Shivling puja niyam : हिन्दू धर्म में हर देवी-देवता की पूजा के कुछ विशेष नियम हैं. जिनकी जानकारी रखनी जरूरी है. नहीं तो ईष्ट देव अथवा देवी देवता की पूजा निष्फल हो जाती है. जैसा की आपको पता है 11 जुलाई से सावन शुरू होने वाला है. ऐसे में आज हम इस आर्टिकल में शिवलिंग की परिक्रमा आधी क्यों की जाती है इस बारे में विस्तार से जानेंगे आगरा के ज्योतिषाचार्य डॉ. अरविंद मिश्र से...
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शिवलिंग की परिक्रमा आधी क्यों की जाती है
पंडित अरविंद मिश्र बताते हैं कि यह परंपरा हिंदू धर्म में गहरी आस्था और प्रतीकवाद से जुड़ी हुई है. इस नियम का धार्मिक, आध्यात्मिक और पौराणिक आधार है. इसका उल्लेख मुख्य रूप से पद्म पुराण, शिव महापुराण, स्कंद पुराण, और कुछ अन्य ग्रंथों में मिलता है.
शिवलिंग की आधी परिक्रमा का कारण
शिवलिंग की रचना और यम दिशाशिवलिंग का निचला भाग "ब्रह्मा भाग", मध्य भाग "विष्णु भाग" और ऊपरी गोल भाग "रुद्र भाग" कहलाता है.
लिंग के पिछले भाग को (जहां से जल निकलता है) 'यम दिशा' कहा जाता है और वह गौमुख कहलाता है.
परंपरा कहती है और शास्त्रों में भी लिखा है कि गौमुख के पीछे से जाना मृत्यु को आमंत्रण देने जैसा है, इसलिए शिव भक्त उस भाग की परिक्रमा नहीं करते.
वहीं, शिव महापुराण के रुद्र संहिता, अध्याय 11 में बताया गया है कि शिव की परिक्रमा करते समय गौमुख से दूर रहना चाहिए, क्योंकि यह मृत्यु मार्ग का प्रतीक है.
शिव महापुराण में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शिवलिंग के चारों ओर घूमना नहीं चाहिए. गौमुख को पारकर परिक्रमा करने से दोष लगता है और पूजा निष्फल हो जाती है.
पद्म पुराण के अनुसार, शिवलिंग की परिक्रमा बाएं से शुरू कर आधे चक्र में दाहिनी ओर समाप्त करनी चाहिए.
यह आस्था, सुरक्षा और मर्यादा का प्रतीक है.
परिक्रमा कैसे करें?
बाएं से शुरू करें, यानी वाम दिशा से आधे चक्र तक जाएं, यानी गौमुख से पहले रुकें. फिर वापस मुड़कर उसी मार्ग से लौटें, गौमुख के पीछे से कभी न जाएं, और शिव जी के दाएं आकर फिर से गौ मुख से पहले रुककर परिक्रमा समाप्त करें.
आध्यात्मिक अर्थ
शिव "संहार" और "मुक्ति" के देवता हैं. गौमुख से पीछे जाना मृत्यु और संहार का प्रतीक माना गया है.
आधी परिक्रमा विनम्रता और मर्यादा का पालन है. यह दर्शाता है कि भक्त भगवान के चरणों में झुकता है, लेकिन उनकी संहार शक्ति को पार नहीं करता.
निष्कर्ष
शिवलिंग की परिक्रमा आधी इसलिए की जाती है क्योंकि इसके पीछे स्थित गौमुख (जहां से जल बहता है) यम दिशा या मृत्यु की ओर संकेत करता है. इसका शिव महापुराण, पद्म पुराण, स्कंद पुराण आदि में उल्लेख मिलता है. यह परंपरा आध्यात्मिक मर्यादा, जीवन-मृत्यु संतुलन और ईश्वर के प्रति आदर का प्रतीक है.
भोलेनाथ की पूजा में "शंख" का प्रयोग क्यों नहीं किया जाता
इसका एक धार्मिक, पौराणिक और तात्त्विक कारण है, और यह विषय धर्म शास्त्रों, पुराणों, विशेषकर शिव पुराण, स्कंद पुराण, पद्म पुराण, और कालिका पुराण में विभिन्न संदर्भों में उल्लेखित है.
शंख विष्णु जी का प्रिय है और समुद्र मंथन के समय माता लक्ष्मी जी के साथ प्रकट हुआ है. शंख शिवजी को प्रिय नहीं है. शंख का संबंध भगवान विष्णु से है, उनके हाथों में रहता है.
शंखध्वनि का उपयोग मुख्यतः वैष्णव पूजा में होता है. शिव पूजा में यह अनुचित माना जाता है क्योंकि यह विष्णु पूजा की वस्तु है, और शिव पूजा का स्वरूप अलग है.
स्कंद पुराण के वैष्णव खंड में उल्लेख है कि "शंखं च चक्रं गदां पद्मं विष्णोरायतनं परम्." अर्थात् शंख, चक्र, गदा और पद्म ये विष्णु के प्रधान आयुध हैं.
शंख मृत शरीर से उत्पन्न माना गया है. पौराणिक कथा के अनुसार, शंख का जन्म एक असुर के मृत शरीर से हुआ था, जिसे भगवान विष्णु ने मारा और फिर शंख को अपने हाथ में धारण किया था. इसलिए शंख को "मृतज" (मृत शरीर से उत्पन्न) कहा जाता है. यही कारण है कि शिव पूजा में शंख से जल चढ़ाना वर्जित माना गया है.
पद्म पुराण और कल्कि पुराण में इसका संकेत मिलता है "शंखो मृतशरीरात् जातः तस्मादेव शिवपूजायाम् निषिद्धः"
अर्थात - शंख मृत शरीर से उत्पन्न है, इसलिए यह शिव पूजा में वर्जित है.
शंख से जल चढ़ाना वर्जित है. शिवलिंग पर जल "पवित्र और शांतिपूर्ण भाव" से चढ़ाया जाता है.
शंख से जल चढ़ाने से जल की धारा तेज और ध्वनि युक्त होती है, जो शिव पूजा के शांत, सौम्य और ध्यानात्मक स्वरूप के विरुद्ध है.
शिव महापुराण (रुद्र संहिता) में कहा गया है "शंखेन जलदानं च न शिवस्य पूजनम्."
अर्थात - शंख से जल अर्पण करना शिव की पूजा में नहीं करना चाहिए.
शिव पूजा में "मौन और सरलता" की प्रधानता है: शिव "योगेश्वर" हैं ध्यान, तपस्या और एकांत के देवता.
शंख ध्वनि "शोर और उत्सव" का प्रतीक है, जो कि तामसिक और राजसिक प्रवृत्तियों से जुड़ी मानी जाती है.
शिव पूजा सात्विक, मौन और ध्यानमयी होती है, जिसमें शंखध्वनि विघ्न मानी जाती है. निष्कर्ष यह कि शंख विष्णु का प्रिय है. शिव पूजा में विष्णु पूजा की वस्तु का प्रयोग नहीं होता. शंख मृत असुर से उत्पन्न है इसलिए मृतज वस्तु से शिव की पूजा वर्जित है.
तेज ध्वनि और जल प्रवाह शिव पूजा में वर्जित होता है. शांत जल धारा और मौन का महत्व है. हम सभी को अपने ईष्ट अथवा देवी देवता की पूजा के नियम एवं सावधानियां योग्य ब्राह्मण अथवा अपने गुरु, माता-पिता, अपने परिजनों से जानना चाहिए. क्योंकि कभी-कभी हमारी असावधानी एवं अशुद्धता के कारण देवी देवता रूष्ट हो जाते हैं.
(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. एनडीटीवी इसकी पुष्टि नहीं करता है.)