क्या अब कबूतर तय करेंगे सत्ता की कुर्सी पर कौन बैठेगा? मुंबई में कबूतरख़ाना विवाद से जन्मी नई राजनीतिक पार्टी

आयोजकों का कहना है कि यह आंदोलन सिर्फ़ कबूतरों या जीवदया तक सीमित नहीं है, बल्कि यह धर्म, नीति और परंपरा की रक्षा का मामला है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह आने वाले बीएमसी चुनावों से पहले नया “धार्मिक वोट बैंक” बनाने की कोशिश है.

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  • मुंबई में पारंपरिक कबूतरख़ाने बंद होने के विरोध में शुरू हुआ आंदोलन राजनीतिक पार्टी में बदल गया है.
  • निलेश चंद्र ने दादर में शांति दूत जनकल्याण पार्टी की स्थापना का ऐलान किया और राजनीतिक महत्वाकांक्षा जताई.
  • यह आंदोलन धर्म, नीति और परंपरा की रक्षा का मामला बताते हुए धार्मिक वोट बैंक बनाने की कोशिश माना जा रहा है.
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मुंबई की सियासत में आज एक अनोखा मोड़ देखा गया जब पशु कल्याण को लेकर शुरू हुआ विवाद ने अब एक राजनीतिक पार्टी को जन्म दे दिया है. पारंपरिक कबूतरख़ाने बंद होने के विरोध में शुरू हुआ आंदोलन अब राजनीतिक रूप ले चुका है और शहरभर की चर्चा का केंद्र बन गया है.

नई पार्टी का जन्म

शांति दूत कबूतर जीवदया समिति के प्रमुख निलेश चंद्र ने दादर ईस्ट स्थित स्वामीनारायण मंदिर के बाहर उपस्थित भीड़ को संबोधित करते हुए घोषणा की कि अब उनकी समिति राजनीति में उतर रही है.बोले, “हमारी पार्टी का नाम होगा शांति दूत जनकल्याण पार्टी. अब सांसद भी हमारे होंगे, विधायक भी हमारे होंगे. हमें कम मत समझना, संत समाज चाहे तो सरकारें हिला सकता है.”

आयोजकों का कहना है कि यह आंदोलन सिर्फ़ कबूतरों या जीवदया तक सीमित नहीं है, बल्कि यह धर्म, नीति और परंपरा की रक्षा का मामला है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह आने वाले बीएमसी चुनावों से पहले नया “धार्मिक वोट बैंक” बनाने की कोशिश है.

मंच पर मौजूद कई हिंदू धर्मगुरुओं ने सत्ता में बैठे लोगों को चेतावनी दी, हिंदू धर्मगुरुओं में कहा, “धर्म सत्ता से ऊपर है. जब धर्मगुरु साथ आए, तब देवेंद्र फड़णवीस मुख्यमंत्री बने. सत्ता में बैठे लोगों से कहना चाहता हूँ हम कम नहीं हैं. जब भी जीव हत्या का सवाल उठेगा, पूरा संत समाज एकजुट होगा. नागा साधुओं से लेकर संत समाज तक, हर जीवन के लिए लड़ाई लड़ी जाएगी.”

अब यह सभा सिर्फ़ कबूतरों को श्रद्धांजलि देने तक सीमित नहीं रही बल्कि राजनीतिक ताकत का प्रदर्शन बन गई.

निलेश चंद्र ने कहा, “अब ये कबूतर तय करेंगे कि गद्दी पर कौन बैठेगा. पहले भाषा के अधिकार की लड़ाई होती थी, अब जीवों के अधिकार की होगी. शराब और सिगरेट पर रोक नहीं लगती, तो इन निर्दोष जीवों पर क्यों लगाई जाए?” उन्होंने बालासाहेब ठाकरे का उदाहरण देते हुए कहा, “एक ही नेता ऐसा था बालासाहेब ठाकरे. अगर वो होते तो कोई विवादित बयान नहीं दे पाता. अब लड़ाई आर-पार की होगी.”

यह बयान सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो गया. विपक्षी दलों ने इसे “धार्मिक भावनाओं को भड़काने की कोशिश” बताया.

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करुणा या राजनीति?

विशेषज्ञों के अनुसार, शांति दूत जनकल्याण पार्टी महाराष्ट्र में उभरते धार्मिक-राजनीतिक समीकरणों का संकेत देती है. मुंबई में जहां पारंपरिक धर्मस्थल और शहरी विकास का संघर्ष लंबे समय से है, यह नया मोर्चा प्रशासन के लिए चुनौती हो सकता है.

कबूतरख़ाना विवाद अब सिर्फ़ जीवदया तक सीमित नहीं रहा. यह धार्मिक पहचान, परंपरा और राजनीतिक प्रभाव की जंग बन गया है. अगर यह पार्टी चुनाव लड़ती है, तो तो इसका असर बीएमसी और विधानसभा चुनावों में दिखेगा?

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कबूतरों की मौत पर संवेदना जताने से शुरू हुआ यह आंदोलन अब संभावित राजनीतिक युग की शुरुआत दिखाता है. धर्मगुरुओं का कहना कि “धर्म सत्ता से ऊपर है” भारत की संवैधानिक व्यवस्था में नई बहस को जन्म देता है.

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