मुंबई : सुविधाहीन अंबेडकर नगर में रहने को विवश हजारों परिवार, कोर्ट के आदेश के दो दशक बाद भी नहीं हुआ पुनर्वास

1997 में ही बॉम्बे हाईकोर्ट ने यहां के 25 हज़ार परिवारों के पुनर्वास का आदेश दिया था, लेकिन करीब ढाई दशक के बाद भी करीब 13 हज़ार परिवार यहीं पर बिना किसी सुविधा रहने को मजबूर हैं.

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अंबेडकर नगर के लोग करीब ढाई दशक से पुनर्वास का इंतज़ार कर रहे हैं (प्रतीकात्‍मक फोटो)
मुंंबई:

मुंबई के मलाड इलाके में स्थित अंबेडकर नगर के लोग करीब ढाई दशक से अपने पुनर्वास का इंतज़ार कर रहे हैं. प्लास्टिक कर लकड़ी के घरों में रह रहे इन लोगों के पास न तो बिजली की सप्लाई की सुविधा है और न ही पानी की. वर्ष 2019 में भारी बारिश से दीवार ढहने से यहां 31 लोगों की मौत भी हुई थी, लेकिन फिर भी अब तक कुछ नहीं बदला. महानगरर मुंबई के मलाड इलाके में संजय गांधी नेशनल पार्क से सटकर बसा अंबेडकर नगर है, जहां प्लास्टिक और लकड़ियों के सहारे बनाए गए घरों में करीब 30 सालों से लोग रह रहे हैं. इस इलाके में पहुंचने के लिए करीब डेढ़ KM तक कच्चे रास्तों से चलना पड़ता है. 1997 में ही बॉम्बे हाईकोर्ट ने यहां के 25 हज़ार परिवारों के पुनर्वास का आदेश दिया था, लेकिन करीब ढाई दशक के बाद भी करीब 13 हज़ार परिवार यहीं पर बिना किसी सुविधा रहने को मजबूर हैं. 1 जुलाई 2019 की रात भारी बारिश के कारण यहां दीवार ढहने से 31 लोगों की मौत हुई थी उस समय एक बार फिर इनके पुनर्वास का मुद्दा जोरशोर से उठा था लेकिन बावजूद इसके कुछ नहीं हुआ. मजबूरी में खतरा मोल कर लोग यहां रहने को मजबूर हैं..

अंबेडकर नगर के लोग जरूरी सुविधाओं से मोहताज हैं 

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स्थानीय निवासी निरंजन राणा कहते हैं, 'हम कहाँ जाकर रहें? हम यही पर पैदा हुए और बड़े हुए हैं. हम लोग कहां जाएं? मेहमाननवाजी में कोई एक या दो दिन रखेगा, तीसरे दिन कोई नहीं रखेगा. हमारे छोटे-छोटे बच्चे हैं, दो साल पहले इसने खुद ने हादसा देखा था. हमारे पास कोई विकल्‍प नहीं है.' श्रीराम कदम सिक्‍युरिटी गार्ड का काम करते थे, लेकिन फिलहाल इनके पास नौकरी नहीं है. जब भी भारी बारिश होती है, जंगलों से आने वाला पानी तेज़ गति से इनके घर से बहकर जाता है. 1997 में पुनर्वसन का आदेश आने के बाद सरकार ने इनसे 7 हज़ार रुपये लिए थे, लेकिन कुछ हुआ नहीं. इलाका वन विभाग के अंतर्गत आने के कारण इन्हें सरकार न ही बिजली या पानी सप्लाई करती है. ऐसे में यह दूसरे लोगों से अवैध तरीके से ज़्यादा पैसे देकर यह सब लेने को मजबूर हैं..

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यहां रहने वाले श्रीराम कदम कहते हैं, 'हम प्लास्टिक बम्बू के घर में रहते हैं, इसे घर बोला नहीं जा सकता. जैसे रैनबसेरा होता है, लोग छुपते हैं ठंडी और गर्मी में, उसी तरह यहां गुज़ारा कर रहे हैं. यहां पर बहुत ही दिक्कत हो रही है.कोई सुविधा नहीं है. मां-बहनें खुले में शौच के लिए जाने को विवश है. मुंबई जैसे स्थान में यह बहुत शर्म की बात है.' 2019 के हादसे में किरण गुप्ता का पूरा परिवार तेज़ पानी के बहाव में बह गया था, लेकिन वो सभी खुशकिस्मत रहे कि उनकी जान बच गई. उनके घर में दूसरे दो लोगों के शव मिले थे. घर तहस-नहस हो गया था, लेकिन वो दोबारा यहीँ रह रही हैं. वे बताती हैं कि जब भी भारी बारिश होती है, बच्चे डर जाते हैं.

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किरण गुप्ता कहती हैं, 'जो 2019 में हुआ था, वही डर लगा रहता है कि वापस वैसा ही होगा.बच्चे डरकर बैठ जाते हैं, हमें खुद ही नींद नहीं आती.जहां  रात को जोरदार बारिश होता है, हम डरकर चुपचाप बैठ जाते हैं. बाहर खड़े होकर देखते हैं कि कितना पानी आया, बहुत डर लगता है. मजबूरी है इसलिए रह रहे हैं. इस पूरे मामले में 'घर बचाओ, घर बनाओ' आंदोलन से जुड़े बिलाल खान ने बॉम्बे हाइकोर्ट में याचिका दाखिल की है और अदालत ने बृहन्‍नमुंबई म्‍युनिसिपल कार्पोरेशन (बीएमसी) से अगली सुनवाई में सर्वे कर हालात के बारे में जानकारी देने कहा है, लेकिन 1997 से न जाने कितने बार ऐसे सर्वे हो चुके हैं.बिलाल कहते हैं, 'इनके साथ यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि वे शहर के सबसे गरीब लोग हैं. उनकी आवाज़ दब जाती है.उनके पास अदालत में जाने का एक्सेस नहीं होता है. आप खुद ही सोचिए, वहां रहने वाले लोग घरेलू कामगार हैं, ऑटो रिक्शा ड्राइवर हैं, छोटे मोटे काम करने वाले सिक्‍युरिटी गार्ड हैं.इनकी औसतन कमाई एक परिवार की 15 हज़ार होती है. छोटे से छोटे वकील से मिलने के हज़ारों रुपये लगते हैं तो ऐसे लोगों के लिए आज के समय न्याय मांगना बहुत ही महंगा हो गया है.' यह लोग अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं, अदालत की ओर से इनके लिए आदेश भी दिए जाते है,लेकिन उन आदेशों को ज़मीन पर लागू करने में काफी समय लग जाता है.

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