- चोल साम्राज्य ने 9वीं से तेरहवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में अपना प्रभाव स्थापित किया था.
- राजराज चोल प्रथम ने तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर का निर्माण कराया.
- राजेंद्र चोल प्रथम ने गंगा नदी तक सैन्य अभियान कर गंगैकोंड चोल की उपाधि प्राप्त की.
चोल सम्राट राजेंद्र चोल प्रथम की आज जयंती है. इस खास मौके पर पीएम मोदी ने गंगैकोंडा चोलपुरम मंदिर में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में हिस्सा लिया. इस खास मौके पर पीएम मोदी ने अपना संबोधन भी दिया. इस मौके पर उन्होंने कहा कि एक प्रकार से ये राज राजा की श्रद्धा भूमि है और आज इलैयाराजा ने जिस प्रकार हम सभी को शिवभक्ति में डुबो दिया.क्या अद्भुत वातावरण था. मैं काशी का सांसद हूं, जब मैं 'ॐ नमः शिवाय' सुनता हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. शिव दर्शन की अद्भुत ऊर्जा, ये आध्यात्मिक अनुभव मन को भावविभोर कर देता है.
आपको बता दें कि दक्षिण भारत का चोल साम्राज्य एक ऐसा शक्तिशाली और प्रभावशाली साम्राज्य था, जिसने 9वीं से 13वीं शताब्दी तक अपनी सैन्य शक्ति, प्रशासनिक कुशलता, व्यापारिक समृद्धि, और सांस्कृतिक योगदान के लिए काफी यश और ख्याति प्राप्त की थी. तमिलनाडु के कावेरी नदी के डेल्टा क्षेत्र में केंद्रित चोल राजवंश ने दक्षिण भारत, श्रीलंका, मालदीव, और दक्षिण-पूर्व एशिया तक अपने प्रभाव का विस्तार किया था. चोलों का वैभव उनके समुद्री व्यापार, मंदिर निर्माण, कला, साहित्य, और नौसैनिक शक्ति में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. इस राजवंश का इतिहास उस कालखंड तक जाता है, जब वे संगम युग यानी लगभग 300 ई.पू. से 300 ई. तक में तमिलनाडु के प्रमुख राजवंशों में से एक थे. संगम युग दक्षिण भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण काल है. इस दौरान, तमिल साहित्य और संस्कृति फली-फूली और तीन प्रमुख राजवंशों, चेर, चोल और पांड्य, का उदय हुआ.
संगम साहित्य में चोलों का उल्लेख किल्लि, वलवन, और सेनन जैसे शासकों के रूप में मिलता है. हालांकि, संगम युग के बाद चोलों का प्रभाव कुछ समय के लिए कम हुआ, और पल्लवों और पांड्यों ने इस क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व जमाया. लेकिन 9वीं शताब्दी में, विजयालय चोल ने चोल साम्राज्य को एक बार फिर से पुनर्जीवित किया. उन्होंने तंजावुर को अपनी राजधानी बनाया और पल्लवों से भूभाग छीनकर चोल शक्ति को स्थापित किया. विजयालय ने मुथरैयरों को हराकर तंजावुर पर कब्जा किया मुथरैयरों एक स्थानीय सामंतवादी शासक वंश था जो पल्लवों के अधीन शासन करता था. मुथरैयरों का पराजय चोल साम्राज्य के पुनरुत्थान का पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता है.
लेकिन 985 ई.से 1044 ई. तक राजराज चोल प्रथम और उनके पुत्र राजेंद्र चोल प्रथम के शासन काल में चोल साम्राज्य का वैभव अपने चरम पर पहुंच गया, इन शासकों ने चोल साम्राज्य को न केवल दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य बनाया, बल्कि इसे दक्षिण पूर्व एशिया तक विस्तारित भी किया. राजराज चोल ने पांड्य, चेर, और श्रीलंका के उत्तरी हिस्से पर विजय प्राप्त की. उन्होंने चालुक्यों के साथ युद्ध लड़ा और कर्नाटक के कुछ हिस्सों पर भी नियंत्रण स्थापित किया. श्रीलंका में अनुराधापुर पर कब्जा करके चोलों ने वहां अपनी सत्ता स्थापित की.
राजराज ने एक शक्तिशाली नौसेना का निर्माण किया, जिसने चोल साम्राज्य को समुद्री व्यापार और सैन्य अभियानों में अग्रणी बनाया. उनकी नौसेना ने मालदीव पर कब्जा किया और समुद्री मार्गों को सुरक्षित किया. राजराज ने एक केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की, जिसमें गाँवों को स्वायत्तता दी गई, उन्होंने भूमि सर्वेक्षण करवाए और कर संग्रह को भी व्यवस्थित किया. राजराज ने तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर बनवाया, जो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है. यह मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें भव्य गोपुरम, विशाल शिवलिंग, और उत्कृष्ट मूर्तिकला शामिल है.
राजेंद्र चोल ने अपने पिता की नीतियों को और विस्तार दिया. उन्होंने श्रीलंका के पूरे द्वीप पर कब्जा किया और गंगा नदी तक सैन्य अभियान चलाया, जिसके कारण उन्हें गंगैकोंड चोल यानी गंगा को जीतने वाला की उपाधि मिली. उन्होंने गंगैकोंडचोलपुरम में एक नई राजधानी स्थापित की और वहां बृहदीश्वर मंदिर के समान एक और भव्य मंदिर बनवाया. राजेंद्र की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि थी श्रीविजय साम्राज्य यानी आज के आधुनिक इंडोनेशिया और मलेशिया पर नौसैनिक अभियान चलाने का. यह अभियान 1025 ई. में हुआ और चोल नौसेना ने श्रीविजय की राजधानी कदरम पर कब्जा कर लिया. इस अभियान का उद्देश्य समुद्री व्यापार मार्गों पर नियंत्रण स्थापित करना था. राजेंद्र ने व्यापार को बढ़ावा देने के लिए बंदरगाहों का विकास किया. जिसके बाद चोलों का व्यापार अरब, चीन, और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ खूब फला-फूला. नागपट्टिनम और कावेरीपट्टिनम जैसे बंदरगाह चोल साम्राज्य के व्यापार का प्रमुख केंद्र थे.
चोल साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यंत विकसित थी. राजा सर्वोच्च शासक था, लेकिन स्थानीय स्तर पर गांवों को स्वायत्तता दी गई थी. गांवों में ग्राम सभाएँ प्रशासनिक और सामाजिक मामलों का प्रबंधन किया करती थीं. चोलों ने भूमि को भी अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया, जैसे ब्रह्मदेय यानी ब्राह्मणों को दी गई भूमि, वेलनवगई यानी किसानों की भूमि, और देवदाय मतलब मंदिरों को दी गई भूमि.इस तरह चोलों के शासन काल में भूमि सर्वेक्षण और कर संग्रह को काफी व्यवस्थित किया गया था. गाँव स्तर पर पंचायतें और मंदिर समितियाँ न्याय प्रदान करती थीं. चोल शिलालेखों में कई न्यायिक निर्णयों का उल्लेख भी मिलता है. हालांकि समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित था, लेकिन व्यापारी, कारीगर या बुनकर समुदायों को भी काफी महत्व दिया जाता था. चोल शिलालेखों में विभिन्न समुदायों, जैसे वणिक यानी व्यापारी और काइकोलर यानी कपड़ा बुनकर का उल्लेख भी मिलता है.
इसके अलावा चोल साम्राज्य ने भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. चोल मंदिर न केवल धार्मिक केंद्र थे, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षिक गतिविधियों के केंद्र भी थे. बृहदीश्वर मंदिर, गंगैकोंडचोलपुरम मंदिर, और दरासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर द्रविड़ वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं. चोल मंदिरों की मूर्तियाँ और भित्तिचित्र अत्यंत उत्कृष्ट हैं. नटराज की कांस्य मूर्तियाँ विश्व प्रसिद्ध हैं. चोल काल में तमिल साहित्य और संस्कृत दोनों का विकास हुआ. कंबन द्वारा रचित कंब रामायणम और तिरुक्कुरल जैसे ग्रंथों को संरक्षण मिला. शिलालेखों में भी तमिल और संस्कृत का प्रयोग हुआ. चोल शासक मुख्य रूप से शैव थे, लेकिन उन्होंने वैष्णव, जैन, और बौद्ध धर्मों को भी संरक्षण दिया. मंदिरों में विभिन्न समुदायों के लिए स्थान था.
दरअसल, चोल साम्राज्य की समुद्री शक्ति और व्यापारिक नेटवर्क ने इसे वैश्विक स्तर पर प्रभावशाली बनाया था. चोलों का व्यापार अरब, चीन, मलय प्रायद्वीप, और इंडोनेशिया तक फैला था. मसाले, कपड़ा, रत्न, और हाथी दांत जैसे उत्पादों का भारी मात्रा में निर्यात होता था. नागपट्टिनम, कावेरीपट्टिनम, और कोरकई इनके प्रमुख बंदरगाह थे. चोल नौसेना ने समुद्री डाकुओं से व्यापार मार्गों की रक्षा की. राजेंद्र चोल का श्रीविजय पर हमला व्यापारिक प्रभुत्व स्थापित करने का ही एक प्रयास था. यह अभियान चोलों की नौसैनिक क्षमता का प्रतीक भी है.
13वीं शताब्दी के बाद चोल साम्राज्य एक बार फिर से कमजोर होने लगा. दरअसल, उत्तराधिकार विवाद और कमजोर शासकों ने साम्राज्य को अस्थिर कर दिया. जिसके बाद पांड्यों और होयसलों ने चोल क्षेत्रों पर हमला कर दिया. 13वीं शताब्दी में पांड्य राजा जटावरमन सुंदर पांड्य ने चोलों को पराजित किया. 1279 ई. में राजेंद्र चोल तृतीय के शासन के बाद चोल साम्राज्य का अंत हो गया, और पांड्य वंश ने दक्षिण भारत पर अपना प्रभुत्व जमा लिया.
लेकिन चोल साम्राज्य की विरासत आज भी जीवित है. चोल मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला के प्रतीक हैं. बृहदीश्वर मंदिर और अन्य संरचनाएँ आज भी पर्यटकों और शोधकर्ताओं को आकर्षित करती हैं. चोलों की प्रशासनिक व्यवस्था, विशेष रूप से स्थानीय स्वशासन, आधुनिक भारत में पंचायती राज की प्रेरणा रही. चोलों ने भारत को वैश्विक व्यापार नेटवर्क से जोड़ा, जो आधुनिक भारत के व्यापारिक इतिहास का आधार बना. तमिल संस्कृति, साहित्य, और कला पर चोलों का प्रभाव आज भी तमिलनाडु और दक्षिण-पूर्व एशिया में देखा जा सकता है.
चोल साम्राज्य का वैभव और विस्तार दक्षिण भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है. राजराज चोल और राजेंद्र चोल जैसे शासकों ने न केवल सैन्य और समुद्री शक्ति से साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि कला, संस्कृति, और प्रशासन में भी अभूतपूर्व योगदान दिया. उनके मंदिर, शिलालेख, और व्यापारिक नेटवर्क आज भी उनकी महानता की गवाही देते हैं. चोल साम्राज्य न केवल भारत, बल्कि विश्व इतिहास में एक अनूठा स्थान रखता है, जिसने समुद्री व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से प्राचीन विश्व को जोड़ा.