इक्कीसवीं सदी में हम एक ऐसी 'महामारी' के मुहाने पर खड़े हैं जो किसी वायरस से नहीं फैली है, बल्कि हमारी जीवनशैली और बदलते पर्यावरण का नतीजा है. यह महामारी है मोटापा. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़े भयावह हैं—1990 से 2022 के बीच मोटापे का वैश्विक प्रसार दोगुना हो गया है और आज यह दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोगों, जिसमें 88 करोड़ वयस्क और 16 करोड़ बच्चे शामिल हैं, को अपनी चपेट में ले चुका है. डॉक्टर और विशेषज्ञ इसे एक दीर्घकालिक और जटिल रोग मान रहे हैं, जो सिर्फ शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक रूप से भी इंसान को कमज़ोर कर रहा है.
इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती: मोटापा
फ्रांस जैसे विकसित देश भी इसकी चपेट से बच नहीं पाए हैं, जहां मोटापे की दर 1997 में 8.5 प्रतिशत थी, जो 2020 तक बढ़कर 17 प्रतिशत हो गई है. इसका मतलब है कि देश में करीब 80 लाख लोग मोटापे से ग्रस्त हैं.
मोटापे की पहचान और पारंपरिक इलाज
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, मोटापा शरीर में असामान्य या अत्यधिक वसा संचय (फैट डिपोजिशन) है, जो स्वास्थ्य के लिए गंभीर जोखिम पैदा करता है. बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) को इसका पैमाना माना जाता है: 25 से अधिक बीएमआई होने पर अधिक वजन और 30 से अधिक होने पर मोटापा माना जाता है.
अब तक, मोटापे के इलाज में जीवनशैली में सुधार, संतुलित आहार, नियमित शारीरिक गतिविधि, और मनोवैज्ञानिक सहयोग जैसे उपायों को ही मुख्य माना जाता रहा है. गंभीर मामलों में, बेरियाट्रिक सर्जरी को भी एक विकल्प के तौर पर देखा जाता था. पहले डेक्सफेनफ्लुरामीन जैसी पुरानी दवाएं भी थीं, लेकिन दिल और फेफड़ों पर गंभीर दुष्प्रभावों के कारण उन्हें बाज़ार से हटा लिया गया था, जिसने डॉक्टरों की मुश्किलें और बढ़ा दी थीं.
नई दवाएं: एक उम्मीद, पर समाधान नहीं
हाल ही में विकसित की गई नई श्रेणी की दवाएं—ग्लूकागन-लाइक पेप्टाइड-1 (जीएलपी-1) एनालॉग्स—चिकित्सकों के लिए नई उम्मीद लेकर आई हैं. ये दवाएं इंसुलिन स्राव को बढ़ाकर ब्लड शुगर नियंत्रित करती हैं, भूख कम करती हैं, और पेट खाली होने की प्रक्रिया को धीमा कर देती हैं. लिराग्लूटाइड (सैक्सेंडा) और सेमाग्लूटाइड (वेगोवी, ओज़ेम्पिक) जैसी ये दवाएं अब इंजेक्शन के रूप में उपलब्ध हैं और इनका उपयोग टाइप-2 डायबिटीज के इलाज में पहले से हो रहा था.
कई बड़े क्लीनिकल परीक्षणों में पाया गया है कि जब इन दवाओं को नियंत्रित आहार और शारीरिक गतिविधि के साथ इस्तेमाल किया गया, तो वजन में उल्लेखनीय कमी आई. हालांकि, विशेषज्ञों का साफ कहना है कि केवल इन दवाओं के भरोसे मोटापे पर काबू पाना संभव नहीं है, क्योंकि ये सिर्फ उपचारात्मक (इलाज करने वाला) दृष्टिकोण अपनाती हैं, न कि निवारक (रोकथाम करने वाला).
दवाएं केवल वजन घटाती हैं, 'ठीक' नहीं करतीं
शोधों से यह स्पष्ट हो चुका है कि जीएलपी-1 एनालॉग्स मोटापे को 'ठीक' नहीं कर सकतीं, ये सिर्फ वजन घटाने में सहायक हैं. उदाहरण के लिए, एक अध्ययन में प्रतिभागियों का वजन 68 सप्ताह में औसतन 15 प्रतिशत कम हुआ, जो एक बड़ी सफलता है, लेकिन फिर भी वे मरीज मोटापे की श्रेणी में ही बने रहते हैं. इसके अलावा, इन दवाओं को लंबे समय तक जारी रखना पड़ता है. दवा बंद करने पर वजन फिर से बढ़ने और मांसपेशियों में कमी आने जैसे दुष्प्रभाव चिंता का विषय बने हुए हैं.
मोटापा केवल खाने का नतीजा नहीं, 'एक्सपोज़ोम' है असली विलेन
विशेषज्ञ अब इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि मोटापा केवल कैलोरी का हिसाब-किताब नहीं है. इसके पीछे कई जटिल कारण हैं- जैसे आनुवंशिक, हार्मोनल, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कारक.
अब 'एक्सपोज़ोम' (Exposome) की अवधारणा महत्वपूर्ण मानी जा रही है, जिसका मतलब है कि जीवन भर के सभी पर्यावरणीय कारकों का योग हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है. पर्यावरण में मौजूद कई रासायनिक पदार्थों को अब 'ओबेसोजेनिक' (मोटापा बढ़ाने वाला) माना गया है. ये रसायन हमारे हार्मोन संतुलन को बिगाड़ते हैं और सूक्ष्मजीव तंत्र को प्रभावित करके मोटापा बढ़ाते हैं. इन प्रभावों के परिणाम कई बार अगली पीढ़ियों में भी दिखाई देते हैं.
निवारक प्रयासों में बाधाएं और सामाजिक असमानता
मोटापे को रोकने के प्रयासों में कई बड़ी बाधाएं हैं:
1. सस्ते और प्रचारित प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ: ऐसे खाद्य पदार्थों की आसान उपलब्धता लोगों को अस्वस्थ आहार चुनने के लिए मजबूर करती है.
2. प्रदूषण: प्रदूषकों और हार्मोन प्रभावित करने वाले रसायनों का बढ़ता असर शरीर के प्राकृतिक तंत्र को बिगाड़ रहा है.
3. शहरी नियोजन: शहरों के डिज़ाइन में सक्रिय जीवनशैली (चलना, साइकिल चलाना) को बढ़ावा देने वाली नीतियों की कमी है.
4. सामाजिक-आर्थिक असमानता: मोटापे की दर निचले आय वर्ग में (17 प्रतिशत) उच्च आय वर्ग (10 प्रतिशत) की तुलना में ज़्यादा है. गरीबी और असमानता इस खाई को और बढ़ा रही है.
उपचार की लागत और वित्तीय बोझ
जीएलपी-1 आधारित उपचार की अनुमानित लागत लगभग 300 यूरो (करीब 27,000 रुपये) प्रति माह है. यदि मरीजों को यह खर्च खुद उठाना पड़े, तो यह उपचार केवल अमीर वर्ग तक ही सीमित रह जाएगा. और अगर स्वास्थ्य बीमा इसका खर्च उठाता है, तो सरकार पर वित्तीय बोझ इतना ज़्यादा होगा कि वह असहनीय हो जाएगा.
विशेषज्ञों का साफ मत है कि इस 'महामारी' से लड़ने के लिए सिर्फ किसी एक दवा पर निर्भर रहना अव्यावहारिक है. इससे निपटने के लिए बहु-विषयक दृष्टिकोण अपनाना ज़रूरी है, जिसमें चिकित्सा विज्ञान के साथ-साथ मनोविज्ञान, सार्वजनिक स्वास्थ्य, नीति-निर्माण और सामुदायिक सहयोग सभी को एक साथ लाना होगा. जब तक हम मोटापा पैदा करने वाली मूल जड़ों पर काम नहीं करेंगे, तब तक यह महामारी दुनिया भर में हाहाकार मचाती रहेगी.
(अस्वीकरण: सलाह सहित यह सामग्री केवल सामान्य जानकारी प्रदान करती है. यह किसी भी तरह से योग्य चिकित्सा राय का विकल्प नहीं है. अधिक जानकारी के लिए हमेशा किसी विशेषज्ञ या अपने चिकित्सक से परामर्श करें. एनडीटीवी इस जानकारी के लिए ज़िम्मेदारी का दावा नहीं करता है.)














