सुप्रीम कोर्ट का एक सात जजों का ऐतिहासिक फैसला आया है, जिसमें सदन में वोट देने के लिए और भाषण देने के लिए अगर कोई विधायक या सांसद रिश्वत लेता है, तो उसको अब कानूनी संरक्षण नहीं है. ऐसे विधायकों और सांसदों को भी अब एक पब्लिक सर्वेंट की तरह कानून के कठघरे में खड़ा होना पड़ेगा. यह फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में पीवी नरसिम्हा राव के केस में दिया गया अपना ही फैसला पलट दिया है. डॉक्टर विवेक शर्मा 'वोट देने के लिए रिश्वत' मामले में पक्षकार थे, वह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला हमारे लोकतंत्र में मील का पत्थर साबित होगा.
विवेक शर्मा ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले से पीवी नरसिम्हा राव के मामले में लिये गए फैसले को एक तरह से पलट दिया है. फैसले में कहा गया है कि अगर हमारे सांसद और विधायक भाषण देने या वोट करने के लिए रिश्वत लेते हैं, तो उन्हें संरक्षण नहीं मिलेगा. अगर कहा जाए कि सदन किसी मंदिर से कम नहीं हैं, जहां जतना के चुने गए प्रतिनिधियों को आम लोगों की आवाज उठाने का मौका मिलता है, अगर ऐसी जगह कोई रिश्वत लेकर वोट या भाषण देता है, तो यह स्वीकार्य नहीं है.
क्या सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला 'स्वच्छ राजनीति' की दिशा में एक कदम है? विवेक शर्मा कहते हैं, "बिल्कुल, कोर्ट का ये फैसला क्लीन पॉलिटिक्स और ईमानदार लोकतंत्र के लिए बड़ा कदम है. जब हम ईमानदार लोकतंत्र की बात करते हैं, तब वहां कोई सांसद या विधायक अगर रिश्वत लेकर सवाल करता है, तो यह ईमानदार लोकतंत्र कतई नहीं है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का प्रभाव दूर तक देखने को मिलेगा."
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि सांसदों और विधायकों को सदन में वोट डालने या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के मामले में अभियोजन से छूट नहीं होती. प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) रिश्वत मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनाए गए 1998 के फैसले को सर्वसम्मति से पलट दिया. पांच न्यायाशीधों की पीठ के फैसले के तहत सांसदों और विधायकों को सदन में वोट डालने या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के मामले में अभियोजन से छूट दी गई थी. प्रधान न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए कहा कि रिश्वतखोरी के मामलों में संसदीय विशेषाधिकारों के तहत संरक्षण प्राप्त नहीं है और 1998 के फैसले की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के विपरीत है.
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