- जुलाई 2017 में मेरु पर्वत के हिस्से से भारी भूस्खलन हुआ था, जिससे मलबा गंगा नदी में जमा हो रहा है.
- मलबा धीरे-धीरे गंगोत्री धाम और निचले इलाकों में पहुंच रहा है. मानसून में भारी बारिश से बाढ़ का खतरा बन सकता है
- विशेषज्ञों ने आपदा प्रबंधन के लिए हिमालय में अध्ययन केंद्र और अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाने की बात कही है.
क्या गंगोत्री धाम और उसके निचले क्षेत्रों में भी बाढ़ जैसे हालात हो सकते है? क्योंकि गौमुख क्षेत्र में साल 2017 में मेरू पर्वत के हिस्से में बहुत बड़ा लैंडस्लाइड हुआ था, जिसका मलबा लगातार निचले इलाकों में गंगा के पानी के साथ बहकर इकट्ठा हो रहा है, अगर मानसून सीजन में कोई ऊपरी क्षेत्र में बादल फटा या ज्यादा बारिश हुई तो यह मलबा बाढ़ ला सकता है.
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के ग्लिसरोलॉजिस्ट वैज्ञानिक डॉ राकेश भांबरी के मुताबिक जुलाई 2017 में तीन दिनों की भारी बारिश ने गौमुख के पास मेरु पर्वत जो कि 6,660 मीटर (21,850 फीट) की ऊंचाई पर है, उसके एक हिस्से से बड़ा भूस्खलन हुआ था. मेरु पर्वत से गिरे मलबे ने गोमुख से निकल रही गंगा की धारा को भी रोकने की कोशिश की थी. लेकिन धीरे-धीरे वहां से गंगा की जलधार निकल रही है. डॉ भांबरी कहते हैं कि ये मलबा धीरे धीरे निचले इलाकों में पानी के साथ आ रहा है जिसमें गंगोत्री धाम और उसके पास वाले इलाके आते हैं. अगर ऊपरी इलाकों में भारी बारिश हुई या कोई बादल फटने जैसी घटना हुई तो निचले इलाकों में बाढ़ आ सकती है, जो सैलाब का रूप ले सकती है.
गोमुख से नीचे की तरफ आ रहा है मलबा
एनडीटीवी की टीम गंगोत्री धाम पहुंची, जहां टीम ने देखा कि गंगोत्री धाम के पास बह रही भागीरथी नदी (गंगा नदी) की जलधारा बेहद कम थी. नदी में बड़ी तादाद में बड़े-बड़े बोल्डर और मलबा जमा हो गए हैं, लगातार ऊपर हो रही मानसून में बारिश इसे नीचे ला रही है. गंगोत्री धाम से गोमुख लगभग 14 से 18 किलोमीटर के बीच है और ऐसे में यह सारा मलबा ऊपरी इलाकों से, गोमुख से नीचे की तरफ आ रहा है.
लगातार बढ़ रहा है धरती का तापमान
वैज्ञानिक इसके पीछे का कारण बताते हैं कि लगातार धरती का तापमान बढ़ रहा है, जिससे मौसमी चक्र बदल गया है. बारिश अब चार हजार मीटर तक चली गयी है जहां बर्फ पड़ती थी और ग्लेशियर होते थे. इन जगहों पर ग्लेशियर का मलबा यानी मोरेन जिसमें बड़े-बड़े बोल्डर और रेत का मैटेरियल होता है. भारी बारिश के चलते ये निचले इलाकों में पहुंच रहा है, जिस तरीके से धराली में आपदा आई थी और उस सैलाब में हजारों टन मलबा आया था और भारी तबाही मचाई थी.
उत्तराखंड में 960 से ज्यादा ग्लेशियर मौजूद
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के ग्लिसरोलॉजिस्ट, पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ डीपी डोभाल भी यही बताते हैं कि उत्तराखंड में लगभग 960 से ज्यादा ग्लेशियर हैं और सभी ग्लेशियर के 4000 मीटर वाले क्षेत्रों में इस तरह का मलबा यानी मोरेन भारी मात्रा में पड़ा हुआ है. तापमान बढ़ रहा है, जहां बर्फ पड़नी चाहिए वहां भारी बारिश हो रही है, जिससे यह सारा मलबा नीचे इन इलाकों में भारी तबाही ला सकता है.
खतरों से निपटने के लिए तैयारी करने की जरूरत
डॉ डीपी डोभाल कहते हैं कि इन खतरों से आने वाले समय के लिए हमें तैयारी करनी चाहिए, जिसके लिए उत्तराखंड में हिमालय के ग्लेशियरों के अध्ययन के लिए एक सेंटर होना चाहिए. इसके अलावा अर्ली वार्निंग सिस्टम और वेदर सिस्टम ऊपरी हिमालय क्षेत्र में लगे होने चाहिए, ताकि हमें यह पता लग सके कि हिमालय के ऊपरी क्षेत्र में कितनी बारिश हो रही है. उसका क्या पैमाना है और उसकी तीव्रता कितनी है. इसके अलावा ग्लेशियर की सेहत कैसी है, उसकी लगातार मॉनिटरिंग होनी चाहिए, तब जाकर हम आने वाले खतरों से बच सकते हैं.