बच्चियों के लिए सेफ़ माहौल बनाने के कितने फ़ायदे - जान लीजिए, प्लीज़

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नई दिल्ली:

गुस्सा फिर उबल रहा है. मामला चाहे कोलकाता हॉस्पिटल का हो या मुंबई से सटे ठाणे का. मलयालम फिल्म इंडस्ट्री का डर्टी सीक्रेट बाहर आ ही चुका है. गुस्सा कई डिग्री और बढ़ जाता है, जब पता चलता है कि इतने जघन्य अपराधों में भी न्याय मिलने में 32 साल तक लग जाते हैं, जैसा अजमेर के एक मामले में हुआ.

अच्छी बात है कि इस बार गुस्सा रूटीन नहीं है. इस हॉरर शो को राजनीति के चश्मे से भी नहीं देखा जा रहा है.  राजनीतिक क्लास अपनी साख बचाने की कोशिश में लगा है. पुलिस प्रशासन सहमा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया है.

अच्छी बात है कि इस बार गुस्सा उस पॉवरफुल सिस्टम के ख़िलाफ़ है, जिसमें पॉवर को अपने हिसाब से इस्तेमाल करने में कुछ प्रीडेटर बेशर्मी की सारी हदें पार कर जाते हैं. गुस्सा अब उस पैट्रियार्की या पितृसत्तात्मकता, यानी पुरुष-प्रधानता के ख़िलाफ़ है, जो दुनियाभर में हो रहे सारे भेदभाव की जड़ है.

पैट्रियार्की वह फ़साद है, जो जंगल के क़ानून के हिसाब से चलता है. यहां 'माइट इज़ राइट' माना जाता है. उसके पास पॉवर है, तो अपने हिसाब से कुछ भी कर सकता है - अपनी ताकत से, अपने रसूख से, अपनी पहुंच से, व्यवस्था को तोड़-मरोड़कर भी, और बलपूर्वक दूसरे का हक छीनकर भी.

क़ागज़ पर हम जंगल के क़ानून को पीछे छोड़ आए है न...? लेकिन जंगली फिर भी घूम रहे हैं - कोलकाता में, अजमेर में, कोच्चि में, बरेली में, ठाणे में, पटना में, सतना में, कठुआ में, हाथरस में... लिस्ट में हज़ारों नाम जोड़ सकते हैं. लाखों-करोड़ों लोग हैं, जो जंगल के क़ानून, यानी पैट्रियार्की में अब भी आस्था रखते हैं.

लेकिन इस बार गुस्सा इसी जंगल का क़ानून मानने वालों के ख़िलाफ़ है, क्योंकि लोगों को पता है कि जंगल के क़ानून चंद लोगों के स्वार्थ ही पूरा करते हैं. वे न डेमोक्रेटिक होते हैं, न समाज को दूसरे फ़ायदे पहुंचा सकते हैं.

गुस्सा इसलिए भी है कि रूल ऑफ लॉ मानने वालों को पता है कि महिलाओं के लिए सेफ़ माहौल रखने के कितने फ़ायदे हो सकते हैं. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइज़ेशन (ILO) ने 2018 में एक सर्वे करवाया था, जिसके आंकड़े चौंकाने वाले रहे. एक तरफ़, जहां 2-3 प्रतिशत प्रॉफ़िट मार्जिन बढ़ाने में भी कंपनियों के पसीने छूट जाते हैं, वहीं पाया गया कि किसी कंपनी के बोर्ड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ता है, तो प्रॉफ़िट मार्जिन 5 से 20 प्रतिशत तक बढ़ जाता है.

सर्वे की कुछ अन्य अहम बातें कुछ इस तरह थीं...

  • महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ने से कंपनियों के मुनाफ़े और प्रोडक्टिविटी बढ़ने की संभावना 63 प्रतिशत तक बढ़ जाती है...
  • अच्छे टैलेंट को रीटेन करना 60 प्रतिशत आसान हो जाता है...
  • इनोवेशन की संभावना 59 प्रतिशत बढ़ जाती है...
  • कंपनी की साख 58 प्रतिशत बढ़ जाती है...
  • कन्ज़्यूमर को समझना 38 प्रतिशत आसान हो जाता है...

इतने फ़ायदे...? लेकिन फिर भी कुछ नहीं बदल रहा. अब नज़र डालिए कि UN की एक रिपोर्ट में क्या कहा गया है. पूरी दुनिया में 270 करोड़ महिलाओं को नौकरी करने का वह हक नहीं है, जो पुरुषों को है. जिन 190 देशों का आकलन किया गया, उनमें से 69 ऐसे देश हैं, जहां महिलाओं के लिए हर क्षेत्र में काम करने पर कोई न कोई रोक है, और 43 देशों में तो ऑफ़िस में महिलाओं के साथ यौन शोषण रोकने के क़ानून भी नहीं हैं.

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UN की उसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पूरी दुनिया में सिर्फ़ 61 प्रतिशत महिलाएं जॉब मार्केट में एन्ट्री की कोशिश करती हैं, जबकि पुरुषों में यही दर 90 प्रतिशत से ज़्यादा है. और अगर महिला मां बन जाती हैं, तो उनमें से आधी ही जॉब मार्केट में एन्ट्री के अवसर पाती हैं. पुरुषों को पिता बनने के बाद ऐसी कोई रेस्ट्रिक्शन नहीं है.

जेंडर डायवर्सिटी के इतने फ़ायदे, फिर महिलाओं के काम पर इतने सारे प्रतिबंध - ऐसा भेदभाव समझ से परे है. पैट्रियार्की-जनित जंगलराज में ही ऐसा हो सकता है.

सवाल है कि पैट्रियार्की फिर भी इतनी मज़बूत क्यों है. ज़ाहिर है, इसमें कुछ पॉवरफुल लोगों का स्वार्थ जुड़ा है. रसूख वाले नहीं चाहते कि जंगलराज के बदले रूल ऑफ लॉ कायम हो. रसूख के नाम पर उन्हें जो फ़्री पर्क्स मिलते हैं, रूल ऑफ लॉ कायम होने से उनके छिन जाने का डर सताता है.

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पैट्रियार्की का अंश हम सबके अंदर है - पुरुषों में भी, कुछ महिलाओं में भी. किसी में कम, किसी में ज़्यादा. लेकिन हम यह नहीं समझ पाते हैं कि वह जंगलराज का ऐसा अंश है, जो अब भी फल-फूल रहा है.

लेकिन देश के ताज़ा हालात उम्मीद जगाते हैं कि पैट्रियार्की की पकड़ थोड़ी कमज़ोर ज़रूर होगी. 'निर्भया आंदोलन' के बाद भी ऐसा हुआ था. 'मी टू आंदोलन' के बाद भी पैट्रियार्की का घिनौना चेहरा थोड़ा डरा था. हम सभी को मज़बूती से समझना होगा कि पैट्रियार्की के ध्वस्त होने में हम सबकी भलाई है. इतनी उम्मीद हम रख ही सकते हैं.

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