मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में जहरीले कफ सिरप से 23 मासूमों की मौत का दर्द अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि अब कैग (CAG) की रिपोर्ट ने प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था के भीतर छिपे एक और बड़े घोटाले का पर्दाफाश कर दिया है. देश की सर्वोच्च लेखा संस्था ने अपनी 2024-25 की रिपोर्ट में खुलासा किया है कि मध्यप्रदेश की सरकारी एजेंसी मध्यप्रदेश पब्लिक हेल्थ सर्विसेज कॉर्पोरेशन लिमिटेड (MPPHSCL) ने ऐसे प्रतिबंधित और खतरनाक दवाइयां खरीदीं और बांटीं, जिन्हें भारत सरकार ने इंसानों के लिए पूरी तरह बैन कर दिया था.
रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2017 से 2022 के बीच कॉर्पोरेशन ने ₹1.53 करोड़ की दर अनुबंध (रेट कॉन्ट्रैक्ट) प्रतिबंधित दवाओं के लिए किए और जिलों में ₹22.96 लाख की स्थानीय खरीद भी की यानी कुल ₹1.76 करोड़ की प्रतिबंधित दवाएं राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था में पहुंचाई गईं. ये वही दवाएं थीं जिन्हें भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने पूरी तरह मानव उपयोग के लिए प्रतिबंधित घोषित कर दिया था.
कैग रिपोर्ट बताती है कि सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (CDSCO) ने ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 के तहत नवंबर 2021 में 518 दवाओं और उनके संयोजनों की सूची जारी की थी, जिनका निर्माण, बिक्री और वितरण देशभर में प्रतिबंधित था. इसके बावजूद मध्यप्रदेश की इस सरकारी एजेंसी ने न केवल इन्हीं दवाओं के लिए टेंडर जारी किए बल्कि अस्पतालों को उनकी सप्लाई भी कर दी.
सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि जिन दवाओं को केंद्र सरकार ने सालों पहले बैन किया, उन्हीं का करोड़ों का सौदा सरकारी दस्तावेज़ों में दर्ज है. उदाहरण के तौर पर, मेट्रोनिडाजोल + नॉरफ्लॉक्सासिन को 10 मार्च 2016 को गजट अधिसूचना के जरिए बैन किया गया था, लेकिन इसके बावजूद 27 अक्टूबर 2016 और 1 जुलाई 2017 को इसके रेट कॉन्ट्रैक्ट किए गए और ₹32.14 लाख की खरीद हुई. इसी तरह एज़िथ्रोमाइसिन + सेफिक्सिम, जो उसी तारीख को बैन हुआ था, को 2018 और 2020 में फिर खरीदा गया जिसकी कीमत ₹1.21 करोड़ से ज्यादा थी.
कैग की रिपोर्ट कहती है कि अगर विभाग और कॉर्पोरेशन ने जरा सी सतर्कता दिखाई होती और टेंडर जारी करने से पहले प्रतिबंधित दवाओं को हटा दिया होता, तो ये सौदे कभी नहीं होते. लेकिन हुआ उल्टा बैन दवाओं को सरकारी अस्पतालों तक पहुंचाया गया, और करोड़ों रुपये जनता की ज़िंदगी से खिलवाड़ में खर्च कर दिए गए.
- टाइमलाइन
- 10 मार्च 2016 को केंद्र सरकार ने कई फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन दवाओं को बैन किया, जिनमें ये दोनों शामिल थीं.
- दिसंबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इन पर लगे प्रतिबंध को बरकरार रखा.
- 7 सितंबर 2018 को केंद्र ने एक बार फिर अधिसूचना जारी कर इन्हें पूरी तरह निषिद्ध घोषित किया.
- फिर भी, मध्यप्रदेश की सरकारी एजेंसी बहाने बनाती रही कि दवाएं ‘किट फॉर्म' में दी गईं, यानी अलग-अलग गोलियां हैं जबकि कैग ने इस तर्क को पूरी तरह झूठा और भ्रामक बताया.
इस रिपोर्ट ने प्रदेश की दवा नियंत्रण प्रणाली पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि छिंदवाड़ा कफ सिरप जिसमें 23 बच्चों की जान चली गई, अब किसी एक कंपनी की गलती नहीं लगती बल्कि एक सालों पुरानी सरकारी विफलता और बेपरवाही की श्रृंखला का हिस्सा प्रतीत होती है. एक वरिष्ठ पूर्व ड्रग कंट्रोलर ने टिप्पणी की “चाहे प्रतिबंधित एंटीबायोटिक हों या ज़हरीले कफ सिरप जवाबदेही की पूरी कड़ी टूटी हुई है, नीचे से लेकर ऊपर तक.
कैग ने अपनी रिपोर्ट में चेताया है कि यह ‘लापरवाही नहीं, बल्कि अपराध के बराबर लापरवाही है क्योंकि इससे सीधे जनता की जान को खतरा हुआ है. रिपोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश और केंद्र सरकार की अधिसूचनाओं के बावजूद, राज्य की एजेंसियों ने इन्हें लागू करने में घोर लापरवाही बरती. नतीजा यह हुआ कि प्रतिबंधित दवाएं खुलेआम खरीदी और वितरित की जाती रहीं.
अब जब एसआईटी छिंदवाड़ा कफ सिरप कांड की जांच में जुटी है और तमिलनाडु की कंपनी श्रीसन फार्मा के मालिक गोविंदन रंगनाथन को गिरफ्तार किया गया है, तब कैग की रिपोर्ट एक और सवाल खड़ा करती है, क्या यह सिर्फ एक फैक्ट्री की गलती थी, या फिर मध्यप्रदेश की पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था की बीमारी?