एल्गार परिषद-माओवादी संबंध मामले के आरोपियों में से एक सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा ने सह-आरोपी सुधा भारद्वाज की तरह ही अपने लिए भी ‘डिफ़ॉल्ट' जमानत की मांग करते हुए बम्बई उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है. सुधा भारद्वाज को दिसंबर 2021 में ‘डिफॉल्ट' जमानत मिली थी.
फरेरा की याचिका शुक्रवार को न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे और न्यायमूर्ति शर्मिला देशमुख की खंडपीठ के समक्ष सुनवाई के लिए सूचीबद्ध थी, लेकिन न्यायमूर्ति डेरे ने बिना कोई कारण बताये खुद को सुनवाई से अलग कर लिया. अब यह याचिका दूसरी पीठ के समक्ष सूचीबद्ध की जाएगी.
अधिवक्ता सत्यनारायणन आर. के जरिए दायर अपनी याचिका में कार्यकर्ता ने कहा कि उनका मामला भारद्वाज के समान ही है, जिन्हें उच्च न्यायालय द्वारा डिफ़ॉल्ट जमानत दी गई थी. याचिका में कहा गया है, 'एकमात्र विशिष्ट कारक यह है कि याचिकाकर्ता (फरेरा) ने 94 वें दिन ‘डिफ़ॉल्ट' जमानत की अर्जी (निचली अदालत में) दायर की, जबकि सह-आरोपी सुधा भारद्वाज ने इसे 91 वें दिन दायर की थी.'
उच्च न्यायालय ने भारद्वाज को ‘डिफ़ॉल्ट' जमानत देते हुए कहा था कि पुणे सत्र अदालत ने पुणे पुलिस को आरोप-पत्र दाखिल करने के लिए 90 दिनों की अनिवार्य अवधि समाप्त होने के बाद कुछ और मोहलत दी थी, जबकि सत्र अदालत के पास इसका अधिकार क्षेत्र नहीं था.
याचिका में कहा गया है, 'इस निर्णय का लाभ इस याचिकाकर्ता (फरेरा) को भी दिये जाने की आवश्यकता है. उच्च न्यायालय ने दिसंबर 2021 में अन्य आठ आरोपियों को ‘डिफ़ॉल्ट' जमानत देने से इनकार करते हुए कहा था कि उन्होंने समय पर ‘डिफ़ॉल्ट' जमानत लेने के अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं किया था.
संबंधित निर्णय में कहा गया था कि भारद्वाज ने पुणे की अदालत के समक्ष एक याचिका दायर की थी, जिसमें आरोप पत्र दाखिल करने की 90 दिनों की अवधि समाप्त होने के साथ ही डिफ़ॉल्ट जमानत की मांग की गई थी, जबकि इन आठ आरोपियों ने अपनी अर्जियां दाखिल करने में देरी की थी.
फरेरा को अगस्त 2018 में गिरफ्तार किया गया था और प्रतिबंधित आतंकी संगठन भाकपा (माओवादी) का सदस्य होने और माओवादी विचारधारा का प्रचार करने के लिए राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत मामला दर्ज किया गया था.
संबंधित मामला 31 दिसंबर, 2017 को पुणे के शनिवारवाड़ा में आयोजित एल्गार परिषद सम्मेलन में दिए गए कथित भड़काऊ भाषणों से संबंधित है, जिसके बारे में पुलिस ने दावा किया था कि शहर के बाहरी इलाके में कोरेगांव-भीमा युद्ध स्मारक के पास अगले दिन हिंसा हुई थी. राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को स्थानांतरित करने से पहले मामले की जांच करने वाली पुणे पुलिस ने दावा किया था कि सम्मेलन को माओवादियों का समर्थन प्राप्त था.
निर्धारित समय के भीतर जांच पूरी नहीं होने या आरोपपत्र दाखिल नही करने की स्थिति में आरोपी डिफ़ॉल्ट जमानत मांगने का पात्र हो जाता है।
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