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छठ रिव्यू: परिवार, प्यार और परंपरा की सादगी में लिपटी एक दिल छू लेने वाली कहानी

आज जब सिनेमा ज्यादातर तकनीक और चमक-दमक में खोता जा रहा है, वहीं ‘छठ’ जैसी फ़िल्में हमें इंसान और रिश्तों की सादगी की याद दिलाती हैं. यह फिल्म बताती है कि अच्छा सिनेमा हमेशा दिल से निकली सच्ची कहानियों में बसता है.

छठ रिव्यू: परिवार, प्यार और परंपरा की सादगी में लिपटी एक दिल छू लेने वाली कहानी
नीतू चंद्रा की फिल्म छठ का रिव्यू
नई दिल्ली:

अभिनेत्री नीतू चंद्रा को हम बड़े परदे और वेब सीरीज में देख चुके हैं, लेकिन बतौर निर्माता उनके परदे के पीछे के काम से बहुत कम लोग वाकिफ हैं. नीतू चंद्रा पिछले कुछ सालों से अपने निर्देशक भाई नितिन नीर चंद्रा के साथ मिलकर लगातार फिल्में बना रही हैं. उनकी कोशिश न सिर्फ बिहार की भाषाओं- भोजपुरी, मैथिली और मगही में सिनेमा को नई पहचान देने की है, बल्कि वहां के कलाकारों को पहचान और रोजगार दोनों देने की भी है. उनकी फिल्में पारंपरिक या चलन वाली भोजपुरी फिल्मों से बिल्कुल अलग हैं. यहां संवेदना है, संस्कृति है, मिट्टी की खुशबू है और रिश्तों की अहमियत भी. ऐसी ही एक नई फिल्म हाल ही में वेव्स ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर रिलीज हुई है- जिसका नाम है ‘छठ.

कलाकार

शशि वर्मा, दीपक कुमार, मेघना पंचाल, स्नेहा पल्लवी और अन्य.

छठ की कहानी 

‘छठ' की कहानी एक ऐसे परिवार की है जो कई सालों बाद छठ पर्व मनाने के लिए गांव में इकट्ठा होता है. गांव में पहले से गोविंद अपनी बीमार मां और पत्नी के साथ रहता है. उसकी तीन बहनें अपने-अपने परिवार के साथ गांव आती हैं, जिनमें उनके बच्चों के अलावा दो बहनों के पति भी हैं. लेकिन गोविंद को सबसे ज्यादा इंतजार है अपने भतीजे का, जो अमेरिका से पहली बार अपनी पत्नी के साथ गांव लौट रहा है.

छठ के इन कुछ दिनों में यह परिवार हंसी-खुशी तो मनाता है, लेकिन उसी बीच अहं, गलतफहमी और कलेश भी जन्म लेते हैं. रिश्तों के बीच दरारें पड़ती हैं, पर साथ ही यह कहानी दिखाती है कि प्रेम और अपनापन की डोर कितनी मज़बूत होती है, जो तमाम गलतफहमियों और मतभेदों के बावजूद परिवार को फिर से जोड़ देती है. यही है ‘छठ' की आत्मा- एक परिवार, एक त्योहार, और रिश्तों की सादगी भरी जीत की कहानी.

अगर आप मुंबई या दिल्ली जैसे बड़े शहर में रहते हैं लेकिन कभी ऐसे परिवार में पले-बढ़े हैं जहां चाचा, बुआ, ताऊ, चचेरे भाई-बहन सब एक ही छत के नीचे रहते थे, तो यह फिल्म आपको अपनी जड़ों की ओर जरूर ले जाएगी. कुछ पुराने पल याद आ जाएंगे, और शायद आंखें भी नम हो जाएं.

फिल्म में हर रिश्ते के बीच की बारीक भावनाओं का सुंदर चित्रण है- चाहे वह संवाद हों, हावभाव हों या सन्नाटे में छिपे अहसास. निर्देशक नितिन नीर चंद्रा ने इसे सादगी से पेश किया है. बिना तड़क-भड़क, बिना तेज कटिंग या दिखावटी कैमरा मूवमेंट के. यही सादगी फिल्म का असली सौंदर्य है. फिल्म का संगीत भी कहानी की आत्मा को और गहराई देता है. चाहे पृष्ठभूमि संगीत हो या गाने- हर धुन में रिश्तों का दर्द, छठ पूजा की भावना और पारिवारिक जुड़ाव की सच्चाई झलकती है. संगीतकार प्रभाकर पांडेय का संगीत इन सभी पहलुओं को सुंदर संतुलन देता है और फ़िल्म की भावनाओं को और ऊंचा उठा देता है.

कलाकारों का अभिनय भी काबिल-ए-तारीफ है

शशि वर्मा ने बड़े भाई की भूमिका में गहराई और ठहराव लाया है. दीपक कुमार ने भतीजे के रूप में प्रभाव छोड़ा है, वहीं मेघना पंचाल ने अपनी आंखों और भावों से बेहतरीन अभिनय किया है. स्नेहा पल्लवी का काम भी दिल छू लेने वाला है. कुल मिलाकर, हर कलाकार ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है.

कहानी और लेखन की बात करें तो फ़िल्म ‘छठ' की पटकथा बेहद संवेदनशील और खूबसूरती से लिखी गई है. कई सालों से इस तरह के पारिवारिक रिश्तों पर इतनी सच्ची और सहज फ़िल्म नहीं देखी गई. लेखक और निर्देशक नितिन नीर चंद्रा और उनके सह-लेखक शत्रुघ्न कुमार को फ़िल्म की कहानी और लेखन के लिए पूरे नंबर मिलते हैं.

आज जब सिनेमा ज्यादातर तकनीक और चमक-दमक में खोता जा रहा है, वहीं ‘छठ' जैसी फ़िल्में हमें इंसान और रिश्तों की सादगी की याद दिलाती हैं. यह फिल्म बताती है कि अच्छा सिनेमा हमेशा दिल से निकली सच्ची कहानियों में बसता है.

स्टार- 3.5

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