
20 जून है और आमिर ख़ान की “सितारे ज़मीन पर” रिलीज़ हो चुकी है। फ़िल्म मैंने देखी और देखने के बाद महसूस हुआ कि सिनेमा का असली खिलाड़ी आमिर ख़ान हैं. क्यों हैं, ये मैं आगे बताऊंगा. पहले बात करते हैं “सितारे ज़मीन पर” की बाकी बातों की — यानी कहानी, सितारे, ख़ामियां और ख़ूबियां. सबसे पहले आपको बता दूं कि इस फ़िल्म के निर्देशक हैं आर. प्रसन्ना, फ़िल्म को लिखा है दिव्या निधि शर्मा ने, गीतों को संगीत दिया है शंकर-एहसान-लॉय ने और राम सम्पत ने इसका बैकग्राउंड स्कोर तैयार किया है. मुख्य कलाकार हैं: आमिर ख़ान, जेनेलिया डिसूज़ा, बृजेन्द्र काला, डॉली आहलूवालिया, गुरपाल सिंह. 10 चमकते सितारे: आरूष दत्ता (सतबीर), गोपी कृष्णन वर्मा (गुड्डू), वेदांत शर्मा (बंटू), नमन मिश्रा (हरगोविंद), ऋषि शाहानी (शर्माजी), ऋषभ जैन (राजू), आशीष पेंडसे (सुनील गुप्ता), सम्वित देसाई (करीम कुरैशी), सिमरन मंगेशकर (गोलू ख़ान), आयुष भंसाली (लोटस).
कहानी
यह कहानी है एक अड़ियल और कुंठाओं से ग्रस्त जूनियर बास्केटबॉल कोच की, जिसे अपने सीनियर कोच को थप्पड़ मारने के जुर्म में कोचिंग से सस्पेंड कर दिया जाता है. इसके बाद वह नशे की हालत में एक छोटा-सा एक्सिडेंट कर देता है और सज़ा के तौर पर जज उसे तीन महीने तक कुछ विशेष बच्चों को बास्केटबॉल की कोचिंग देने का आदेश देती हैं. और फिर क्या-क्या होता है, यह आपको फ़िल्म में जाकर देखना चाहिए.
हालांकि यह सिर्फ कहानी की पहली परत है, इसके इर्द-गिर्द कई और कहानियां भी चल रही हैं.
“सितारे ज़मीन पर” एक ऐसी फ़िल्म है जिसे ओटीटी के दौर में कुछ लोग कह सकते हैं कि इसे सीधे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर रिलीज़ कर देना चाहिए था, या शायद कहानी सुनते ही कुछ लोग यह मान लेते कि सिनेमा हॉल में तो सिर्फ बड़े सितारों वाली मसाला एंटरटेनर ही चलती हैं. लेकिन आमिर ख़ान ने अपने लगभग चार दशकों के करियर में कई बार फ़िल्मों के जानकारों, ट्रेंड्स, कमर्शियल दबावों और स्थापित मान्यताओं को ग़लत साबित किया है — और इस बार भी उन्होंने अपनी धुन में यह साबित कर दिया है कि वही हैं सिनेमा के असली खिलाड़ी. ध्यान दीजिए, मैं “फ़िल्मों का खिलाड़ी” नहीं कह रहा, “सिनेमा का खिलाड़ी” कह रहा हूँ, क्योंकि दोनों में फर्क है.
और अब एक बात उन लोगों के लिए जो कह रहे हैं कि “सितारे ज़मीन पर” स्पैनिश फ़िल्म ‘ चैम्पियंस ‘की कॉपी है, बात सही है कि फ़िल्म उस पर आधारित है, लेकिन नकल के लिए भी अक़्ल चाहिए, फिर चाहे वह लाल सिंह चड्ढा हो या सितारे ज़मीन पर.
ख़ूबियां और ख़ामियां
ख़ामियां
ख़ामियों की बात करें, तो वे भी इस फ़िल्म की नेक नीयत और सशक्त मंशा के आगे फीकी पड़ जाती हैं — दरअसल, ख़ामियां हैं, पर मक़सद इतना सच्चा है कि उनकी मौजूदगी महसूस ही नहीं होती.
फिर भी पहले ख़ामी ये की फ़िल्म के पहले हिस्से में जहाँ सभी 10 सितारों का इंट्रोडक्शन है वो हिस्सा थोड़ा लंबा लगता है पर यहां पर भी मनोरंजन है.
दूसरी ख़ामी ये की फ़िल्म में आमिर ख़ान के अपने पिता से नाराज़ होने की जो वजह बतायी गई है वो थोड़ी बासी लगती है.
तीसरी ख़ामी आमिर की के किरदार में डॉली अहलूवालिया और बृजेन्द्र काला का ट्रैक थोड़ा अटपटा लगता है पर मनोरजन ये भी देता है.
बस यही हैं खामिया इस फ़िल्म की अब बात खूबियों की -
खूबियां-
सबसे बड़ी ख़ूबी इस फ़िल्म की यह है कि आमिर ख़ान ने यह फ़िल्म बनाने का सोचा और समाज के उस कोने में झांका, जहां शायद आज के कमर्शियल सिनेमा की हालत देखते हुए कोई रोशनी डालने की हिम्मत ही न करे.
फ़िल्म की कहानी का श्रेय भले ही आप ‘ चैम्पियंस ‘ को दे दें, लेकिन इसकी स्क्रिप्ट को भारतीय परिप्रेक्ष्य में ढालना, उसमें हास्य तत्व जोड़ना और साथ ही सही संदेश को प्रभावशाली तरीक़े से दर्शकों तक पहुँचाना आसान काम नहीं था, जो कि लेखिका दिव्या निधि शर्मा और निर्देशक आर. प्रसन्ना ने बख़ूबी किया है.
कभी हंसते-हंसते आंसू आ जाते हैं, और कभी सूखे हुए चेहरे पर मुस्कान लौट आती है — यह सब फ़िल्म में कब और कैसे होता है, पता ही नहीं चलता.
फ़िल्म के 10 ख़ास बच्चों, यानी इन “सितारों” की जगह निर्देशक चाहते तो आम कलाकार भी ले सकते थे, लेकिन इन विशेष बच्चों के साथ कहानी गढ़कर उन्होंने न केवल मनोरंजन किया, बल्कि उनसे बेहतरीन अभिनय करवाकर यह भी सिद्ध कर दिया कि ये बच्चे किसी आम अभिनेता से कम नहीं हैं.
एक और विशेष बात — इस फ़िल्म में संदेश सिर्फ विशेष बच्चों के प्रति संवेदनशीलता तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें स्पोर्ट्समैन स्पिरिट, मन के डर से लड़ना, बुज़ुर्गों का अकेलापन, और बच्चों का अपने माता-पिता से अलग हो जाना. जैसे कई मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाया गया है.
शंकर-एहसान-लॉय का संगीत सिर्फ गीतों में ही अच्छा नहीं है, बल्कि उसमें भावनात्मक पकड़ भी है. ख़ास बात यह है कि फ़िल्म में क़यामत से क़यामत तक के सुपरहिट गीत “पापा कहते हैं” का स्पिन-ऑफ़ वर्ज़न भी है, जिसे बेहतरीन ढंग से लिखा और कम्पोज़ किया गया है, जो ज़ुबान पर चढ़ जाता है. राम सम्पत का बैकग्राउंड स्कोर भी सधा हुआ और प्रभावशाली है.
आमिर ख़ान, बतौर अभिनेता, एक बार फिर सिद्ध करते हैं कि वे सिर्फ एक कद्दावर कलाकार ही नहीं, बल्कि एक ऐसे निर्माता भी हैं जो समाज के प्रति जागरूक हैं और सिनेमा बनाते समय न तो बाज़ारू दबावों के शोर में बहते हैं, न ही ट्रेंड्स के पीछे भागते हैं. वे सिर्फ अपने दिल की सुनते हैं.
यह फ़िल्म हर किसी को देखनी चाहिए और वो भी पूरे परिवार के साथ. मेरी तरफ़ से इस फ़िल्म को मिलते हैं.
स्टार-4
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