- राहुल गांधी ने बिहार में 16 दिनों की मतदाता रैली के दौरान 25 जिलों के 110 विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया.
- कांग्रेस पार्टी बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीतकर महागठबंधन की सबसे छोटी सदस्य बनी हुई है>
- बिहार में कांग्रेस का संगठन, स्थानीय नेतृत्व कमजोर और पार्टी को जातीय विविधता के नेताओं को आगे लाना होगा.
अगस्त की उमस भरी गर्मी और बिहार की धूलभरी गलियों से गुजरते राहुल गांधी की पदयात्रा चर्चा में रही. इस दौरान वह न तो सिर्फ एक राजनीतिक वंश के वारिस के रूप में दिखे और न ही सिर्फ एक पार्टी के नेता के तौर पर. बल्कि उन्होंने खुद को एक साधारण यात्री की तरह पेश किया, जो 'अधिकार' और 'विश्वास' जैसे शब्दों की गूंज को जनता के बीच परखने निकला था. यह यात्रा सिर्फ पैदल चलने भर की कवायद नहीं थी, बल्कि बिहार के वोटर्स के बीच कांग्रेस पार्टी की उस कमजोर होती यादों को फिर से जिंदा करने की कोशिश थी, जो राज्य की राजनीति में लंबे समय से लगभग गुम सी हो गई है.
वोटर अधिकार यात्रा : राजनीति में भरोसे की तलाश
करीब 1,300 किलोमीटर की दूरी, 25 जिलों की परिक्रमा, 110 विधानसभा सीटों का सफर और 16 दिनों का लगातार मार्च, राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा सिर्फ एक सियासी प्रदर्शन नहीं लगी, बल्कि मानो आत्मचिंतन की साधना हो. यह याद दिलाती है कि राजनीति का असल मतलब है अनजान लोगों के साथ तब तक चलना, जब तक कि वो अनजान न रह जाएं.
इस यात्रा में राहुल गांधी के साथ इंडिया ब्लॉक के कई मुख्यमंत्री—एमके स्टालिन, रेवंत रेड्डी, सिद्धारमैया, हेमंत सोरेन—और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव भी नजर आए. इस दौरान राहुल गांधी ने विपक्षी गठबंधन को और मजबूत करने की कोशिश की.
यात्रा उन्हें उन सात विधानसभा सीटों तक भी ले गई, जिन्हें कांग्रेस ने 2020 में जीता था. भले ही यह संख्या मामूली है, लेकिन यह इस बात की याद भी दिलाती है कि जमीनी मौजूदगी कभी-कभी गठबंधन के गणित और मतदाता टर्नआउट की तस्वीर बदल सकती है.
बिहार में कांग्रेस नई उम्मीद की तरफ...
बिहार में कांग्रेस पार्टी सालों से एक ऐसी उजड़ी हवेली की तरह दिखाई देती रही है, जिसके कमरे अब भी खड़े हैं, विरासत पर कोई सवाल नहीं, लेकिन दीवारें सन्नाटे से गूंजती हैं. साल 2020 विधानसभा चुनाव में पार्टी को 19 सीटें जरूर मिलीं मगर ठोस जनाधार नहीं मिल सका. और उन यादों का क्या करें जब पूरे विधानसभा क्षेत्र में पार्टी का झंडा लहराता था. सवाल यह भी है कि क्या यह यात्रा, कभी मोटरसाइकिल पर सवार होकर, कभी रात के ठहरावों के बीच, वोट चोरी के आरोपों और तमाम चुनावी वादों के साथ, उस पुरानी हवेली में फिर से जान डाल सकती है या नहीं?
243 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के पास सिर्फ 19 सीटें हैं और वह राजद नेतृत्व वाले महागठबंधन की सबसे छोटी साझेदार है. सच्चाई यह है कि अब तक उसका अस्तित्व उधार की ताकत पर टिका रहा है—राजद का यादव-मुस्लिम वोट बैंक और कभी-कभार सहयोगियों से होने वाले सामरिक वोट ट्रांसफर. लेकिन अगर कांग्रेस पुनरुत्थान का सपना देखती है, तो उसे निर्भरता के बजाय खुद को स्थापित करने पर काम करना होगा.
इस बार की अधिकार यात्रा में पार्टी ने वोट के अधिकार को केंद्र में रखा और यही बात सबसे महत्वपूर्ण थी. यह एक शिकायत (मतदाता सूची संशोधन—SIR) को नैतिक और राजनीतिक पुकार में बदलने की रणनीतिक कोशिश थी. अगर इस मसले पर मतदाता का पूरा साथ मिल जाता है तो कांग्रेस अपने आप को गठबंधन में महज सहयात्री नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रक्षक के रूप में स्थापित कर सकती है.
कैसे आएगी कांग्रेस पार्टी में जान
लेकिन कांग्रेस का पुनरुत्थान सिर्फ प्रतीकों के सहारे नहीं हो सकता. बिहार में पार्टी का संगठन लंबे समय से जर्जर हालत में है. जिला दफ्तर लगभग खाली पड़े हैं, कार्यकर्ता लगातार दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं और स्थानीय नेतृत्व अक्सर राजद की छाया में दबा रहता है. इस तस्वीर को बदलने के लिए राहुल गांधी को तीन बातों पर ध्यान देना होगा-
1. गठबंधन का गणित
कांग्रेस बिहार में अकेले खड़े होने का सपना भी नहीं देख सकती क्योंकि उसका लक्ष्य मजबूत महागठबंधन का हिस्सा बनने में है. लेकिन सीट बंटवारे की राजनीति पुरानी यादों पर नहीं बल्कि जमीनी हकीकत और जुटाए गए समर्थन पर टिकती है. अगर अधिकार यात्रा जिन इलाकों से गुजरी है, वहां कांग्रेस को सिर्फ कुछ प्रतिशत वोटों की भी बढ़त मिलती है तो यह उसे बातचीत की मेज पर कहीं अधिक ताकतवर बना सकती है.
2. स्थानीय नेतृत्व
बिहार की राजनीति जाति-आधारित ढांचे में बुनी हुई है. कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह ओबीसी, महादलित, दलित और अल्पसंख्यक तबकों से नेतृत्व तैयार करे न कि पुराने ढर्रे पर टिकी रहे. ऐसा करने से वह अप्रासंगिक होती जाएगी. राहुल गांधी का हालिया जातीय सर्वे पर जोर और तेलंगाना मॉडल की बात इसी दिशा की ओर संकेत है. इसका मतलब यही है कि पार्टी युवा विधायकों को आगे बढ़ाना चाहते हैं न कि दिल्ली से थोपे गए उम्मीदवारों पर ही निर्भर रहना चाहते हैं.
3. नैरेटिव की रणनीति
कांग्रेस ने 'वोट चोरी' को अपना मुख्य नारा बनाकर एक ऐसा मुद्दा छू लिया है, जो जातियों से परे है. वोटर लिस्ट से नाम गायब होना प्रवासी मजदूरों, महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों सभी को प्रभावित करता है. अगर कांग्रेस खुद को मताधिकार की संरक्षक के रूप में पेश कर पाती है तो उसे एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा मिल सकता है, जिस पर अभी न तो राजद और न ही भाजपा का कोई दावा है.
सीटों का गणित है महत्वपूर्ण
लेकिन आखिरकार राजनीति में नंबरों की (सीटों की) अहमियत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. राहुल गांधी की अधिकार यात्रा ने जिन 110 विधानसभा क्षेत्रों को छुआ, उनमें से कांग्रेस ने 2020 के चुनाव में 22 सीटों पर किस्मत आजमाई थी और सात पर उसे जीत हासिल हुई थी. इनमें औरंगाबाद, औरंगाबाद जिले का कुटुंबा, अररिया, भागलपुर, जमालपुर, कदवा और मुजफ्फरपुर जैसे इलाके शामिल हैं, जहां आज भी कांग्रेस के मजबूत विधायक मौजूद हैं. अगर राहुल गांधी इस यात्रा की ऊर्जा का प्रयोग इन मौजूदा विधायकों को और सक्रिय करने में कर पाए, तो ये छिटपुट जीतें बड़ी जीत में बदल सकती हैं. बिहार जैसा राज्य, जहां जीत-हार का फासला महज कुछ हजार वोटों तक सिमट जाता है, वहां पर वोटों में मामूली-सा झुकाव भी हार और जीत का बड़ा अंतर पैदा कर सकता है.
जोखिम और उम्मीदों के बीच कांग्रेस
जोखिम साफ हैं. भाजपा इस अधिकार यात्रा को 'सियासी नाटक' कहकर खारिज कर रही है, वहीं नीतीश कुमार की अगुवाई वाली जेडीयू अपनी दो दशक लंबी सरकार (2005 से 2025) की उपलब्धियों—गवर्नेंस और कल्याणकारी योजनाओं—की लंबी सूची गिनाकर कांग्रेस की कोशिशों को जीरो करने में जुटी है. ऐसे में कांग्रेस के लिए चुनौती यही है कि वह केवल सहयोगियों के साथ चलती हुई ही नजर न आए, बल्कि अपनी अलग पहचान बनाए, एक ऐसी पहचान जो अधिकार, गरिमा और भागीदारी पर टिकी हो.
तो क्या राहुल गांधी बिहार में कांग्रेस को जिंदा कर पाएंगे? 'पुनरुत्थान' या 'रिवाइवल' शायद बहुत बड़ा शब्द हो. लेकिन जो संभव है, वह है पार्टी की स्थिति-परिवर्तन यानी एक छोटे मगर निर्णायक साझेदार में तब्दील होना. अगर कांग्रेस 25–30 सीटों तक पहुंचने में सफल होती है, तो बिहार की राजनीति में, जहां जीत-हार का फैसला बहुत कम अंतर से होता है, यह बढ़त सत्ता और विपक्ष के बीच निर्णायक साबित हो सकती है.
याद रहे, 2015 में कांग्रेस ने 41 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 27 जीती थीं. उस समय जेडीयू, राजद और कांग्रेस महागठबंधन ने भाजपा को मात देकर सत्ता हासिल की थी. वह जीत इस बात का सबूत थी कि कांग्रेस, भले ही छोटी साझेदार हो लेकिन निर्णायक बन सकती है.
इसीलिए जब राहुल गांधी सासाराम से पटना तक चले, यह सिर्फ एक पैदल मार्च नहीं था बल्कि इतिहास से आमना-सामना भी था. हर किलोमीटर ने यही सवाल तौला कि क्या कांग्रेस अब भी उन वोटर्स का विश्वास जीत सकती है जो उसे भुला चुके हैं या फिर उसका पुनरुत्थान भी बिहार के कस्बों की उन हवेलियों जैसा साबित होगा, जो देखने में तो आलिशान हैं लेकिन अंदर से ढह चुकी हैं.
1989 के बाद बिहार में कांग्रेस की कहानी
साल 1989, जब बिहार भागलपुर दंगों की आग में झुलस रहा था, कांग्रेस पार्टी, जो कभी राष्ट्रीय नेतृत्व का अजेय प्रतीक मानी जाती थी, अपने ही अंदर हो रही टूट से जूझ रही थी. उसी साल पार्टी की पकड़ ढीली पड़ने लगी. लोकसभा में कांग्रेस महज 4 सीटों पर सिमट गई जबकि 1984 में उसका खाता 48 सीटों तक पहुंचा था. यह केवल सीटों का पतन ही नहीं था बल्कि पहचान का संकट भी था.
बिहार की असंख्य आवाजों की प्रतिनिधि रही कांग्रेस की आवाज अब धुंधली पड़ रही थी. इसके कुछ ही साल बाद, 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी का किला और बुरी तरह ढह गया, जहां 1985 में उसके पास 196 सीटें थीं, वहीं यह घटकर 71 पर आ गई. इसके बाद की कहानी एक धीमे अवसान की दास्तान है, साल दर साल, चुनाव दर चुनाव, जहां हर परिणाम कांग्रेस के लिए सिकुड़ते जनाधार का सबूत बन गया.
1990 | 71 सीटें (1985 में 196 से कम) |
1995 | 29 सीटें |
2000 | 6 सीटें |
2005(फरवरी) | 13 सीटें |
2005(अक्टूबर) | 1 सीट |
2010 | 5 सीटें |
2015 | 27 सीटें |
2020 | 19 सीटें |
1991 | 1 सीट |
1996 | 2 सीटें |
1998 | 5 सीटें |
1999 | 4 सीटें |
2004 | 3 सीटें |
2009 | 2 सीटें |
2014 | 2 सीटें |
2019 | 1 सीट |
2024 | 4 सीटें |
स्रोत: चुनाव आयोग और कांग्रेस के आंकड़ों पर आधारित.