दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि कि न्यायपालिका की भूमिका प्राथमिक तौर परकेवल एक क़ानून की वैधता का परीक्षण करने के लिए है किसी संशोधन या बदलाव के लिए नहीं. कोर्ट ने गैर फिल्मी गानों की समीक्षा के लिए नियामक प्राधिकरण या सेंसर बोर्ड को सेंसर या समीक्षा करने के लिए निर्देश देने की मांग करने वाली याचिका को खारिज करते हुए यह बात कही. मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा की अगुवाई वाली दिल्ली हाईकोर्ट की बेंच ने कहा, "न्यायपालिका की भूमिका मूल रूप से केवल एक क़ानून की वैधता का परीक्षण करने के लिए है, किसी संशोधन के लिए नहीं. ट्रिब्यूनलों, प्राधिकरणों, नियामकों की स्थापना विशुद्ध रूप से विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आती है न कि न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में."
अदालत की यह टिप्पणी एक याचिका में पारित एक आदेश में आई है, जिसमें विभिन्न माध्यमों से आम जनता को उपलब्ध कराए जा रहे गैर-फ़िल्मी गानों और वीडियो को सेंसर करने और उसकी समीक्षा करने के लिए एक नियामक प्राधिकरण/सेंसर बोर्ड का गठन करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देने की मांग की गई थी. याचिका में मांग की गई थी कि टीवी, यूट्यूब आदि जैसे मीडिया प्लेटफॉर्म और गैर-फ़िल्मी गीतों के संगीतकारों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि ऐसे गीतों को सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराने से पहले प्रमाणन हासिल किया जाए.
कोर्ट ने 24 जनवरी को याचिका खारिज करते हुए कहा, जहां तक टेलीविजन का संबंध है, सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 और केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995 इन पर प्रसारित होने वाली सामग्री के नियमन के मुद्दे को देखते हैं. ऐसे में याचिकाकर्ता का यह तर्क कि कोई नियामक प्राधिकरण नहीं है,गलत है.
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