Explainer: 15% तक बढ़ी ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार, एक्सपर्ट्स ने समझाया ग्लोबल वॉर्मिंग कितना बड़ा खतरा

ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण 1.5 डिग्री पारा बढ़ने से हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार 15% तक बढ़ रही है. प्राकृतिक आपदा की स्थिति में इन ग्लेशियर झीलों के फटने से बड़ी मात्रा में अचानक पानी का बहाव होगा, इससे आसपास के इलाकों में बड़ी तबाही की आशंका है.

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नई दिल्ली:

ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming) का असर दुनिया भर में देखा जा रहा है. भारत में भी इसका असर है. बाढ़, बेमौसम बरसात, शहरों में पानी से उफनती सड़कें, भीषण गर्मी, गर्मियों के ज्यादा होते महीने और सिकुड़ती सर्दियां जलवायु परिवर्तन का अलार्म है. बेहद संवेदनशील हिमालयन क्षेत्र में अब ग्लेशियर झीलों में बाढ़ या कहे ग्लेशियर के पिघलने का खतरा मंडरा रहा है. कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश की 28,043 ग्लेशियर झीलों में से 188 झीलें कभी भी तबाही का बड़ा कारण बन सकती हैं. 

दरअसल, हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की वजह से जब तापमान बढ़ता है, ग्लेशियर तेज़ी से पिघलते हैं. पिघलने से ग्लेशियर अपनी जगह से खिसकने लगते हैं. इस वजह से इलाके में नए ग्लेशियर लेक्स (हिमनद झील) बनते हैं. यही वजह है कि इस क्षेत्र में Glacial Lake Outburst Floods यानी GLOFs का खतरा बड़ा हो रहा है. इसे आप ग्लेशियर से बनी झीलों का फटना भी कह सकते हैं.

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ISRO ने 11 साल पहले जताया था अंदेशा 
भारत के अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ISRO के दो वैज्ञानिकों ने 11 साल पहले ही ऐसे हादसे का अंदेशा जताया था. इन वैज्ञानिकों का 'करेंट साइंस' जर्नल में एक रिसर्च पेपर छपा था, जिसमें उन्होंने आगाह किया था कि सिक्किम का साउथ लोहांक ग्लेशियर सिकुड़ रहा है. इसकी वजह से Lake outburst और आपदा का अंदेशा है. रिसर्च पेपर के मुताबिक, साउथ लोहांक ग्लेशियर का आकार 1962 से 2008 के बीच घटा है. ये ग्लेशियर 1.9 KM तक छोटा हुआ है.

संसदीय समिति ने आगाह किया था कि सिक्किम और पूरे हिमालयन क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं और वहां ग्लेशियर और ग्लेशियर झीलों की मॉनिटरिंग सही तरीके से नहीं हो पा रही है, क्योंकि हिमालय क्षेत्र में निगरानी स्टेशन की कमी है. इस बढ़ते खतरे से निपटने के लिए एक मजबूत चेतावनी सिस्टम बनाने की जरूरत है.


सभी ग्लेशियरों की मैपिंग शुरू
जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर के पिघलने से बढ़ते खतरे को देखते हुए नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट ऑथोरिटी ने बड़े स्तर पर पूर्वी हिमालय क्षेत्र में सभी ग्लेशियरों की मैपिंग करना शुरू की है. संवेदनशील इलाकों में अर्ली वॉर्निंग सेंसर्स लगाने की तैयारी है. शुरुआती तौर पर अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में ग्लेशियरों की मैपिंग शुरू की गई है.  

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ग्लेशियर के पिघलने से बह गए 5 पुल

अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में संगंगा नेहगू झील (Sangnga Nehgu Lake) से हुए ग्लेशियर लेक आउटबर्स की वजह से पांच से अधिक पुल बह गए. अब अरुणाचल प्रदेश में तवांग और दिवांग घाटी के जिलों के 6 सबसे ज़्यादा हाई रिस्क ग्लेशियर झीलों की स्टडी और सर्वे का काम शुरू किया गया है. भारत-चीन सीमा से सटे अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में ग्लेशियरों का ये पहला सर्वे है.  

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सिक्किम सरकार ने लिया संवेदनशील ग्लेशियर झीलों की स्टडी का फैसला
सिक्किम सरकार ने 28 अगस्त से 14 सितंबर के बीच 32 एक्सपर्ट को 5 अलग-अलग अति संवेदनशील ग्लेशियर झीलों (Glacial Lakes) को स्टडी करने के लिए भेजने का फैसला किया है. जिन संवेदनशील ग्लेशियरों की स्टडी करने का फैसला किया गया है, उनमें Gurudongmar A, B और C lakes, Sakho Chu and Khangchu lake... ये सभी Mangan District में स्थित हैं जिनकी सीमा तिब्बत से मिलती है.

संदीप तांबे को सौंपी गई जिम्मेदारी
इस सर्वे की अध्यक्षता सिक्किम राज्य के साइंस एंड टेक्नोलॉजी सेक्रेटरी संदीप तांबे को सौपीं गई है. संदीप स्टेट डिज़ास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी से जुड़े 6 अलग-अलग विभागों के एक्सपर्ट के साथ इस एक्सपीडिशन को लीड करेंगे. इस सर्वे में इंडियन आर्मी और इंडो तिब्बत बॉर्डर पुलिस के अधिकारी, जवान भी शामिल होंगे। इससे पहले 2023 में साउथ लोहांक लेक (South Lhonak Lake) में  हुए Glacial Lake Outburst Flood डिज़ास्टर से पहले सर्वे की कोशिश हुई थी, जिसमें स्विट्ज़रलैंड से आए एक्सपर्ट भी शामिल थे.

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संदीप तांबे कहते हैं, "हम एक हाईटेक स्टडी करने जा रहे हैं, ताकि ग्लेशियल लेक्स की जियोलॉजी को समझने में मदद मिले. इस स्टडी से हमें ग्लेशियर के बिहेवियर, स्लोप की स्टेबिलिटी और एवलांस के बारे में जानकारी मिलेगी."

अरुणाचल-सिक्किम ही नहीं, उत्तराखंड और हिमाचल में भी खतरा
ग्लेशियरों पर खतरा सिर्फ अरुणाचल-सिक्किम क्षेत्र में ही नहीं है. पिछले दिनों सोशल मीडिया में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के धारचूला में ओम पर्वत पर बर्फ से बनी ओम आकृति के गायब होने की एक फोटो वायरल हुई. वहां महज एक काले पहाड़ की तस्वीर दिखी. स्थानीय निवासी उर्मिला सनवाल गुंज्याल ने दावा किया कि वह 16 अगस्त 2024 को ओम पर्वत के दर्शन के लिए गईं थीं. लेकिन जब वह फोटो खींचने के लिए नाभीढांग गईं तो उन्हें पर्वत पर ओम नजर नहीं आया.

पिथौरागढ़ जिले में ओम पर्वत 5,900 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग पर स्थित नाभीढांग से ओम पर्वत के दर्शन होते हैं. बर्फ पिघलने की जानकारी से पवित्र ओम पर्वत पर आस्था रखने वाले शिव भक्त निराशा थे. आदि कैलाश की यात्रा पर आने वाले तीर्थ यात्रियों में भी भ्रम की स्थिति बनी थी, लेकिन अब खबर है कि बर्फबारी होने से ओम पर्वत पर ओम का चिह्न फिर दिखाई देने लगा है. लेकिन ये घटनाएं साफ दर्शाती हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर हिमालय क्षेत्र पर गहराता जा रहा है.

पिथौरागढ़ में 4 ग्लेशियर बेहद संवेदनशील
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में चार ग्लेशियर झीलों का पता चला है, जो खतरे के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं.  हिमालयी इलाके में कम से कम चार ऐसी हिमनदियां हैं, जो पिथौरागढ़ के लिए तबाही की वजह बन सकती हैं. ये ग्लेशियर पिथौरागढ़ ज़िले के दारमा, लासार, यंगति , कुठि यंगति क्षेत्र में हैं. जुलाई में इनकी स्टडी के लिए एक टीम भेजी गई थी. उत्तराखंड में 13 ऐसे ग्लेशियरों की पहचान हुई है, जिन्हें संवेदनशील माना जा रहा है. इन्हें पंक्चर कर पानी निकालने की योजना पर काम हो रहा है.

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उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग के पूर्व सचिव रणजीत सिन्हा कहते हैं, "ग्लेशियर झील अगर ज्यादा उसमें पानी होता है, तो उसको पंचर करने के लिए टीम भेजी जाएगी. उसमें पाइप लगाई जाएगी, जिससे पानी बाहर निकल जाएगा. टीम झील की स्टडी करें कि उसमें कितना पानी है? कितना बड़ा साइज है? किस तरह की वह झील है, उसमें इंस्ट्रूमेंटेशन और मिटिगेशन की कार्रवाई की जाएगी?" हालांकि, यह काम आसान नहीं है. इसका एक पूरा वैज्ञानिक तरीका है, जिसके लिए स्टडी बेहद ज़रूरी है.

क्या होगा वैज्ञानिक तरीका?
वाडिया इंस्टीट्यूट के पूर्व सीनियर साइंटिस्ट डॉ. डीपी डोभाल कहते हैं, "सबसे पहले झील में किसी एक्सपट्र्स को ले जाकर उसकी स्टडी करवाना बेहद जरूरी है. यह जानना जरूरी है कि इस झील की सिचुएशन क्या है. यह झील कैसी है. यह मोरेन पर है या फिर ग्लेशियर के ऊपर है, इसका पता लगाना जरूरी है. पुराना डेटा हमारे पास नहीं है, लेकिन आज की डेट में यह देखा जा सकता है कि यह झील बड़ी हो रही है या फिर गहरी है या फिर इसका साइज कैसा है."

केंद्रीय जल आयोग ने ग्लेशियरों पर जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर को देखते हुए उनकी रिस्क मैपिंग करनी शुरू कर दी है. अभी हिमालय क्षेत्र में 902 ग्लेशियर की मॉनिटरिंग की जाती है, अब ये तय किया गया है कि अगले 2 साल में हम 2500 ग्लेशियरों की मॉनिटरिंग की जाएगी.

रिमोट सेंसिंग के जरिए हो रही मैपिंग
सेंट्रल वॉटर कमीशन के चेयरमैन कुशवेंद्र वोहरा कहते हैं, "हमने रिमोट सेंसिंग के जरिए हिमालय क्षेत्र में 902 ग्लेशियरों की रिस्क मैपिंग करने की प्रक्रिया शुरू की है. हम रिमोट सेंसिंग के जरिए ग्लेशियर लेक्स की मैपिंग कर रहे हैं... ग्लेशियरों की साइज बढ़ रही है या घट रही है...  उसका क्या असर हो सकता है... इसकी भी समीक्षा की जा रही है. हम हिमालय क्षेत्र में नए अर्ली वॉर्निंग सिस्टम लगाएंगे, जिससे ग्लेशियर टूटने की वजह से होने वाली आपदाओं के बारे में एजेंसियों को सही वक्त पर आगाह कर सके."

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पहाड़ी इलाकों में बढ़ रहा लैंडस्लाइड का खतरा
पहाड़ी इलाकों में लैंडस्लाइड का खतरा भी बढ़ता जा रहा है. ऐसे ही एक लैंडस्लाइड में NHPC के तीस्ता पावर प्लांट का एक हिस्सा बह गया. इस भयंकर डिज़ास्टर में NHPC की 510 मेगावाट की तीस्ता स्टेज V जलविद्युत परियोजना का एक हिस्सा पूरी तरह से बर्बाद हो गया.

सिक्किम आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (SDMA) के उपाध्यक्ष डॉ. विनोद शर्मा ने कहा, "क्लाइमेंट चेंज की वजह से सिक्किम में बारिश की तीव्रता बढ़ने से Soil Erosion यानी मिट्टी का कटाव तेज़ी से हो रहा है. इस वजह से लैंडस्लाइड से जुड़े डिज़ास्टरों की संख्या बढ़ती जा रही है."

सिक्किम आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (SDMA) के उपाध्यक्ष विनोद शर्मा कहते हैं, "क्लाइमेट चेंज (Climate Change) की वजह से सिक्किम में बारिश की तीव्रता बढ़ी है. इससे  मिट्टी का कटाव यानी Soil Erosion तेज़ी से हो रहा है. इसलिए सिक्किम समेत पूरे हिमालय क्षेत्र में लैंडस्लाइड की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. हिमालय क्षेत्र में एक साल में औसतन करीब 20,000 छोटी-बड़ी लैंडस्लाइड की घटनाएं रिकॉर्ड की जा रही हैं. अगर आप वेस्टर्न घाट (Western Ghats) को जोड़ लें, तो देश में हर साल औसतन करीब 30,000 छोटी-बड़ी लैंडस्लाइड की घटनाएं हो रही है."

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