कभी न भूलने वाला संगीत और भूले-बिसरे संगीतकार

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Madhavi Mishra

अपने पिछले लगभग हर ब्लॉग में मैंने अपने बचपन का ज़िक्र ज़रूर किया है. सभी के मेमोरी सेल्स में बचपन का अलग ही हिस्सा होता है. मन जीवनपर्यंत उन्ही वीथियों में उलझता-भटकता रहता है. पर ऐसा हो भी क्यों न? क्योंकि आज जो ज़िन्दगी का हासिल है, वह उसी बचपन का प्रतिबिम्ब है, परावर्तन है. गीत-संगीत, साहित्य की समझ, परख, अनुभव और सलाहियात - सबका केंद्र बचपन ही रहा है. हां, तब आज की तरह मोबाइल की गिरफ़्त में नहीं थे, तो जीवन के सभी रसों का आस्वादन किया. गीत-संगीत, जो रगों में बहता है, उसका सारा श्रेय आकाशवाणी के जगदलपुर केंद्र, रेडियो सीलोन और विविधभारती को जाता है. जो सुना, वह गुना... जो सीखा, वह मानस पटल पर अमिट लेख की तरह छप गया है.

अभी पिछले दिनों के अपने ब्लॉग में मैंने उन गायक कलाकारों की चर्चा की थी, जिन्होंने कम ही गाने गाए, लेकिन वे कालजयी रहे. आज मैं उन संगीतकारों का ज़िक्र करना चाहती हूं, जिन्होंने मुट्ठीभर फिल्मों में संगीत देकर आकाश जीत लिया. 60-70 के दशक में सक्रिय ये संगीतकार हम जैसे संगीत रसिकों के दिलों पर अब तक राज करते आए हैं.

ऐसे कई संगीतकार हुए, लेकिन मैं उन्हीं की बात कर रही हूं, जो व्यक्तिगत रूप से मेरे बहुत प्रिय रहे हैं.

1961 में एक फ़िल्म आई थी 'रज़िया सुल्तान'... नहीं, नहीं, ख़य्याम वाली नहीं, यह थी लच्छीराम तोमर के संगीत निर्देशन से सजी फ़िल्म, जिसका गीत था 'ढलती जाए रात, कह दे दिल की बात...' - कितना मधुर गीत... इसी साल एक और फ़िल्म आई थी, 'हमारी याद आएगी', जिसका गीत था मुबारक बेग़म का गाया 'कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी...' - आज भी उतना ही दिलकश और अज़ीज लगता है. इसका संगीत दिया था स्नेहल भाटकर ने. उनकी भी अधिक चर्चा कहीं और नहीं सुनी.

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एक बहुत ही गुणी संगीतकार के बारे में बहुत सुधी सुनने वालों को पता होगा. नाम है दान सिंह... मुकेश की आवाज़ में गाया उनका एक गीत था, 'वो तेरे प्यार का ग़म, एक बहाना था सनम...' - मुझे इतना पसंद था कि कैसेट के दोनों ओर 20 बार रिकॉर्ड करवाया था कि मुझे रिवाइंड-फ़ॉरवर्ड करने की ज़हमत न उठानी पड़े और मुझे यही गीत हर समय सुनाई देता रहे. ख़ैर, उस समय तक दिल टूटने की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई थी, लिहाज़ा सारा सरअंज़ाम सिर्फ़ गायकी और सुर के लिए ही था, जहां मुकेश अपनी तल्लीन चिरतम उदासी के साथ मौजूद थे. 'माय लव' फ़िल्म में इस गाने के अलावा एक और गीत था, 'ज़िक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात होती है...' - राग भैरवी में निबद्ध यह गाना भी अनूठी रचनात्मकता के साथ जलवा-अफ़रोज़ होता है. दान सिंह की एक और अद्भुत कृति है 'भूल न जाना' फिल्म का एक गीत, जिसे गुलज़ार ने लिखा था, 'पुकारो, मुझे नाम लेकर पुकारो...' - अहा! अद्भुत सौंदर्य... अनिर्वचनीय सुख कानों के लिए. हालांकि यह फ़िल्म कभी रिलीज़ न हो सकी.

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इन्हीं किन्हीं सालों में एक फ़िल्म आयी थी 'रुस्तम सोहराब', जिसमे तलत, रफी और मन्ना डे का गाया एक गीत था, 'फिर तुम्हारी याद आई ए सनम...' - इस गीत का ज़िक्र मैंने लता मंगेशकर जी से सबसे पहले सुना था, जो विविधभारती से फौजी भाइयों के लिए प्रसारित विशेष 'जयमाला' कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही थीं. उन्होंने अपनी पसंद के गानों की बात करते हुए यह गाना सुनवाया था, इसकी बेहतरीन और उत्कृष्ट संगीत रचना के लिए. इसके संगीतकार थे सज्जाद हुसैन और यह गीत अपनी बंदिश में थोड़ा अलग था, जो कव्वाली जैसा लुत्फ़ देता था.

कनु रॉय ऐसे संगीतकार थे, जिन्होंने बहुत कम फिल्मों में अनेक हृदयस्पर्शी गीतों को जन्म दिया, जिनमें 'मुझे जां न कहो मेरी जां...' शामिल है. मेरा व्यक्तिगत रूप से all-time favourite गीत रहा है 'गृहप्रवेश' फ़िल्म का चंद्राणी मुखर्जी का गाया, 'पहचान तो थी, पहचाना नहीं...' उन्होंने बासु भट्टाचार्य की लगभग सभी फिल्मों में संगीत दिया था.

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समाचारपत्र 'दैनिक भास्कर' के एक लोकप्रिय स्थायी कॉलम के लेखक थे जय प्रकाश चौकसे, जिन्होंने एक फ़िल्म बनाई थी 'शायद' नाम की. फ़िल्म तो ज्यादा चली नहीं, संगीत भी लोकप्रिय नहीं हुआ, लेकिन इस फ़िल्म एक अत्यंत मधुर गीत था 'खुशबू हूं मैं, फूल नहीं हूं, जो मुरझाऊंगा...' इसे गाया रफ़ी साहब ने था और संगीत दिया था आज के मशहूर गायक शान के स्वर्गीय पिता मानस मुखर्जी ने.

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पंडित रविशंकर अपनी कला के तो उस्ताद रहे ही, उन्होंने कुछ-एक फिल्मों में संगीत भी दिया, जिनमें सर्वाधिक सफ़ल संगीत फ़िल्म 'अनुराधा' का रहा. इस फ़िल्म में संगीत से लेकर कहानी, निर्देशन और अभिनय सभी चरम पर थे. शास्त्रीय रागों पर आधारित लता जी के गाए ये गीत हिन्दी फिल्म संगीत की धरोहर हैं. 'हाय रे, वो दिन क्यों न आए...' और 'कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियां...' किस तरलता से मन की गहराई में पैबस्त हो जाते हैं. क्या ही अद्भुत संवेदनाएं, जिन्हें पर्दे पर उकेरा गया और वैसा ही हूबहू गायन, जिसे सुनकर आंख नम हो जाए.

कितने ही ऐसे और संगीतकार हैं, जिनका ज़िक्र किया जाना चाहिए, जैसे - पंकज मलिक, खेमचंद्र प्रकाश, सोनिक ओमी, भूपेन हज़ारिका, हृदयनाथ मंगेशकर - किन्तु फिर कभी...

गुलाम मोहम्मद के ज़िक्र के बिना यह ब्लॉग अधूरा रहेगा. गुलाम मोहम्मद उन दुर्भाग्यशाली लोगों में रहे, जो अपने अति महत्वाकांक्षी और सर्वोत्कृष्ट शाहकार की सफलता और लोकप्रियता का आनंद अपने जीते-जी नहीं ले पाए. ख़ैर, 'पाकीज़ा' और भी कई अर्थों में दुर्भाग्यपूर्ण रही. 'पाकीज़ा' के संगीत में  कुछ योगदान नौशाद साहब का भी था, लेकिन उससे गुलाम मोहम्मद के कद पर कोई असर नहीं पड़ता. विशिष्टता, शास्त्रीयता, कलात्मकता का बेजोड़ संगम था 'पाकीज़ा' का संगीत. विभिन्न रागों पर आधारित गीत, ठुमरियां, बंदिशें, लोकगीत, मुजरे, जिन्हें स्वर देने वाले लता जी, परवीन सुल्ताना, राजकुमारी, शोभा गुर्टू - सबने जो तिलिस्म रचा, उसका जादू अब भी कायम है. इस फ़िल्म के लिए तैयार किए गए सारे गीत फ़िल्म में शामिल नहीं किए जा सके, तो HMV ने अलग रिकॉर्ड रिलीज़ किया 'पाकीज़ा - रंग बरंग' नाम से. इस कलेक्शन में आप 'चलो दिलदार चलो...' को सिर्फ़ लता मंगेशकर की आवाज़ में सुन सकेंगे.

अफ़सोस! ज़माना इन सभी को इनके बाद ढूंढता रहा है, लेकिन जो कुछ भी ये सभी गुणी लोग रच गए हैं, वह जीवन, समय और काल से परे है, अनमोल है, अमिट है. सदियों से ये गीत हमारे दिलों पर राज करते आए हैं और जैसा मैं हमेशा कहती हूं - जब तक मेरे और आपके जैसे रसिक श्रोता हैं, इन गीतों की मधुर ध्वनियां प्रतिध्वनित होती रहेंगी.

माधवी मिश्र संगीत मर्मज्ञ हैं, और DPS, उज्जैन की डायरेक्टर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.