Key Constituency 2024: लोकतंत्र में 'राजतंत्र' की रवायत रही है ग्वालियर में, क्या बदलेगा इतिहास?

देश का दिल कहे जाने वाले मध्यप्रदेश की सियासत की धड़कन है ग्वालियर. सूबे में सरकार किसी की भी हो ग्वालियर का दखल हमेशा ही रहता आया है. राज्य ही नहीं देश की सियासत में भी इस लोकसभा सीट का रसूख रहा है. इसकी वड़ी वजह ये है कि जिले ने देश को कई ऐसे सांसद दिए हैं जिन्होंने पूरे देश पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है...मसलन- पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी,राजमाता विजयाराजे सिंधिया,माधवराव सिंधिया, यशोधरा राजे

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Gwalior Lok Sabha seat 2024: यूनेस्को ने भारत में जिस शहर को 'सिटी ऑफ म्यूजिक' के तमगे से नवाजा है उस शहर का नाम है ग्वालियर...लेकिन इससे आप यदि इस भ्रम में आ गए हैं कि यहां सिर्फ गाना-बजाना ही होता होगा तो आप गलत हैं. दरअसल देश का दिल कहे जाने वाले मध्यप्रदेश की सियासत की धड़कन है ग्वालियर. सूबे में सरकार किसी की भी हो ग्वालियर का दखल हमेशा ही रहता आया है. राज्य ही नहीं देश की सियासत में भी इस लोकसभा सीट का रसूख रहा है. इसकी वड़ी वजह ये है कि जिले ने देश को कई ऐसे सांसद दिए हैं जिन्होंने पूरे देश पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है...मसलन- पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी,राजमाता विजयाराजे सिंधिया,माधवराव सिंधिया, यशोधरा राजे. (Atal Bihari Vajpayee, Rajmata Vijayaraje Scindia, Madhavrao Scindia, Yashodhara Raje) ये सीट साल 1952 में अस्तित्व में आई. उसके बाद से ही यहां की जनता ने कभी किसी एक पार्टी का साथ नहीं दिया बल्कि यहां जीत उसी नेता की होती है जिसको जयविलास पैलेस (Jaivilas Palace)का समर्थन होता है. ग्वालियर संसदीय सीट के सियासी मूड पर तफ्सील से बात करेंगे लेकिन पहले फटाफट जान लेते हैं खुद ग्लावियर का इतिहास क्या है? 

ग्वालियर जिले का ठीक-ठाक इतिहास छठी शताब्दी से शुरू होता है. बाद में यहां तोमर राजवंश का शासन हुआ जिसे ग्वालियर का स्वर्णिक काल कहा जाता है. राजा मान सिंह तोमर ने अपने सपनों का महल, मैन मंदिर पैलेस बनवाया. जिसे बाबर ने  " भारत के किलों के हार में मोती" और "हवा भी इसके मस्तक को नहीं छू सकती" के रूप में उल्लेख किया था. बाद में सिंधिया घराने ने 1730 में इस किले पर कब्जा कर लिया और उतार-चढ़ाव के बीच तब से लेकर भारत की आजादी तक उनका ही शासन रहा. यही वजह से कि ग्वालियर में कोई भी चुनाव हो महल का दखल दिख ही जाता है. ग्वालियर लोकसभा सीट पर 19 लाख से अधिक वोटर हैं जिसमें करीब 8.50 लाख पुरुष और 7.50 लाख के करीब महिला मतदाता हैं.यहां की 51.04 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र और 48.96 फीसदी आबादी शहरी क्षेत्र में रहती है. ग्वालियर में 19.59 फीसदी लोग अनुसूचित जाति के हैं और 5.5 फीसदी लोग अनुसूचित जनजाति के हैं. 

ग्वालियर में अब तक 19 बार लोकसभा के चुनाव हुए हैं जिसमें से 8 बार कांग्रेस, 5 बार बीजेपी और 2 बार हिंदू महासभा को जीत मिली है. शुरू में दो बार जनसंघ का परचम रहा क्योंकि तब के महाराजा का झुकाव उनकी ओर था. इस सीट से बसे अधिक पांच बार सांसद रहे हैं वर्तमान केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधवराव सिंधिया. एक दौर ऐसा भी आया कि माधवराव ने कांग्रेस से अलग होकर मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस बना ली...तब भी ग्लावियर सीट से उन्हें ही जीत मिली. इस सीट का एक और दिलचस्प किस्सा है.

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बात 1984 की है. अटल बिहार वाजपेयी यहां से चुनावी मैदान में थे. नामांकन दाखिल करने की अंतिम तिथि को शाम को अचानक ही माधवराव सिंधिया ने यहां से पर्चा भर दिया. तब आडवाणी ने अटल जी को कहा था कि वे अपना सीट बदल लें और कोटा से चुनाव लड़ लें. लेकिन अटल ग्वालियर से ही चुनाव लड़ने पर अड़ गए और उन्हें हार का स्वाद चखना पड़ा. बाद खुद अटल ने बताया था- यदि मैं कोटा से चुनाव लड़ता तो माधवराव सिंधिया के खिलाफ राजमाता ग्वालियर से चुनाव लड़तीं और मैं नहीं चाहता था कि किसी भी कीमत पर मां-बेटे का मनमुटाव सड़क पर आए.

इस चुनाव के दौरान खुद राजमाता न तो बेटे का विरोध कर सकीं और ना ही अटल को जिताने की अपील. तब राजमाता ने चुनावी सभा में कहा था-एक ओर पूत है और दूसरी ओर सपूत.अब फैसला आपके हाथ में हैं.

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कुल मिलाकर ग्वालियर सीट का कुल जमा इतिहास ये है कि 1957 में हुए चुनाव में यहां कांग्रेस के सूरज प्रसाद को जीत मिली थी, लेकिन 1967 में यह सीट कांग्रेस के हाथ से फिसलकर जनसंघ के खाते में चली गई. सके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने यहां झंडा बुलंद किया, लेकिन 1984 में फिर से जनता ने कांग्रेस के माधवराव सिंधिया को अपना समर्थन दिया. साल 2001 में माधवराव सिंधिया के निधन के बाद साल 2007 और 2009 में यशोधराराजे सिंधिया ने यहां भाजपा की जड़ें मजबूत कीं. साल 2014 में नरेन्द्र सिंह तोमर जीत हासिल कर यहां भगवा लहराया. सिंधिया राजघराने के असर में रहने वाले ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र के चुनाव परिणाम बताते हैं कि यहां लोकतंत्र में राजतंत्र का दबदबा रहा है. लेकिन इसके साथ ही ये भी सही है वक्त बीतने के साथ-साथ राजशाही जनता के और करीब आई है. अब देखना ये है कि इस बार ग्वालियर के चुनावी अखाड़े में कौन-कौन से सूरमा उतरते हैं और जनता किसके माथे पर जीत का ताज सजाती है.

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