विनायक दामोदर सावरकर पर जो बात राजनाथ सिंह ने शुरू की थी, उसे अब सावरकर के पोते रणजीत सावरकर ने आगे बढ़ाया है. कल राजनाथ ने बताया था कि सावरकर ने महात्मा गांधी के कहने पर अंग्रेज़ों को माफ़ीनामा लिखा था. सावरकर के पोते का कहना है कि महात्मा गांधी को वे राष्ट्रपिता नहीं मानते.
सावरकर के पोते और क्या-क्या मानते हैं, क्या-क्या नहीं, यह जानने के लिए उनके ट्विटर अकाउंट पर एक दृष्टि डालना पर्याप्त है. वे अपने आधिकारिक अकाउंट पर नेहरू की फ़र्ज़ी तस्वीर लगा कर नेहरू के ख़िलाफ़ टिप्पणी करते हैं, हिंदुओं को मुसलमानों के जेहाद का डर दिखाते हैं और भारत की रक्षा के लिए हिंदू संगठन की बात करते हैं.
लेकिन हम रणजीत सावरकर को इतनी अहमियत क्यों दें? इसलिए कि यह भाषा उन्होंने सिर्फ़ सावरकर से नहीं, संघ परिवार से भी सीखी है. यह वही भाषा है जो बीजेपी के बहुत सारे नेता अलग-अलग अवसरों पर बोलते रहे हैं. बीते साल एक आरटीआई के जवाब में भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय बता चुका है किसी सरकार ने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि नहीं दी. इस सिलसिले में कोई अध्यादेश या नियम जारी नहीं किया गया. दरअसल सरकारों से यह सवाल एकाधिक बार पूछा गया और हर बार यही जवाब आया कि किसी सरकार ने महात्मा गांधी को यह उपाधि नहीं दी.
दरअसल यह देश और सरकार को एक-दूसरे का पर्याय मान लेने के भ्रम का नतीजा है कि लोग जानना चाहते हैं कि किसी सरकार ने ऐसी किसी उपाधि को मान्यता दी है या नहीं? जबकि देश सरकारों से बड़ा होता है. जनता की अपनी एक स्मृति होती है जो अपने नायकों से अपना रिश्ता गढ़ती है. यह टैगोर थे जिन्होंने मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा माना और उनके पीछे-पीछे पूरा देश यही मानने लगा. गांधी ताउम्र अपने आचरण से महात्मा होने की पात्रता बार-बार अर्जित भी करते रहे. इसी तरह माना जाता है कि 1944 में सुभाषचंद्र बोस ने सिंगापुर रेडियो से एक संदेश प्रसारित करते हुए उन्हें राष्ट्रपिता का नाम दिया था. गांधी और सुभाष को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने वाली वैचारिकी इस संबंध के सूत्र को ठीक से समझने की हालत में भी नहीं है. लेकिन सच यह भी है कि बोस ने गांधी को यह संबोधन दिया तो इसलिए भी कि गांधी ने इस देश के करोड़ों लोगों का पिता होने की पात्रता अर्जित की थी. यह बहुत सारे लोगों की तंगनज़री है कि गांधी के इस पितृत्व में वे कोई फूहड़ किस्म का मज़ाक खोजने लगें.
बीजेपी के नेता इस पितृत्व पर सवाल उठाते रहे हैं. ज़्यादा दिन नहीं हुए जब मध्य प्रदेश बीजेपी के मीडिया सेल के प्रभारी ने गांधी को पाकिस्तान का राष्ट्रपिता कह दिया था. जब इस पर शोर मचा तो बीजेपी ने उन्हें फौरन इस पद से हटा दिया. लेकिन अब वे दिल्ली के आइआइएमसी में प्रोफेसर बना दिए गए हैं. इसे गांधी के अपमान का पुरस्कार न मानें तो क्या कहें.
दरअसल गांधी को समझना इस देश के गुणसूत्रों को भी समझना है. गांधी इस देश की मिट्टी को पहचानते हैं. बेशक, इस पहचान को लेकर वे बीच-बीच में अपनी राय बदलते भी हैं. लेकिन सत्य, अहिंसा, सहिष्णुता उनके दर्शन के बीज शब्द हैं. वे यह भी मानते हैं कि ये बीज उन्हें भारतीयता की उदार परंपरा से मिले हैं. मगर ऐसा नहीं कि इस परंपरा से जो भी मिल रहा है, वह उन्हें स्वीकार्य है. इसके क्रूर या अमानवीय तत्वों की वे आलोचना करते हैं और उन्हें बदलने की कोशिश करते हैं. उनके पूरे जीवन और चिंतन में एक तरह की विश्वजनीनता भी दिखती है. अगर बुद्ध और महावीर के साथ उनका नाम लिया जाता है तो सुकरात, ईसा और मार्टिन लूथर किंग को उनके संदर्भ में स्वाभाविक ढंग से याद किया जाता है. थोरो और टॉल्स्टॉय के बिना उनकी वैचारिकी का संदर्भ पूरा नहीं हो सकता.
दरअसल गांधी के साथ बीजेपी का दुविधा भरा रिश्ता यहीं से शुरू होता है. वह गांधी की तरह स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की बात करती है, लेकिन गांधी की राष्ट्रीयता उसकी समझ में नहीं आती. गांधी के लिए देश कोई जड़ संज्ञा नहीं है जो किसी साम्राज्य की तरह विरासत में मिला है. देश वह बना रहे हैं. बीजेपी के लिए देश एक मिथक है. वह राम और कृष्ण की कथाओं से शुरू होता देश है, इतिहास के हिंदू राजाओं के मिथकीय पराक्रम की गाथाओं के बीच बना देश है. वह यह भी भूल जाती है कि यह देश सदियों से किसी एक राजनीतिक धागे से बंधा नहीं रहा है, वह किसी एक धार्मिक परंपरा से भी आबद्ध नहीं है. इसे बहुत सारी परंपराओं ने, बहुत सारी आस्थाओं ने, बहुत सारी भाषाओं ने मिलकर सींचा है. बीते एक हज़ार साल में ही यहां सूफ़ी परंपरा के अमीर खुसरो होते हैं जिनका असर पूरे मध्यकाल पर ही नहीं, आधुनिक काल तक दिखता है, कबीर, सूर और तुलसी होते हैं, तानसेन होते हैं. हिंदी के प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा है कि मध्यकाल के तीन शिखर हैं- तुलसीदास, तानसेन और ताजमहल. बीजेपी तुलसी को तो अपना मानती है, लेकिन ताजमहल और तानसेन उससे सधते नहीं हैं. जबकि गांधी राम का नाम अपनी मृत्यु तक नहीं छोडते हैं और अपने भजन में ईश्वर के साथ अल्लाह को जोड़ते हैं. धर्म को वे उसकी संकीर्णता से अलग करते हैं और उसकी करुणा के साथ आत्मसात करते हैं. राम, कृष्ण और शिव उनके लिए इसी धार्मिकता का विस्तार हैं जिनकी कुछ बहुत अच्छी व्याख्याएं बाद में खुद को कुजात गांधीवादी कहने वाले डॉ राममनोहर लोहिया ने की हैं.
दरअसल महात्मा गांधी अपनी भारतीयता के बीज इसी साझा जमीन से उठाते हैं. अपनी प्रार्थनाओं के लिए वे जो गीत चुनते हैं, वे मध्यकाल के कवियों के ही हैं. जब उनसे पूछा जाता है कि वे कौन हैं, तो वे खुद को संत, सिपाही या स्वतंत्रता सेनानी नहीं बताते. वे कहते हैं कि वे एक बुनकर हैं- एक जुलाहा- और इसी के साथ मध्यकाल की चादर जैसे अपने बुनने के लिए उठा लेते हैं.
यह वह भारत है जो आज़ादी की लड़ाई में एक साथ खड़ा होता है. इसे बापू का सत्याग्रह रचता है. सत्य और अहिंसा के प्रति उनकी निष्ठा रचती है. बेशक, इस रचाव में काफ़ी अभाव है, काफी कुछ अधूरापन है जो गांधी को अकेला करता है. विभाजन के समय के दंगे देखकर वे महसूस करते हैं कि जिस अहिंसा का पाठ वे पढाते रहे, वह उनके देशवासियों ने सीखी ही नहीं. वरना उनके भीतर इतनी हिंसा दबी नहीं होती. अंततः इसी हिंसा के वे शिकार होते हैं. सावरकर का सचिव रहा नाथूराम गोडसे अंततः एक साज़िश के तहत उनकी हत्या कर डालता है. बरसों बाद हम पाते हैं कि भारत की हिंदूवादी राजनीति में ऐसे तत्व बचे हुए हैं जो नाथूराम गोडसे की मूर्तियां और उनके मंदिर बना रहे हैं और गांधी जयंती पर गोडसे को ‘ट्रेंड' करा रहे हैं.
वाकई बीजेपी जैसा भारत बनाना चाहती है, महात्मा गांधी उसके राष्ट्रपिता नहीं हो सकते. संकट यह है कि चाहते हुए भी वह सावरकर को अपना राष्ट्रपिता नहीं बना सकती. सावरकर तो आज़ादी की लंबी चली लड़ाई के सबसे अहम लम्हों में ब्रिटिश साम्राज्य के साथ खड़े थे.
इतिहासकार सुधीरचंद्र एक बहुत मार्मिक बात कहते हैं- गांधी ने 35 साल अंग्रेज़ों से लड़ाई लड़ी, वे 1915 में भारत आए, 1947 में देश आज़ाद हुआ. उसके पहले गांधी दक्षिण अफ्रीका में लडते रहे. लेकिन इतने वर्षों तक वे सुरक्षित रहे. आज़ाद भारत उनको बस 169 दिन जीवित रख सका.
सुधीरचंद्र एक बात और कहते हैं. अपनी मौत के पहले गांधी बहुत अकेले थे- बहुत क्षुब्ध. आज़ाद भारत में पड़ने वाले अपने इकलौते जन्मदिन पर उन्होंने कहा कि वे और जीना नहीं चाहते. लेकिन उसी साल जून तक वे कह रहे थे कि वे 133 साल तक जिएंगे. अगर गांधी ने यह उम्र पा ली होती तो क्या देखा होता? वे 2002 में गुज़रे होते- गुजरात के दंगों को देखकर.
लेकिन वाकई गांधी इतने साल जीते तो क्या आज़ाद भारत ऐसा ही होता, क्या उसमें इतने ही दंगे होते, क्या उसमें ऐसा गुजरात होता, क्या वह सरकार होती जो आज चल रही है और क्या यह बहस होती कि गांधी इस देश के राष्ट्रपिता हैं या नहीं?
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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