Afghanistan Crisis : अफगानिस्तान में तालिबान (Taliban Regime) का शासन तय हो चुका है. तालिबान के पिछले जुल्मों से डरे लोग सुरक्षित पनाह के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हैं. लेकिन सबके दिलोदिमाग में सवाल कौंध रहा है कि तालिबान क्या पहले की तरह हुकूमत चलाएगा. तालिबान ने अभी तक जो नरमी दिखाई है, कहीं वो महज छलावा तो नहीं है. पाकिस्तान और चीन (Pakistan China) का खतरनाक गठजोड़ अफगानिस्तान में भारत के लिए कितनी बड़ी चुनौती पैदा करेगा. ऐसे ही कुछ सवालों पर हमने रक्षा मामलों के विशेषज्ञ और सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक कोमोडोर सी उदय भास्कर (C Uday Bhaskar) से बातचीत की. उनका कहना है कि चीन और पाकिस्तान के लिए तालिबान भस्मासुर भी बन सकता है. अफगानिस्तान में जिस धार्मिक कट्टरता (Religious Fanaticism) को हवा देने का दोनों देश प्रयास कर रहे हैं उसका असर तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान (Tehreek-e-Taliban Pakistan) या चीन के मुस्लिम बहुल प्रांत शिनजियांग के उइघुर (Uighur Muslim) में देखने को मिल सकता है. तालिबान को आंख मूंदकर समर्थन देना बड़ी भूल साबित हो सकती है. पेश है बातचीत के प्रमुख अंश...
1. कंधार से काबुल तक तालिबान के कब्जे के बावजूद तालिबान ने भारतीय हितों या भारत की मदद से बन रही या तैयार विकास परियोजनाओं को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है. बदलाव की कोई वजह
देखिए पहले एक जमाना था कि अगर तालिबान जैसे पक्ष के साथ संबंध रखना है तो एक कहावत थी कि ट्रस्ट बट वेरीफाई. लेकिन अब मैं कहूंगा कि उनके अत्याचारों के कारण ऐसा वक्त आ गया है कि पहले वेरीफाई एंड ओनली देन ट्रस्ट यानी उनके रुख का तस्दीक करके ही फिर किसी बात पर भरोसा करें. मलाला युसूफजई की तरह महिलाओं पर अत्याचार, बामियान में बौद्ध प्रतिमा तोड़े जाने का मामला, अफगानिस्तान में भारत के मिशन पर हमले और हाल में ही पत्रकार दानिश सिद्दीकी की हत्या के मामलों को देखा जाए तो अब यही कहा जा सकता है, तालिबान का यह नरम रुख छलावा साबित हो, इसकी प्रबल संभावना है. तालिबान के रुख को लेकर भारत को फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाना होगा और बेहद सतर्कता के साथ फैसले लेने होंगे.
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2. भारत की अफगानिस्तान में प्राथमिकता क्या होनी चाहिए
भारत की प्राथमिकता भारतीय नागरिकों या उनके लिए काम करने वाले अफगानियों की सुरक्षा करना है. या फिर भारत के जो लोग वहां कारोबार करने गए हैं, उन्हें महफूज रखना. उनकी सुरक्षित वापसी और यह सुनिश्चित करना कि उन पर हमला नहीं होगा, ये भारत के लिए पहली प्राथमिकता है. ऐसे में तालिबान के साथ मुद्दों पर आधारित इंटरैक्शन की आवश्यकता होगी. इंटरैक्शन पहला चरण है और अनुभवों के आधार पर दूसरा चरण इंगेजमेंट, तीसरा इंडोर्समेंट और अंत में एंब्रेसमेंट का हो सकता है. लेकिन फिलहाल भारत को अपने हितों की प्राथमिकता के लिए मुद्दों पर आधारित इंटरैक्शन पर ही फोकस करना चाहिए.
3. तालिबान के हाथों में अफगानिस्तान का आप कैसा भविष्य देखते हैं
अभी देखना होगा कि अफगानिस्तान के अंदरूनी हालात में मची उथल-पुथल का अंत कहां और कैसे जाकर ठहरेगा. वहां स्थिरता होगी या नहीं, ये हमको हफ्ते या दो हफ्ते में पता चल जाएगा. महिलाओं के प्रति तालिबान का सलूक कैसा होगा. मानवाधिकार के मुद्दे पर वो क्या रुख अख्तियार करते हैं. जैसे 1995-2000 के दौर में तालिबान ने महिलाओं के सॉक्स (मोजे) पहनने पर प्रतिबंध का ऐलान तक कर दिया गया था, उनका मानना था कि ये सेक्सी सिंबल है. ऐसे में सत्ता संभालने के बाद हर दिन वे कैसे फैसले लेते हैं. दक्षिण या मध्य एशियाई राजनीति, या अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उसका क्या असर होता है. भारत सीधे तौर पर कैसे प्रभावित होता है.
4. क्या अफगानिस्तान फिर से कट्टरपंथ की नई प्रयोगशाला में बदल जाएगा
मान लीजिए अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ कोई नया गुट खड़ा हो जाए, ये शियाओं का, हजारा का हो सकता है. ताजिक या उज्बेक का हो सकता है. अफगानिस्तान हमेशा वारलार्ड्स की जगह रहा है. जातीय, धार्मिक, भाषायी या क्षेत्र के आधार पर नया गुट खड़ा हो सकता है. हो सकता है कि ईरान के समर्थन से मजार शरीफ पर कोई नया गुट खड़ा हो जाए जो यह कह दे कि वो काबुल में नई सरकार का हुक्म नहीं मानेंगे. ऐसा ही दूसरे इलाकों में हुआ तो अफगानिस्तान फिर से गृह युद्ध के हालात हो सकते हैं. लेकिन फिलहाल सब थक गए हैं. एक समय नार्दर्न अलांयस बना था, जिसे भारत, ईरान और रूस का समर्थन था. तब नार्दर्न अलांयस और तालिबान के बीच एक शक्ति संतुलन वाली स्थिति थी. लेकिन अभी ऐसा नहीं लग रहा है कि कोई भी बाहरी शक्ति ऐसा कुछ करना चाहेगी. अमेरिका जा रहा है और उसके साथ सभी पश्चिमी देशों की शक्तियां भी अपना हाथ खींच लेंगी.
5. अफगानिस्तान को लेकर पाक, चीन का खतरनाक गठजोड़ क्या खतरनाक रूप ले सकता है
पाकिस्तान चीन का प्रॉक्सी है और पाकिस्तान चाह रहा है कि अफगानिस्तान उसके प्रॉक्सी यानी मुखौटे वाली सरकार काम करे. तालिबान को पूरी फंडिंग और ट्रेनिंग, हथियार और अन्य तरह का लॉजिस्टिकल सपोर्ट मिल रहा है. ऐसे में भारत विरोधी नया खतरनाक गठजोड़ बनाने का प्रयास होगा. ऐसे में भारत के लिए डिप्लोमैटिक स्पेस (कूटनीतिक बढ़त का दायरा) बेहद तेजी से सिकुड़ रहा है. ईरान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल का रुख भी चीन की वजह से हालिया वक्त में भारत के प्रति ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा है.
6. अफगानिस्तान की सत्ता में बैठे लोगों से दूरी मगर भारत की सॉफ्ट पॉवर और अफगानिस्तान के विकास में भागीदारी उसके कितने काम आएगी
पिछले 20 सालों में भारत ने सॉफ्ट पॉवर के तौर पर अफगानिस्तान में शिक्षा, स्वास्थ्य , सड़क-पुल जैसे बुनियादी ढांचे की विकास परियोजनाओं के जरिये जो कूटनीतिक बढ़त कायम की है, क्या वो अब ये बढ़त खो देगा. ऐसा नहीं है, भारत की अच्छी छवि लंबे समय से अफगानियों के दिलों में रही है. शिक्षा, स्वास्थ्य, हास्पिटैलिटी, इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेफ में भारत लंबे समय से रचनात्मक योगदान देता रहा है. हजारों अफगानी छात्र भारत में शिक्षा ग्रहण करते हैं. पुलिस-मिलिट्री ट्रेनिंग लेते हैं.
उदय भास्कर ने कहा, अफगानिस्तान के साथ हमारा हजारों साल पुराना कारोबारी और सांस्कृतिक संबंध रहा है, जिसे खत्म कर देना आसान नहीं है. लेकिन जब तक तालिबान के साथ कोई सहमति या पहल नहीं होती, तब तक भारत के लिए नई विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ाना संभव नहीं होगा. पाकिस्तान का अफगान की नई सरकार में कितना और किस तरह का दखल रहता है, इस बात पर भी यह काफी हद तक निर्भर करेगा. तालिबान के लिए मौजूदा माहौल में बामियान में भगवान बुद्ध की प्रतिमा को उड़ाने की तरह कोई कदम उठाना संभव होगा. लोकतंत्र में यकीन न करने के बावजूद भारत द्वारा बनाई गई संसद भवन को जमींदोज करना उनके लिए आसान नहीं होगा.
7. क्या कट्टरपंथी ताकतें तालिबान के जरिये फिर सिर उठाएंगी
तालिबान भी अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने का प्रयास करेगा. चीन, रूस, ईरान, कतर, तुर्की जैसे देश तुरंत ही तालिबान को मान्यता देंगे. नया इस्लामिक एमीरेट्स बनाने की कोशिश होगी. मुस्लिम बहुल देशों से तुरंत ही समर्थन मिल सकता है. इन इस्लामिक देशों में कट्टरपंथी ताकतें अफगानिस्तान में इस्लामिक शरिया के मुताबिक शासन करने वाले तालिबान को समर्थन देने के लिए उतावले होंगे, ये स्वाभाविक है. लेकिन आने वाले वक्त में पाकिस्तान, बांग्लादेश या मलेशिया में भी इस्लामिक शरिया के हिसाब से शासन की मांग उठ सकती है.
8. क्या हमें अफगानिस्तान में तालिबान का नया इस्लामिक मॉडल देखने को मिलेगा या फिर यूएई, सऊदी अरब की तरह कुछ उदारवादी चेहरा वाला इस्लामिक शासन हो सकता है.
देखिए ऐसी ही धारणा हमारी चीन और पाकिस्तान को लेकर भी थी कि धीरे-धीरे चीन में साम्यवादी निरंकुशता की जगह उदारवादी शासन स्थापित हो जाएगा. पाकिस्तान को लेकर भी ऐसी ही सोच गलत साबित हुई और अब वहां भी कट्टरपंथी ताकतें मजबूत हो रही हैं. तालिबान का अभी तक का अनुभव तो ज्यादा उम्मीद देने वाला नहीं है.
9. भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता करते हुए क्या कदम उठा सकता है..
संयुक्त राष्ट्र अभी कुछ करने की हैसियत में नहीं है. पांचों स्थायी सदस्यों के बिना ऐसा कुछ संभव नहीं है. रूस और चीन वहां अभी तालिबान की ओर हैं.ऐसे में तस्वीर साफ होने का इंतजार करना पड़ेगा. अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश एक ओर हैं, तो चीन और रूस ने खुलकर तालिबान की हिमायत कर दी है.