त्रिनिदाद और टोबैगो कैसे बन गया 'मिनी बिहार', पढ़िए 180 साल पुरानी गिरमिटिया कहानी

गिरमिट शब्द अंग्रेजी के 'एग्रीमेंट' का बिगड़ा स्‍वरूप है. जिस कागज पर अंगूठे का निशान लेकर मजदूर भेजे जाते थे, उसे आम बोलचाल में भारतीय 'गिरमिट' कहते थे.

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  • त्रिनिदाद और टोबैगो में भारतीय मजदूरों के पहली बार पहुंचने की 180वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है.
  • त्रिनिदाद और टोबैगो की पीएम कमला प्रसाद बिसेसर के निमंत्रण पर पहुंचे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.
  • 1845 में फातेल रज्जाक नाम का जहाज 225 भारतीय मजदूरों को लेकर त्रिनिदाद पहुंचा था.
  • लेबर 'एग्रीमेंट' को बोलचाल की भाषा में 'गिरमिट' कहा जाने लगा और मजदूर 'गिरमिटिया' हो गए.
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नई दिल्‍ली:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने त्रिनिदाद और टोबैगो की धरती पर कदम रखा तो उनका गर्मजोशी से स्‍वागत किया गया. प्रधानमंत्री कमला प्रसाद बिसेसर के निमंत्रण पर पीएम मोदी वहां पहुंचे हैं. ये केवल उनका कूटनीतिक नहीं, बल्कि भावनात्‍मक दौरा भी है. प्रधानमंत्री कमला की जड़ें भारत से जुड़ी हैं, बिहार से जुड़ी हैं. वो खुद भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की वंशज हैं.

भारत और त्रिनिदाद के बीच ये कनेक्शन केवल सरकारों या नेताओं तक सीमित नहीं है, बल्कि ये भावनात्‍मक रिश्ता 1845 से बंधा हुआ है, जब भारत के पहले गिरमिटिया मजदूर इस द्वीप देश में पहुंचे थे. 2025 में जब दोनों देशों के रिश्ते 180 साल का सफर पूरा कर रहे हैं, तब पीएम मोदी की ये यात्रा इतिहास, संस्कृति और भावनात्‍मक रिश्तों की एक नई परत खोल रही है.  

दरअसल, आज त्रिनिदाद एंड टोबैगो की लगभग 40% आबादी भारतीय मूल की है, जिनके पूर्वज कभी बिहार और उत्तर प्रदेश की मिट्टी से निकलकर, गन्ने के खेतों में खपने आए थे. प्रधानमंत्री मोदी का ये दौरा उन्हीं लाखों प्रवासियों की संघर्ष-गाथा को श्रद्धांजलि है, एक ऐसी कहानी जो त्रिनिदाद को आज 'मिनी बिहार' बनाती है. 

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जब 'फातेल रज्जाक' जहाज से ले जाए गए थे बिहार-यूपी के युवा 

30 मई 1845 का दिन त्रिनिदाद और टोबैगो के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ लेकर आया. इस दिन एक जहाज फातेल रज्जाक, 225 भारतीय मजदूरों को लेकर त्रिनिदाद के तट पर उतरा. यहीं से शुरू हुई गिरमिटिया मजदूरों की एक लंबी और कठिन यात्रा, जो उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों से 13,000 किलोमीटर दूर, एक अजनबी दुनिया में ले आई. ये मजदूर 5 से 7 साल के अनुबंध (एग्रीमेंट) पर लाए गए थे, जिसे वहां की बोलचाल में 'गिरमिट' कहा जाने लगा और इसी कारण इन्हें 'गिरमिटिया मजदूर' कहा गया.

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वरिष्‍ठ स्‍तंभकार प्रमोद जोशी अपने एक लेख में बताते हैं कि अंग्रेजों ने 17वीं सदी में भारत से मजदूरों को विदेश ले जाकर काम करवाना शुरू किया. इन मजदूरों को 'गिरमिटिया' कहा गया. गिरमिट शब्द अंग्रेजी के 'एग्रीमेंट' का बिगड़ा स्‍वरूप है. जिस कागज पर अंगूठे का निशान लेकर मजदूर भेजे जाते थे, उसे आम बोलचाल में भारतीय 'गिरमिट' कहते थे. हर साल 10-15 हजार मजदूर गिरमिटिया बनकर फिजी, ब्रिटिश गुयाना, डच गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में जाते थे. ये प्रथा 1834 में शुरू हुई थी और 1917 में इसे खत्म कर दिया गया. 

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क्यों निकले गांवों से और पहुंच गए वेस्टइंडीज? 

गिरमिटिया मजदूरों पर पीएचडी कर चुकीं और वर्तमान में NCERT में प्रोजेक्‍ट फेलो डॉ सारिका जगताप ने लेखक वृज बी लाल की संपादित किताब 'गिरमिटियाज' (Girmitiyas: The Making of Their Memory-Keepers from the Indian Indentured Diaspora) के हवाले से बताती हैं कि 1834 में ब्रिटेन ने गुलामी प्रथा पर रोक लगाई तो यूरोपीय उपनिवेशों में गन्ने के खेतों और दूसरे कामों के लिए मजदूरों की भारी कमी होने लगी.

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भारत, खासकर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मजदूरों को कॉन्ट्रैक्ट पर बाहर भेजा जाने लगा. पहले मॉरीशस, फिर सूरीनाम, फिजी और त्रिनिदाद एंड टोबैगो जैसे देशों में. 1834 से 1920 तक करीब 15 लाख भारतीय मजदूरों को इस सिस्टम के तहत भेजा गया. अकेले त्रिनिदाद और टोबैगो में 1845 से 1917 तक 1.43 लाख से अधिक मजदूर पहुंचे.

खून-पसीने से बनाई जगह, शीर्ष पर पहुंचे 

साल 1902 तक आते-आते आधा से ज्यादा गन्ने की खेती भारतीयों के हाथ में थी. उन्होंने ग़ुलामी जैसे हालातों से लड़ते हुए अपनी पहचान बनाई. धीरे-धीरे यही मजदूर और उनके वंशज देश के विकास की रीढ़ बन गए. 2025 में, त्रिनिदाद और टोबैगो की कुल जनसंख्या में 42% लोग भारतीय मूल के हैं. यानी, लगभग हर दूसरा व्यक्ति किसी न किसी रूप में भारत से जुड़ा हुआ है. यही कारण है कि देश को अक्सर 'मिनी बिहार' कहा जाता है.

कमला से क्रिस्टीन तक: भारतवंशियों का दबदबा

गिरमिटिया मजदूरों के वंशज अब देश की सत्ता तक पहुंच चुके हैं. त्रिनिदाद एंड टोबैगो की प्रधानमंत्री कमला बिसेसर और राष्ट्रपति क्रिस्टीन कंगालू, दोनों ही भारतीय मूल की महिलाएं हैं. कमला बिसेसर के परदादा राम लखन मिश्रा बिहार के बक्सर जिले से थे. ये केवल राजनीतिक पहचान नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति के जड़ से जुड़ाव की मिसाल है. 

भोजपुरी बोलने वाला देश, मन में बसा है भारत 

त्रिनिदाद में बसे अधिकांश भारतीय मूल के लोग बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से हैं. खासकर बिहार के छपरा, आरा, बलिया, सिवान, गोपालगंज और यूपी के बनारस, आजमगढ़ जैसे भोजपुरी भाषी जिलों से. यहां आज भी रामचरितमानस, लोकगीत, चौती नाच, होली-दीवाली जैसी परंपराएं जीवित हैं. गिरमिटिया अपने साथ न केवल मजबूरी लेकर आए थे, बल्कि अपने संस्कार और संस्कृति भी लेकर आए थे. यहां के स्कूलों में भी भोजपुरी बोली जाती है, रामलीला होती है, भारत की तरह पूजा-पाठ और तीज-त्योहार मनाए जाते हैं.

जुड़ी हैं जड़ें: गिरमिटिया वंशजों की कहानी

त्रिनिदाद को भारत से जोड़ने वाली कई कहानियां हैं. उस वक्‍त जो गिरमिटिया मजदूर वहां ले जाए गए, उनके वंशज आज भी भारत में हैं. दिनेश श्रीवास्‍तव ने अपनी किताब 'भारतीय गिरमिटिया मजदूर और उनके वंशज' में डिटेल में बताया है. HT की एक पुरानी रिपोर्ट में त्रिनिदाद के एक मुस्लिम परिवार का जिक्र मिलता है, जिनकी कहानी इस ऐतिहासिक रिश्ते को और गहराई देती है.

1910 में बिहार शरीफ (नालंदा) की एक महिला बसिरन अपनी बेटी के साथ त्रिनिदाद पहुंचीं. सालों बाद जब उनके वंशजों ने भारत सरकार के 'Tracing the Roots' प्रोग्राम के तहत अपने पुरखों की खोज शुरू की, तो बहुत मेहनत और रिसर्च के बाद बसिरन के भाई का पोता बिहारशरीफ में मिला. ऐसी कहानियां बताती हैं कि लाखों किलोमीटर की दूरी और पीढ़ियों का अंतर भी जड़ों से जुड़ाव को मिटा नहीं सकता.

भारत और त्रिनिदाद के बीच दिलों का रिश्ता

त्रिनिदाद और टोबैगो को 1962 में आजादी मिली, और उसके तुरंत बाद भारत ने सबसे पहले राजनयिक संबंध स्थापित किए. पर असल रिश्ता तो 1845 से ही शुरू हो चुका था, जब फातेल रजाक पहली बार भारतीयों को लेकर पहुंचा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले भी 2000 में त्रिनिदाद गए थे. तब वे बीजेपी के जनरल सेक्रेटरी थे और उन्होंने विश्व हिंदू सम्मेलन में भाग लिया था. उस सम्मेलन में RSS प्रमुख के. सुदर्शन, स्वामी चिदानंद सरस्वती और त्रिनिदाद के तत्कालीन प्रधानमंत्री बासदेव पांडे जैसे बड़े नाम शामिल हुए थे. अब एक बार फिर पीएम मोदी यहां पहुंचे हैं.  

आज का 'मिनी बिहार'

13,800 किलोमीटर दूर बसा देश आज भी भारत की छवि का एक प्रतिबिंब है. गिरमिटिया मजदूरों की पीढ़ियां आज डॉक्टर, इंजीनियर, राजनेता और शिक्षक बन चुकी हैं. लेकिन उनकी जड़ें अभी भी आरा, छपरा, और बक्सर में धड़कती हैं.  मोदी ने हाल ही में मॉरीशस में एक भाषण में कहा था कि गिरमिटिया चाहे जहां भी गए, उन्होंने अपनी संस्कृति नहीं छोड़ी. उन्होंने जो पुल बनाया है, वो भारत और उस देश के बीच एक सेतु है. त्रिनिदाद और टोबैगो में आज भी वो सेतु मजबूत है. 
 

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