124ए जैसे प्रावधान की अनुपस्थिति में, सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने वाली किसी भी अभिव्यक्ति पर निश्चित रूप से विशेष कानूनों और आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जाए, जिसमें अभियुक्तों से निपटने के लिए कहीं अधिक कड़े प्रावधान हों.
- रिपोर्ट में आगे कहा गया कि आईपीसी की धारा 124ए को केवल इस आधार पर निरस्त करना कि कुछ देशों ने ऐसा किया है, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा करना भारत में मौजूद जमीनी हकीकत से आंखें मूंद लेने की तरह होगा.
- रिपोर्ट में बताया गया कि इसे निरस्त करने से देश की अखंड़ता और सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है. अक्सर ये कहा जाता है कि राजद्रोह का अपराध एक औपनिवेशिक विरासत है जो उस युग (अंग्रेजों के जमाने) पर आधारित है जिसमें इसे अधिनियमित किया गया था.
- विशेष रूप से भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इसके उपयोग के इतिहास को देखते हुए ये बात कही जाती है, लेकिन ऐसे में तो भारतीय कानूनी प्रणाली का संपूर्ण ढांचा एक औपनिवेशिक विरासत है.
एक मई को राजद्रोह कानून के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा था कि सरकार ने राजद्रोह के प्रावधानों का परीक्षण शुरू किया है. इसके लिए हितधारकों से परामर्श चल रहा है. ये अभी एडवांस चरण में है जिसमें समय लगेगा. संसद के मानसून सत्र में बिल लाया जा सकता है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट अगस्त के दूसरे हफ्ते में सुनवाई करेगा. तब तक सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक राजद्रोह के मामलों पर रोक रहेगी. सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि क्या राजद्रोह पर 1962 के पांच जजों के फैसले की समीक्षा के लिए सात जजों के संविधान पीठ भेजा जाए या नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा था कि इस मामले में उसका क्या रुख है? केंद्र की कमेटी की क्या प्रगति है.
सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ की बेंच ने कहा था कि केंद्र का रूख जानने के बाद फैसला करेंगे. देखेंगे कि क्या अदालत न्यायिक तरीके से इस पर फैसला करे. 1962 में केदारनाथ बनाम बिहार राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर कमेंट भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता.
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून पर रोक लगा दी थी. कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को राजद्रोह कानून की आईपीसी की धारा 124ए के तहत कोई मामला दर्ज नहीं करने का आदेश दिया था. कोर्ट ने सरकार को आईपीसी की धारा 124ए के प्रावधानों पर समीक्षा की अनुमति भी दी. हालांकि, अदालत ने कहा राजद्रोह कानून की समीक्षा होने तक सरकारें धारा 124A में कोई केस दर्ज न करें और न ही इसमें कोई जांच करें. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कि अगर राजद्रोह के मामले दर्ज किए जाते हैं, तो वे पक्ष राहत के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने के लिए स्वतंत्र हैं. अदालतों को ऐसे मामलों का तेजी से निपटारा करना होगा. कोर्ट ने कहा कि आरोपी को राहत मिलना जारी रहेगा.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह एक औपनिवेशिक कानून है. यह स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए था. इसी कानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक आदि को चुप कराने के लिए किया था. क्या आजादी के 75 साल बाद भी यह जरूरी है?
गौरतलब है कि सुनवाई के दौरान सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत में केंद्र सरकार की ओर से पक्ष रखा था. तुषार मेहता ने कहा कि गंभीर अपराधों को दर्ज होने से नहीं रोका जा सकता था. प्रभाव को रोकना सही दृष्टिकोण नहीं हो सकता है इसलिए, जांच के लिए एक जिम्मेदार अधिकारी होना चाहिए और उसकी संतुष्टि न्यायिक समीक्षा के अधीन है. उन्होंने आगे कहा कि राजद्रोह के मामले दर्ज करने के लिए एसपी रैंक के अधिकारी को जिम्मेदार बनाया जा सकता है. इनमें कोई मनी लांड्रिंग से जुड़ा हो सकता है या फिर आतंकी से, लंबित मामले अदालत के सामने हैं. हमें अदालतों पर भरोसा करने की जरूरत है.
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि संविधान पीठ द्वारा बरकरार रखे गए राजद्रोह के प्रावधानों पर रोक लगाने के लिए कोई आदेश पारित करना सही तरीका नहीं हो सकता है. बता दें कि राजद्रोह से संबंधित दंडात्मक कानून के दुरुपयोग से चिंतित शीर्ष अदालत ने पिछले साल जुलाई में केंद्र सरकार से पूछा था कि वह उस प्रविधान को निरस्त क्यों नहीं कर रही, जिसे स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने और महात्मा गांधी जैसे लोगों को चुप कराने के लिए अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किया गया. तब याचिकाओं पर नोटिस जारी करते हुए अदालत ने प्रावधान के कथित दुरुपयोग का उल्लेख किया था.
विधि आयोग ने सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देशद्रोह के प्रावधान की व्याख्या करने वाली आईपीसी की धारा-124ए के दुरुपयोग को रोकने के लिए वह केंद्र सरकार से आग्रह करता है कि वो इस बाबत मॉडल गाइडलाइंस जारी करे. कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को रिपोर्ट के साथ भेजे पत्र में 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस ऋतुराज अवस्थी ने कहा है कि इस संदर्भ में यह भी सुझाव दिया जाता है कि सीआरपीसी, 1973 की धारा-196(3) के अनुरूप सीआरपीसी की धारा-154 में एक प्रावधान जोड़ा जा सकता है, जो आइपीसी की धारा- 124 A के तहत अपराध के संबंध में एफआईआर दर्ज करने से पहले आवश्यक प्रक्रियागत सुरक्षा उपलब्ध कराएगा.
आयोग का यह भी कहना है कि किसी प्रावधान के दुरुपयोग का कोई भी आरोप उस प्रावधान को रद्द करने या वापस लेने का आधार नहीं हो सकता है. इसके अलावा औपनिवेशिक विरासत होना भी इसे वापस लेने का वैध आधार नहीं है. रिपोर्ट में आयोग का कहना है कि गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम जैसे कानून अपराध के उन सभी तत्वों को कवर नहीं करते, जिनका वर्णन आईपीसी की धारा-124ए में किया गया है. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि हरेक देश की कानून और न्याय प्रणाली वहां की विभिन्न तरह की स्थानीय वास्तविकताओं से जूझती है. लिहाजा वो उसी तरह काम भी करती है. ये गलत परिपाटी होगी कि आईपीसी की धारा-124ए को केवल इस आधार पर निरस्त करना कि कुछ देशों ने ऐसा कदम उठाया है, तो हमें भी उठाना चाहिए. हमारे देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक वास्तविकता उन अन्य देशों से अलग है. उस के बावजूद रद्द करने का कदम सिर्फ देखादेखी करते हुए उठाना सच्चाई से मुंह मोड़ने या आंख फेरने जैसा होगा.
क्या है SC का केदारनाथ फैसला?
1962 में केदारनाथ बनाम बिहार राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था. इस मामले में फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया से सहमति जताई थी. सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ केस में व्यवस्था दी कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर कमेंट भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता. बिहार के रहने वाले केदारनाथ सिंह पर 1962 में राज्य सरकार ने एक भाषण को लेकर राजद्रोह का मामला दर्ज कर लिया था. लेकिन इस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी. केदारनाथ सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों के संविधान पीठ ने भी अपने आदेश में कहा था कि राजद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है, जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा या असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े. केदारनाथ बनाम बिहार राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता. राजद्रोह कानून का इस्तेमाल तब ही हो जब सीधे तौर पर हिंसा भड़काने का मामला हो. सुप्रीम कोर्ट की संवैज्ञानिक बेंच ने तब कहा था कि केवल नारेबाजी देशद्रोह के दायरे में नहीं आती.
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