मैरिटल रेप को अपराध बनाने की जरूरत नहीं, यह कानूनी से ज्यादा सामाजिक : SC में केंद्र का हलफनामा

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मैरिटल रेप (Marital Rape) को अपराध घोषित करने की मांग करने वाली याचिकाओं का विरोध किया है और कहा है कि मैरिटल रेप को अपराध बनाने की जरूरत नहीं है. 

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नई दिल्‍ली:

मैरिटल रेप को (Marital Rape) अपराध के दायरे में लाने की याचिका पर केंद्र सरकार (Central Government) ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में हलफनामा दाखिल किया है. इसमें केंद्र सरकार ने मैरिटल रेप  को अपराध घोषित करने की मांग करने वाली याचिकाओं का विरोध किया है और कहा है कि मैरिटल रेप को अपराध बनाने की जरूरत नहीं है, यह यह कानूनी से ज्यादा सामाजिक मुद्दा है. साथ ही कहा कि इसके लिए वैकल्पिक "उपयुक्त रूप से तैयार दंडात्मक उपाय" मौजूद हैं. 

साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित करना सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में नहीं है. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मौजूदा कानून का समर्थन किया, जो पति और पत्नी के बीच यौन संबंधों के लिए अपवाद बनाता है.

इस मुद्दे का समाज पर सीधा असर : केंद्र 

केंद्र सरकार ने कहा कि यह मुद्दा कानूनी से अधिक सामाजिक है, जिसका सामान्य रूप से समाज पर सीधा असर पड़ता है. इस मुद्दे पर सभी हितधारकों से उचित परामर्श किए बिना या सभी राज्यों के विचारों को ध्यान में रखे बिना फैसला नहीं लिया जा सकता है. 

केंद्र सरकार ने कहा कि विवाह से महिला की सहमति समाप्त नहीं होती है और इसके उल्लंघन के परिणामस्वरूप दंडात्मक परिणाम होने चाहिए. हालांकि, विवाह के भीतर इस तरह के उल्लंघन के परिणाम विवाह के बाहर के उल्लंघन से भिन्न होते हैं. सहमति के उल्लंघन के लिए अलग-अलग सजा दी जानी चाहिए. यह इस बात पर निर्भर करता है कि ऐसा कृत्य विवाह के भीतर हुआ है या विवाह के बाहर.

बलात्‍कार विरोधी कानूनों के तहत दंड असंगत : केंद्र 

सरकार ने कहा कि विवाह में अपने जीवनसाथी से उचित यौन संबंध बनाने की निरंतर अपेक्षा की जाती है. ऐसी अपेक्षाएं पति को अपनी पत्नी को उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करने का अधिकार नहीं देती हैं. हालांकि, केंद्र ने कहा कि इस तरह के कृत्य के लिए बलात्कार विरोधी कानूनों के तहत किसी व्यक्ति को दंडित करना अत्यधिक और असंगत हो सकता है.  

सरकार ने कहा कि संसद ने विवाह के भीतर विवाहित महिला की सहमति की रक्षा के लिए पहले से ही विभिन्न उपाय प्रदान किए हैं. इन उपायों में विवाहित महिलाओं के प्रति क्रूरता को दंडित करने वाले कानून (भारतीय दंड संहिता के तहत धारा 498ए)  है. महिलाओं की शील के विरुद्ध कृत्यों को दंडित करने वाले कानून और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत उपाय शामिल हैं. 

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याचिकाकर्ताओं के दृष्टिकोण को केंद्र ने बताया गलत 

साथ ही कहा कि यौन पहलू पति और पत्नी के बीच संबंधों के कई पहलुओं में से एक है, जिस पर उनके विवाह की नींव टिकी हुई है. हमारे सामाजिक-कानूनी परिवेश में वैवाहिक संस्था की प्रकृति को देखते हुए, यदि विधायिका का यह विचार है कि वैवाहिक संस्था के संरक्षण के लिए, विवादित अपवाद को बरकरार रखा जाना चाहिए तो अदालत द्वारा अपवाद को रद्द करना उचित नहीं होगा. 

साथ ही केंद्र ने विवाह संस्था को निजी संस्था मानने के याचिकाकर्ताओं के दृष्टिकोण को गलत और एकतरफा बताया है. साथ ही कहा कि विवाहित महिला और उसके अपने पति के मामले को अन्य मामलों की तरह ही नहीं माना जा सकता है. अलग-अलग स्थितियों में यौन शोषण के दंडात्मक परिणामों को अलग-अलग तरीके से वर्गीकृत करना विधायिका पर निर्भर है. मौजूदा कानून पति-पत्नी के बीच यौन संबंधों के लिए सहमति की अवहेलना नहीं करता है, लेकिन केवल तभी अलग व्यवहार करता है जब यह विवाह के भीतर हो. 

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केंद्र ने अपने हलफनामे में कहा कि यह दृष्टिकोण संविधान के समानता का अधिकार के अनुरूप भी है क्योंकि यह दो अतुलनीय स्थितियों (इस मामले में, विवाह के भीतर और विवाह के बाहर यौन संबंध) को समान मानने से इनकार करता है. वह महिलाओं की स्वतंत्रता और गरिमा के लिए प्रतिबद्ध है और मैरिटल रेप को अपराध बनाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसके लिए वैकल्पिक "उपयुक्त रूप से तैयार दंडात्मक उपाय" मौजूद हैं. 

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